गुरुवार, 5 जून 2025

2015 -- मराठी ब्लॉग स्पर्धा -- एबीपी माझा वर

 

7 अप्रैल 2015

नमस्कार मंडळी!

एबीपी माझा’ करतोय मराठीतली एकमेव आणि अभिनव अशी ब्लॉग माझा स्पर्धा. आपण गेल्या वेळी ज्याप्रकारे या स्पर्धेला भरघोस प्रतिसाद दिला होतात, तसाच प्रतिसाद यावेळीही अपेक्षित आहे. त्यासाठीच हा ईमेलप्रपंच.

मराठी ब्लॉगिंगचं क्षितीजही आता विस्तारतंय. विविध विषयांना धीटपणे भिडताना मराठी ब्लॉगर्स दिसत आहेत. फक्त स्फूट लेखनंच नाही तरकविताफोटोकथा असेही प्रकार हाताळले जात आहेत. फक्त ललितच नव्हेतर विज्ञानशेतीपरराष्ट्र संबंधकलासाहित्य अशा विशेष विषयांनाही मराठी ब्लॉग्ज आपल्या कवेत घेत आहेत. अशाच मराठी ब्लॉग्ज आणि ब्लॉगर्सचं कौतुक करतोय एबीपी माझा’ ‘ब्लॉग माझा’ या मराठीतल्या एकमेव ब्लॉगिंग स्पर्धेच्या रूपानं.

 तेव्हा मंडळी तुमच्यात दडलेल्या लेखक / लेखिकेला केवळ डायरीफेसबुक किंवा ट्विटर पुरताच मर्यादित ठेवूनका. या स्पर्धेत भाग घ्या. ब्लॉगवर नियमित लिहित असाल तर ठिकचनाही तर ब्लॉग अपडेट करा. ब्लॉग नसेल तर या स्पर्धेच्या निमित्तानं सुरू करा.

 काय म्हणालातबक्षिसांचंकायअहोबक्षीसंआहेतंच की! पहिल्या तीन जणांना विशेष पारितोषकं आणि उर्वरीत दहा जणांचा उत्तेजनार्थ गौरव. आता कोणती बक्षीसं आहेत ते गुपित राहूद्या की! शिवायतुमच्या निवडलेल्या ब्लॉगला एबीपी माझाच्या वेबसाईटवर प्रसिद्धी आणि बक्षीस वितरण समारंभ थेट एबीपी माझावर!

 

.....तेव्हा मित्र-मैत्रिणींनो येऊ द्या तुमच्यातल्या लेखक-लेखिकेला जगासमोर!

 

स्पर्धेचं स्वरूप-

 १. ब्लॉग युनिकोड मराठीतच लिहिलेला हवा (देवनागरी)

 २. अठरा वर्षांपुढील कुणीही या स्पर्धेत सहभागी होऊ शकतं.

 ३. सर्वोत्तम ब्लॉग निवडण्याचे अधिकार पूर्णत: परिक्षक आणि स्पर्धा संयोजकांकडे

असतील. त्याबद्दल कोणतंही स्पष्टीकरण देण्यास परिक्षकसंयोजक, ‘एबीपी माझा’ हे

बांधील नसतील. तुमचे प्रवेश हे तुम्हाला अटी मान्य असल्याच्या निदर्शक असतील.

 ४. स्पर्धेत सहभागी होण्यासाठी blogmajha@gmail.com या ई-मेल अँड्रेसवर ई-मेल करावा.  ज्याततुमचं नावतुमच्या ब्लॉगची लिंकपत्ताव्यवसायदूरध्वनी क्रमोबाईल क्रव ई- मेल द्यावा. ई-मेल अँड्रेस देणं अनिवार्य आहे.

 ५. या स्पर्धेसाठी कोणतंही शुल्क नाही.

 ६. एकावेळी एका स्पर्धकाला फक्त एकच ब्लॉग पाठवता येईल.

