शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

हिंदी के अखबारोंमें कैसी हिंदी

इसलिए बिदा करना चाहते हैं, हिंदी को हिंदी के अखबार : प्रभु जोशी


दुनिया की हर भाषा की ज़िंदगी में एक बार कोई निहायत ही निष्करुण वक्त दबे पाँव आता है और ’उसको बोलने वालों’ के हलक़ में हाथ डालकर उनकी ज़ुबान पर रचे-बसे शब्दों को दबोचता है और धीरे-धीरे उनके कोमल गर्भ में साँस ले रहे अर्थों का गला घोंट देता है। एक तरफ वह ’पवित्र को ध्वंस’ में धकेलता है तो दूसरी तरफ वह ’अतीत में आग’ लगाता हुआ, चौतरफा भय और निराशा फैला देता है। ऐसे ही वक़्त के खि़लाफ अंततः मंगल पाण्डे की बंदूक से गोली निकलती है और 1857 का गदर (?) मच जाता है।…आज हम फिर 1857 के ही निकट पहुँच गये हैं। वे तब ये कहते हुए आए थे: ’हम, तुम असभ्यों को सभ्य बनाने के लिए तुम्हारे देश में घुस रहे हैं।’ मगर इस बार वे कह रहे   हैं: ‘हम, तुम कंगलों को सम्पन्न बनाने के लिए तुम्हारे यहाँ आ रहे हैं।’ …….सुनो, हम जिस ’पूँजी का प्रवाह’ शुरू कर रहे हैं, वह तुम्हारे यहाँ समृद्धि लायेगी। …….लेकिन, हक़ीक़त में यह देश को समृद्ध नहीं बल्कि, एक किस्म के ’सांस्कृतिक-अनाथालय’ में बदलने की युक्ति है। वे धीरे-धीरे आपसे आपकी बोलियाँ और भाषा छीन रहे हैं-तिस पर विडम्बना यह है कि उनके इस काम में हमारे कुछ अख़बार भी तन-मन-धन से जुट गये हैं।
इसी मुद्दे को लेकर जिरह छेड़ते कुछ ज्वलंत सवालों को चर्चित कथाकार और पत्रकार प्रभु जोशी ने अपने आलेख में उठाया है-

भारत इन दिनों दुनिया के ऐसे समाजों की सूची के शीर्ष पर हैं, जिस पर बहुराष्ट्रीय निगमों की आसक्त और अपलक आँख निरन्तर लगी हुई है । यह उसी का परिणाम है कि चिकने और चमकीले पन्नों के साथ लगातार मोटे होते जा रहे हिन्दी के लगभग सभी दैनिक समाचार पत्रों के पृष्ठों पर, एकाएक भविष्यवादी चिन्तकों की एक नई नस्ल अँग्रेज़ी की मांद से निकलकर, बिला नागा, अपने साप्ताहिक स्तम्भों में आशावादी मुस्कान से भरे अपने छायाचित्रों के साथ आती है – और हिन्दी के मूढ़ पाठकों को गरेबान पकड़कर समझाती है कि तुम्हारे यहाँ हिन्दी में अतीतजीवी अंधों की बूढ़ी आबादी इतनी अधिक हो चुकी है कि उनकी बौद्धिक-अंत्येष्टि कर देने में ही तुम्हारी बिरादरी का मोक्ष है । दरअस्ल कारण यह कि वह बिरादरी अपने ’आप्तवाक्यों’ में हर समय ’इतिहास’ का जाप करती रहती है और इसी के कारण तुम आगे नहीं बढ़ पा रहे हो। इतिहास ठिठककर तुम्हें पीछे मुड़कर देखना सिखाता है, इसलिए वह गति-अवरोधक है । जबकि भविष्यातुर रहनेवाले लोगों के लिए गरदन मोड़कर पीछे देखना तक वर्ज्य है । एकदम निषिद्ध है। ऐसे में बार-बार इतिहास के पन्नों में रामशलाका की तरह आज के प्रश्नों के भविष्यवादी उत्तर बरामद कर सकना असम्भव है । हमारी सुनो, और जान लो कि इतिहास एक रतौंध है, तुमको उससे बचना है । हिस्ट्री इज बंक । वह बकवास है । उसे भूल जाओ ।
बहरहाल– ‘अगर मगर मत कर‘ । ‘इधर उधर मत तक‘ । ‘बस सरपट चल।’ भविष्यवाद का यह नया सार्थक और अग्रगामी पाठ है।
