रविवार, 20 दिसंबर 2020

ऋग्वेद में श्रद्धासूक्त

 

श्रद्धा सूक्त

ऋग्वेद के दशम मंडल के १५१ वें सूक्त को श्रद्धा सूक्त कहते है इसकी रिषिका श्रद्धा कामायनी देवता श्रद्धा छन्द अनुष्टुप है

इस सूक्त में श्रद्धा का आवाहन देवी के रूप में करते हुए कहा है कि

वह हमारे हृदय में श्रद्धा उत्पन्न करे

श्रद्धयाग्नि समिध्यते श्रद्धया हूयते हवि

श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि

श्रद्धा से ही अग्निहोत्र की अग्नि प्रदीप्त होती है श्रद्धा से ही हवि की आहुति यज्ञमें दी जाती है धन ऐंश्वर्य में सर्वोपरि श्रद्धा की हम पस्तुति करते हैं

प्रिय श्रद्धे ददत: प्रियं श्रद्धे दिदासत:

प्रियं भोजेषु यज्वस्विदं म उदितं कृधि ।।

हे श्रद्धे दाता के लिये हितकर अभीष्ट फल को दो हे श्रद्धे दान देने की जो इच्छा करता है उसका भी प्रिय करो भोगैश्वर्य प्राप्त करने के इच्छुकों के भी प्रार्थित फल को प्रदान करो

यथा देवा असुरेषु श्रद्धामुग्रेषु चक्रिरे

एवं भोजेषु यज्वस्वस्माकमुदितं कृधि ।।

जिस प्रकार देवों ने असुरों को परास्त करने के लिये यह निश्चय किया कि इन असुरों को नष्ट करना ही चाहिये उसी प्रकार हमारे श्रद्धालु ये जो याज्ञिक एवं भोगार्थी है इनके लिये भी इच्छित भोगोंको प्रदान करो

श्रद्धा देवा यजमाना वायु गोपा उपासते

श्रद्धां हृदय्य याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु

वलवान वायु से रक्षण प्राप्त करके देव और मनुष्य श्रद्धा की उपासना करते है वे अन्त:करण में संकल्प से ही श्रद्धा की उपासना करते है श्रद्धा से ही धन प्राप्त होता है

श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि

श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह न: ।।

हम प्रात काल में श्रद्धा की प्रार्थना करते है मध्यान्ह में श्रद्धा की उपासना करते हैहे श्रद्धा देवी इस संसार में हमें श्रद्धावान बनाइये

पं बनवारी चतुर्वेदी

रविवार, 6 दिसंबर 2020

अध्याय १ आ श्रद्धा ही जीवन है

 अध्याय १ आ  श्रद्धा ही जीवन है

श्रद्धा ही जीवन है

श्रद्धा मानव जीवनकी नींव हैजैसी जिसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है गीताके शब्दोंमें  श्रद्धामयोयं पुरुषः 

अर्थात मनुष्य स्वभावसे ही श्रद्धावान है यह बात अलग है कि उसकी श्रद्धाका आकार क्या है जिस तरह सूर्यके बिना दिन नहीं होता, आंखोंके बिना देखा नहीं जाता, कानोंके बिना सुना नहीं जा सकता, उसी प्रकार श्रद्धाके बिना जीवन गतिमें नहीं हो सकती। जिस प्रकार दीपकके प्रज्वलित रहनेके लिए स्नेह आवश्यक है उसी प्रकार जीवनके लिए श्रद्धा आवश्यक है वह मनुष्य मनुष्य नहीं जिसमें श्रद्धा न हो। श्रद्धा ही श्रद्धालुओंको सत्यका साक्षात्कार कराती है

यजुर्वेद 19.30 का वचन है -- श्रद्धया सत्यम् आप्यते

श्रद्धासे सत्यकी प्राप्ति होती है। श्रद्धा प्राणः।  ९-५-२१ यह अथर्ववेद का वाक्य है। श्रद्धा ही मनुष्यका प्राण है। श्रद्धाविहीन मनुष्यको निष्प्राण या निर्जीव समझना चाहिए। किसी तरहकी श्रद्धा ना होने पर वह निश्चेष्ट ही रहेगा और चेष्टारहित जीवन मृत्युके समान ही होता है। 

गीतामें कहा है कि श्रद्धा ही मुक्तिका ज्ञानप्राप्तिका और जीवनसाधनाका आधार है।श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्। श्रद्धालु व्यक्ति ही ज्ञानको पाता है। श्रद्धालु व्यक्ति अपनी इंद्रियोंका संयम करके तत्परतासे ज्ञान प्राप्त करता है ज्ञान प्राप्त होनेसे मुक्ति मिलती है, फिर वह परम शांति और सुखकी अनुभूति करता है। हमारी श्रद्धाका उदय होता है किसी महत्वपूर्ण व्यक्तिसे। जब हम किसी व्यक्तिमें जनसाधारणसे अधिक विशेष गुण या शक्तिका दर्शन करते हैं तो उसके प्रति एक आनंदयुक्त आकर्षण पैदा होता हैयही आकर्षण हमें उस व्यक्तिके महत्वको स्वीकार करनेके साथ-साथ उसके प्रति एक पूज्य भाव भी पैदा करता है। इसी प्रक्रियाका नाम श्रद्धा हैश्रद्धाका आधार व्यक्तिके गुण और कर्म ही होते हैं। इसलिए जिन कर्मोंकी प्रेरणासे श्रद्धा उत्पन्न होती है उन्हें धर्मकी संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार व्याख्यायित धर्मसे मनुष्य समाजकी स्थिति होती है। संक्षेपमें धर्मवान व्यक्ति हमारी श्रद्धाका केंद्र होता है। श्रद्धालु और श्रद्धेयके बीचमें यह धर्मकार्य ही मुख्य हेतु होता है।

-------------------------------------*********************------------------------------