 ७. ब्लॉग पाठवण्याची शेवटची तारीख 20 एप्रिल 2015.

 ८. स्पर्धेचा निकाल एप्रिलच्या शेवटच्या आठवड्यात जाहीर होईल. तसंचसंबंधित

विजेत्यांनाच फक्त ई-मेलद्वारे निकाल कळवला जाईल.

 ९. यानंतर एबीपी माझाच्या खास एपिसोडमध्ये विजेत्यांचा सत्कार करण्यात येईल व पुरस्कार वितरण होईल.

 १०. स्पर्धेचं आयोजननियमावलीअटीबक्षीसंयासंदर्भात कोणत्याही पूर्वसुचनेशिवाय

बदल करण्याचे अधिकार एबीपी माझाकडे असतील.

 ११.ब्लॉगमधला कंटेंट स्वत:चाच असावा. जर अन्य स्त्रोतांकडून माहिती घेतली असेलतर त्यांचा नाममिर्देश करावा. ब्लॉग व त्यातील मजकूर आपलाच असल्याचेसिद्ध करणेही स्पर्धकाची जबाबदारी आहे. तुमच्या ब्लॉगद्वारेबौद्धिक संपदा अधिकारकॉपीराईट कायदा यांचा भंग झाल्यासउचलेगिरी आढळल्यास त्या ब्लॉगरचा स्पर्धेतला सहभाग व पारितोषिक मिळाल्यास तेही रद्द करण्यात येईल.


धन्यवाद,

एबीपी माझा टीम

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

भाषाई संघर्षकी किसे पडी है -- मोतीलाल गुप्ता

  स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान और उसके पश्चात अनेक राष्ट्रीय नेताओं और देश-प्रेमियों ने राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय संवाद की दृष्टि से हिंदी भाषा के लिए अनेक संस्थाएँ खड़ी की थीं , हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के लिए संघर्ष किया था। जिसके लिए अनेक लोगों ने अपनी जमीनें दान दीं और धन भी दिया। अनेक व्यापारियों व उद्योगपतियों ने भी इसमें तन, मन, धन से सहयोग दिया था। महात्मा गांधी, विनोबा भावे, स्वामी दयाननंद, आर्य समाज के अनेक नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों एवं धर्मगुरुओं, संघ या उसे विचारधारा से जुड़े अनेक महानुभावों व लाखों  देशप्रेमियों ने इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था।  इन संस्थाओं का मूल उद्देश्य हिंदी भाषा के प्रयोग व प्रसार को बढ़ाना था ताकि हिंदी राष्ट्रीय संपर्क की भाषा बन सके। लेकिन आज इन ज्यादातर संस्थाओं की स्थिति क्या है?


 आज उनके पास बड़े-बड़े भवन हैं, जमीनें हैं, उनसे प्राप्त भारी आमदनी है। अनेक संस्थाओं को सरकारी सहायता भी प्राप्त है। लेकिन अगर उनकी स्थिति और इनकी कार्य प्रणाली देखी जाए तो प्राय: न वह भावना है, न ही कोई ऐसा कार्य जिसे हिंदी का प्रयोग व प्रसार बढ़ सके।