जबकि, इस वक्त की हकीकत यह है कि हमारे भविष्य में हमारा इतिहास एक घुसपैठिये की तरह हरदम मौजूद रहता है । उससे विलग, असंपृक्त और मुक्त होकर रहा ही नहीं जा सकता । इतिहास से मुक्त होने का अर्थ स्मृति-विहीन हो जाना है– सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अनाथ हो जाना है ।
लेकिन, वे हैं कि बार-बार बताये चले जा रहे हैं कि तुम्हारे पास तुम्हारा इतिहास-बोध तो कभी रहा ही नहीं है । और जो है, वह तो इतिहास का बोझ है । तुम लदे हुए हो। तुम अतीत के कुली हो और फटे-पुराने कपड़ों में लिपटे हुए अपना पेट भर पालने की जद्दोजहद में हो, जबकि ग्लोबलाइजे़शन की फ्यूचर एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर खड़ी है और सीटी बजा चुकी है । इसलिए, तुम इतिहास के बोझ को अविलम्ब फेंको और इस ट्रेन पर लगे हाथ चढ़ जाओ ।
जी हाँ, अधीरता पैदा करने वाली नव उपनिवेशवाद की यही वह मोहक और मारक ललकार है, जो कहती है कि अब ’आगे’ और ’पीछे’ सोचने का समय नहीं है । अलबत्ता, हम तो कहते हैं कि अब तो ’सोचने’ का काम तुम्हारा है ही नहीं। वह तो हमारा है । हम ही सोचेंगे तुम्हारे बारे में । अब हमें ही तो सब कुछ तय करना है तुम्हारे बारे में। याद रखो, हमारे पास वह छैनी है, जिस के सामने पत्थर को भी तय करना पड़ता कि वह क्या होना चाहता है — घोड़ा या कि साँड । उस छैनी से यदि हम तुम्हें घोड़ा बनायेंगे तो निश्चय ही रेस का घोड़ा बनायेंगे । यदि हमें साँड बनाना होगा तो तुम्हें वो साँड बनायेंगे, जो अर्थव्यवस्था को सींग पर उछालता हुआ सेंसेक्स के ग्राफ में सबसे ऊपर डुँकारता हुआ दिखाई पड़ेगा ।
इन्हीं चिन्तकों की इसी नई नस्ल ने, हिन्दी के तमाम दैनिक अख़बारों के पन्नों पर रोज़-रोज़ लिख लिखकर सारे देश की आँख उस तरफ लगा दी है, जहाँ विकास दर का ग्राफ बना हुआ है और उसमें दर-दर की ठोंकरे खाता आम आदमी देख रहा है कि येल्लो, उसने छः, सात, आठ और अब तो नौ के अंक को छू लिया है । इसी दर के लिए ही तमाम दरों-दीवारों को तोड़कर महाद्वार बनाया जा रहा है । इसे ही ओपन-डोअर-पॉलिसी कहते हैं । और, कहने की ज़रूरत नहीं कि चिन्तकों की ये फौज, इसी ओपन-डोअर से दाखिल हुई है। यही उसकी द्वारपाल है, जो घोषणा कर रही है कि तुम्हारे यहाँ मही (पृथ्वी) पाल आ रहे हैं। तुम्हारे यहाँ विश्वेश्वर आ रहे हैं। दौड़ो और उनका स्वागत करो। तुमने तो आपातकाल का भी स्वागत किया था, तो इसका ’स्वागत’ करने में क्या हर्ज़ है ? मज़ेदार बात यह कि इसके स्वागत में, इसकी अगवानी में, सबसे पहले शामिल है, हिन्दी के अख़बार । वे बाजा फूँक रहे हैं और फूँकते-फूँकते बाजारवाद का बाजा बन गये हैं । ये अख़बार पहले विचार देते थे। विचार की पूँजी देते थे, लेकिन अब पूँजी का विचार देने में जुट गये हैं । एक अल्प-उपभोगवादी भारतीय प्रवृत्ति को पूरी तरह उपभोक्तावादी बनाने की व्यग्रता से भरने में जी-जान से जुट गये हैं, ताकि भूमण्डलीकरण के कर्णधारों तथा अर्थव्यवस्था के महाबलीश्वरों के आगमन में आने वाली अड़चनें ही खत्म हो जायें और इन अड़चनों की फेहरिस्त में वे तमाम चीजें आती हैं, जिनसे राष्ट्रीयता की गंध आती हो ।
कहना न होगा कि इसमें इतिहास, संस्कृति और सभी भारतीय भाषाएँ शीर्ष पर हैं। फिर हिन्दी से तो ’राष्ट्रीयता’ की सबसे तीखी गंध आती है । नतीज़तन भूमण्डलीकरण की विश्व-विजय में सबसे पहले निशाने पर हिन्दी ही है । इसका एक कारण तो यह भी है कि यह हिन्दुस्तान में संवाद, संचार और व्यापार की सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है। दूसरे इसको राजभाषा या राष्ट्रभाषा का पर्याय बना डालने की संवैधानिक भूल गाँधी की उस पीढ़ी ने कर दी, जो यह सोचती थी कि कोई भी मुल्क अपनी राष्ट्रभाषा के अभाव में स्वाधीन बना नहीं रह सकता । चूँकि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं, बल्कि चिन्तन प्रक्रिया एवं ज्ञान के विकास और विस्तार का भी हिस्सा होती है । उसके नष्ट होने का अर्थ एक समाज, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का नष्ट हो जाना है । वह प्रकारान्तर से राष्ट्रीय एवं जातीय-अस्मिता का प्रतिरूप भी है । इस अर्थ में, भाषा उस देश और समाज की एक विराट ऐतिहासिक धरोहर भी है । अतः उसका संवर्द्धन और संरक्षण एक अनिवार्य दायित्व है ।
जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अख़बार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में, बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अख़बार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अँग्रेज़ी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिये और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरूआत की तो मैंने अपने पर लगने वाले सम्भव अरोप मसलन प्रतिगामी, अतीतजीवी अंधे, राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा । जिसमें, मैंने हिन्दी को हिंग्लिश बना कर दैनिक अख़बार में छापे जाने से खड़े होने वाले भावी खतरों की तरफ इशारा करते हुए लिखा — ‘प्रिय भाई, हमने अपनी नई पीढ़ी को बार-बार बताया और पूरी तरह उसके गले भी उतारा कि अंग्रेज़ों की साम्राज्यवादी नीति ने ही हमें ढाई सौ साल तक गुलाम बनाये रक्खा । दरअसल, ऐसा कहकर हमने एक धूर्त – चतुराई के साथ अपनी कौम के दोगलेपन को इस झूठ के पीछे छुपा लिया। जबकि, इतिहास की सचाई तो यही है कि गुलामी के विरूद्ध आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले नायकों को, अँग्रेज़ों ने नहीं, बल्कि हमीं ने मारा था । आज़ादी के लिए ‘आग्रह’ या ‘सत्याग्रह’ करने वाले भारतीयों पर क्रूरता के साथ लाठियाँ बरसाने वाले बर्बर हाथ, अँग्रेज़ों के नहीं, हम हिन्दुस्तानी दारोगाओं के ही होते थे । अपने ही देश के वासियों के ललाटों को लाठियों से लहू-लुहान करते हुए हमारे हाथ ज़रा भी नहीं काँपते थे। कारण यह कि हम चाकरी बहुत वफादारी से करते हैं और यदि वह गोरी चमड़ी वालों की हुई तो फिर कहने ही क्या ?