देश-प्रेम की भावना से अनेक लोगों ने जो भूमि इन्हें दान दी थी, 
कई जगह, कुछ लोग उसकी लूट-खसोट में लगे हैं। कई संस्थाएँ राजनीति की तरह परिवार आधारित या वंशानुगत हो गई हैं। हिंदी के नाम पर कुछ औपचारिक कार्यक्रम कर लिए जाते हैं।  हिंदी का प्रयोग व प्रसार बढ़ने का कोई संघर्ष या प्रयास दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। सबकी निगाहें कमाई पर लगी हैं। यहाँ भी राजनीतिक से जुड़े लोगों का प्रभुत्व है। प्राय: कुछ गतिविधियां हैं भी तो समाज से उसका कोई सरोकार नहीं। यदा-कदा कुछ साहित्यकारों के नाम पर कहानी-कविता वगैरह हो जाती है। पिछली 75 वर्षों में पूरा देश अपनी भाषाओं से विमुख होकर अंग्रेजी की तरफ जाता रहा और ये बंद कमरों में कहानी, कविता करते रहे। उसके नाम पर कुछ पत्रिकाएं वगैरह निकालते रहे, अपने चहेतों को पुरस्कार - सम्मान बांटते रहे। धीरे-धीरे ये संस्थाएँ भाषायी संघर्ष से बहुत दूर चली गईं। कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन ऐसी ज्यादातर संस्थाएँ जिनके पास अपार धन और संसाधन हैं, अब भाषायी संघर्ष से बहुत दूर हैं। जहाँ संसाधनयुक्त संस्थाएँ निष्क्रिय मठों का रूप ले चुकी हैं, वहीं कहीं-कहीं कुछ इक्का-दुक्का लोग जो भाषायी संघर्ष में लगे हैं, वे बिना साधन-सुविधा और समर्थन प्रयासरत तो हैं, लेकिन अभावों के कारण विवश हैं।

 विभिन्न राज्यों में स्थापित हिंदी साहित्य अकादमियाँ, जो सरकार के पैसे से चलती हैं। अक्सर वे मानते हैं कि वे तो साहित्य के लिए हैं, भाषा के प्रचार-प्रसार से उनका क्या लेना-देना ? वहाँ भी प्राय: राजनीति की बैसाखी लिए साहित्य के कथित पुरोधा और विश्वविद्यालयों के शिक्षक आदि कहानी, कविता, आलोचना, समीक्षा आदि और पुरस्कारों की बंदरबांट करते रहते हैं। भाषायी संघर्ष और उसके प्रयासों से उसका कोई सरोकार नहीं। यदि रोजगार, व्यापार-व्यावहार शासन-प्रशासन व न्याय आदि में भाषा नहीं होगी तो कोई पढ़ेगा क्यों, यदि विद्यार्थी कोई भाषा पढ़ेंगे नहीं तो उस भाषा का साहित्य क्यों और कैसे पढ़ेंगे? आज वही स्थिति है, लेकिन इन तमाम संस्थाओं को अभी भी यह नहीं दिख रहा कि 40 साल के नीचे के कितने लोग साहित्य से जुड़े हैं? साहित्य को बचाना-बढ़ाना है तो भारतीय भाषाओं को सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित करने से ही बात बनेगी। साहित्य का अर्त केवल ललित साहित्य नहीं, ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के साहित्य पर भी किसीका ध्यान नहीं।

 बड़ी संख्या में तो लोग तो देश के बजाए विदेशों में हिंदी बचाने और बढ़ाने के महाअभियान में लगे हैं। यह ठीक वैसी ही बात है कि  जब जड़ें सूख रही हों और जो टहनियां कभी थोड़ी बहुत पड़ोसियों के घर पहुंच गयी थीं, उनके पत्तों पर पानी की कुछ बूँदें डालकर हम वृक्ष को मजबूत करने और उसका विस्तार करने का प्रयास करें। महाकवि कालीदास का स्मरण होने लगता है। शायद उनके लक्ष्य ही कुछ भिन्न हैं। एक समस्या यह भी है कि भाषा के क्षेत्र में विशेषकर हिंदी के मामले में कार्य से बहुत ज्यादा जोर केवल कार्यक्रमों पर है।किसी कार्यक्रम से भाषा के प्रसार को कितना या क्या लाभ मिला, इसका विचार भी कोई नहीं करता। 
ऐसे अनेक बिंदू हैं जिन पर विचार की आवश्यकता है।  इसके लिए भी कितने लोग तैयार हैं? 