‘पूछा जा सकता है कि इतने निर्मम और निष्करूण साहस की वजह क्या थी ? तो कहना न होगा कि दुनिया भर के मुल्कों के दरमियान ‘सारे जहाँ से अच्छा’ ये हमारा ही वो मुल्क है, जिसके वाशिन्दों को बहुत आसानी से और सस्ते में खरीदा जा सकता है । देश में जगह-जगह घटती आतंकवादी गतिविधियों की घटनाएँ, हमारे ऐसे चरित्र का असंदिग्ध प्रमाणीकरण करती हैं । दूसरे शब्दों में हम आत्म-स्वीकृति कर लें कि ‘भारतीय’, सबसे पहले ‘बिकने’ और ‘बेचने’ के लिए तैयार हो जाता है और, यदि वह संयोग से व्यवसायी और व्यापारी हुआ तो सबसे पहले जिस चीज़ का सौदा वह करता है, वह होता है उसका ज़मीर। बाद इस सौदे के, उसमें किसी भी क़िस्म की नैतिक-दुविधा शेष नहीं रह जाती है और ‘भाषा, संस्कृति और अस्मिता’ आदि चीज़ों को तो वह खरीददार को यों ही मुफ्त में बतौर भेंट के दे देता है । ऐसे में यदि कोई हिंसा के लिए भी सौदा करे तो उसे कोई अड़चन अनुभव नहीं होती है । फिर वह हिंसा अपने ही ‘शहर’, ‘समाज’, या ‘राष्ट्र’ के खिलाफ ही क्यों न होने जा रही हो ।
‘बहरहाल, मेरे प्यारे, भाई अब ऐसी हिंसा सुनियोजित और तेजगति के साथ हिन्दी के ख़िलाफ शुरू हो चुकी है । इस हिंसा के जरिए भाषा की हत्या की सुपारी आपके अख़बार ने ले ली है । वह भाषा के खामोश हत्यारे की भूमिका में बिना किसी तरह का नैतिक-संकोच अनुभव किए खासी अच्छी उतावली के साथ उतर चुका हैं । उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि एक भाषा अपने को विकसित करने में कितने युग लेती है । (डेविड क्रिस्टल तो एक शब्द की मृत्यु को एक व्यक्ति की मृत्यु के समान मानते हैं । अँग्रेज़ी कवि ऑडेन तो बोली के शब्दों को इरादतन अपनी कविता में शामिल करते थे कि कहीं वे शब्द मर न जायें- और महाकवि टी.एस. एलियट प्राचीन शब्द, जो शब्दकोष में निश्चेष्ट पड़े रहते थे, को उठाकर समकालीन बनाते थे कि वे फिर से साँस लेकर हमारे साथ जीने लगे।) आपको, ’शब्द’ की तो छोड़िये, ‘भाषा‘ तक की परवाह नहीं है, लगता है आप हिन्दी के लिए हिन्दी का अख़बार नहीं चला रहे हैं, बल्कि अँग्रेज़ी के पाठकों की नर्सरी का काम कर रहे हैं । आप हिन्दी के डेढ़ करोड़ पाठकों का समुदाय बनाने का नहीं, बल्कि हिन्दी के होकर हिन्दी को खत्म करने का इतिहास रचने जा रहे हैं । आप ’धन्धे में धुत्त’ होकर जो करने जा रहे हैं, उसके लिए आपको आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी । आपका अख़बार उस सर्प की तरह है, जो बड़ा होकर अपनी ही पूँछ अपने मुँह में ले लेता है और खुद को ही निगलने लगता है । आपका अख़बार हिन्दी का अख़बार होकर, हिन्दी को निगलने का काम करने जा रहा है। जो कारण जिलाने के थे, वे ही कारण मारने के बन जाएँ, इससे बड़ी विडम्बना भला क्या हो सकती है ? यह आशीर्वाद देने वाले हाथों द्वारा बढ़कर गरदन दबा दिये जाने वाली जैसी कार्यवाही है । कारण कि हिन्दी के पालने-पोसने और या कहें कि उसकी पूरी परवरिश करने में हिन्दी पत्रकारिता की बहुत बड़ी भूमिका रही आई है ।
‘जबकि, आपको याद होना चाहिए कि सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से उपजी ‘भाषा-चेतना’ ने इतिहास में कई-कई लम्बी लड़ाइयाँ लड़ी हैं । इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो आप पायेंगे कि आयरिश लोगों ने अँग्रेज़ी के खिलाफ बाक़ायदा एक निर्णायक लड़ाई लड़ी, जबकि उनकी तो लिपि में भी भिन्नता नहीं थी । फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाएँ अँग्रेज़ी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के विरूद्ध न केवल इतिहास में, अपितु इस ‘इंटरनेट युग’ में भी फिर नए सिरे से लड़ना शुरू कर चुकी हैं । इन्होंने कभी अँग्रेज़ी के सामने समर्पण नहीं किया।’
बहरहाल मेरे इस पत्र का उत्तर अख़बार मालिक ने तो नहीं ही दिया, और वे भला देते क्या ? और देते भी क्यों ? सिर्फ उनके सम्पादक और मेरे अग्रज ने कहा कि हिन्दी में कुछ जनेऊधारी तालिबान पैदा हो गये हैं, जिससे हिन्दी के विकास को बहुत बड़ा खतरा हो गया है । यह सम्पादकीय चिंतन नहीं अख़बार के कर्मचारी की विवश टिप्पणी थी । क्योंकि उनसे तुरंत कहा जायेगा कि श्रीमान् आप अपने हिंदी प्रेम और नौकरी में से कोई एक को चुन लीजिए।