मुझे लगता है कि संघ सरकार अथवा राज्य सरकारों द्वारा जो ऐसी ऐतिहासिक अथवा सरकारी सहायता / अनुदान प्राप्त संस्थाएँ,  जिस किसीके भी नियंत्रण या कार्यक्षेत्र में हों, उन्हें इनकी दशा-दिशा पर ध्यान देते हुए इनकी संपत्ति की लूट रोकने, इन्हें हिंदी के प्रयोग व प्रसार बढ़ाने की दिशा में सक्रिय करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। इसी प्रकार हिंदी साहित्य अकादमियों व अन्य भाषाओं की साहित्य अकादमियों को भाषा की अकादमी का रूप देते हुए भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए सक्रिय किया जाना चाहिए। हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार को बढ़ाने में इन तमाम संस्थाओं के योगदान व उपलब्धियों की समीक्षा भी की जानी चाहिए।

भारतीय भाषा-प्रेमियों की अपेक्षा है कि भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक मा. प्रधानमंत्रीजी, मा. गृहमंत्री जी, शिक्षा मंत्री जी व राज्यों के मुख्यमंत्रिगण तथा संबंधित मंत्रियों व वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारीगण इस पर ध्यान दें और आवश्यक कदम उठाएँ।

 डॉ.  डॉ मोतीलाल गुप्ता 'आदित्य  

बुधवार, 27 सितंबर 2023

रविवार, 20 दिसंबर 2020

ऋग्वेद में श्रद्धासूक्त

 

श्रद्धा सूक्त

ऋग्वेद के दशम मंडल के १५१ वें सूक्त को श्रद्धा सूक्त कहते है इसकी रिषिका श्रद्धा कामायनी देवता श्रद्धा छन्द अनुष्टुप है

इस सूक्त में श्रद्धा का आवाहन देवी के रूप में करते हुए कहा है कि

वह हमारे हृदय में श्रद्धा उत्पन्न करे

श्रद्धयाग्नि समिध्यते श्रद्धया हूयते हवि

श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि

श्रद्धा से ही अग्निहोत्र की अग्नि प्रदीप्त होती है श्रद्धा से ही हवि की आहुति यज्ञमें दी जाती है धन ऐंश्वर्य में सर्वोपरि श्रद्धा की हम पस्तुति करते हैं

प्रिय श्रद्धे ददत: प्रियं श्रद्धे दिदासत:

प्रियं भोजेषु यज्वस्विदं म उदितं कृधि ।।

हे श्रद्धे दाता के लिये हितकर अभीष्ट फल को दो हे श्रद्धे दान देने की जो इच्छा करता है उसका भी प्रिय करो भोगैश्वर्य प्राप्त करने के इच्छुकों के भी प्रार्थित फल को प्रदान करो

यथा देवा असुरेषु श्रद्धामुग्रेषु चक्रिरे

एवं भोजेषु यज्वस्वस्माकमुदितं कृधि ।।

जिस प्रकार देवों ने असुरों को परास्त करने के लिये यह निश्चय किया कि इन असुरों को नष्ट करना ही चाहिये उसी प्रकार हमारे श्रद्धालु ये जो याज्ञिक एवं भोगार्थी है इनके लिये भी इच्छित भोगोंको प्रदान करो

श्रद्धा देवा यजमाना वायु गोपा उपासते

श्रद्धां हृदय्य याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु

वलवान वायु से रक्षण प्राप्त करके देव और मनुष्य श्रद्धा की उपासना करते है वे अन्त:करण में संकल्प से ही श्रद्धा की उपासना करते है श्रद्धा से ही धन प्राप्त होता है

श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि

श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह न: ।।

हम प्रात काल में श्रद्धा की प्रार्थना करते है मध्यान्ह में श्रद्धा की उपासना करते हैहे श्रद्धा देवी इस संसार में हमें श्रद्धावान बनाइये

पं बनवारी चतुर्वेदी