बहरहाल, अख़बार ने इस अभियान को एक निर्लज्ज अनसुनी के साथ जारी रखा और पिछले सालों से वे निरंतर अपने संकल्प में जुटे हुए हैं । और अब तो हिन्दी में अँग्रेज़ी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलालों ने, विदेशी पूँजी को पचा कर मोटे होते जा रहे, हिन्दी के लगभग सभी अख़बारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि इसकी नागरी-लिपि को बदल कर, रोमन करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब इस तरफ कूच कर रहे हैं । उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेण्डा बना लिया है । क्योंकि बहुराष्ट्रीय निगमों की महाविजय, इस सायबर युग में रोमन लिपि की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो सकती है । यह विजय अश्वों नहीं, चूहों की पीठ पर चढ़कर की जानी है । जी हाँ, कम्प्यूटर माऊस की पीठ पर चढ़कर ।
अँग्रेज़ों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - ‘अँग्रेज़ों की विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आप स्वयं का मरना बहुत ज़रूरी है । और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ ढकेल देते हैं । ठीक इसी युक्ति से हिन्दी के अख़बारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल के ये चिंतक यही बता रहे हैं कि हिन्दी का मरना, हिन्दुस्तान के सामाजिक-आर्थिक हित में बहुत ज़रूरी हो गया है। यह काम देश सेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वर्ना, तुम्हारा देश ऊपर उठ ही नहीं पाएगा । परिणाम स्वरूप वे हिन्दी को बिदा कर देश को ऊपर उठाने के लिए कटिबद्ध हो गये हैं ।
ये हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किए ‘बाआसानी संहार’ किया जा सकता है ।
वे कहते हैं कि हिन्दी का हमेशा-हमेशा के लिए खात्मा करने के लिए आप अपनाइये। ‘प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म’ । अर्थात्, बाहर पता ही नहीं चले कि भाषा को ‘सायास’ बदला जा रहा है । बल्कि, ‘बोलने वालों’ को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और म.प्र. के कुछ अख़बारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है । बहरहाल, इसका एक ही तरीका है कि अपने अख़बार की भाषा में आप हिन्दी के मूल दैनंदिन शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अँग्रेज़ी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो बोलचाल की भाषा में शेयर्ड – वकैब्युलरी की श्रेणी में आते हैं । जैसे कि रेल, पोस्ट कार्ड, मोटर, टेलिविजन, रेडियो, आदि-आदि ।
इसके पश्चात धीरे-धीरे इस शेयर्ड वकैब्युलरि में रोज-रोज अँग्रेज़ी के नये शब्दों को शामिल करते जाइये। जैसे माता-पिता की जगह छापिये पेरेंट्स/छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेंट्स/विश्वविद्यालय की जगह युनिवर्सिटी/रविवार की जगह संडे/यातायात की जगह ट्रेफिक आदि-आदि । अंततः उनकी तादाद इतनी बढ़ा दीजिए कि मूल भाषा के केवल कारक भर रह जायें । क्योंकि कुल मिलाकर रोज़मर्रा के बोलचाल में बस हज़ार-डेढ़ हज़ार शब्द ही तो होते हैं।
यह चरण, ‘प्रोसेस ऑव डिसलोकेशन’ कहा जाता है । यानी की हिन्दी के शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम ।
ऐसा करने से इसके बाद भाषा के भीतर धीरे-धीरे ‘स्नोबॉल थियरी’ काम करना शुरू कर देगी – अर्थात् बर्फ के दो गोलों को एक दूसरे के निकट रख दीजिए, कुछ देर बाद वे घुलमिलकर इतने जुड़ जाएंगे कि उनको एक दूसरे से अलग करना संभव नहीं हो सकेगा । यह थियरी (रणनीति) भाषा में सफलता के साथ काम करेगी और अँग्रेज़ी के शब्द हिन्दी से ऐसे जुड़ जायेंगे कि उनको अलग करना मुश्किल होगा । यहाँ तक  क कि वे मूल से कहीं ज़्यादा अपनी उपस्थिति का दावा करेंगे।
इसके पश्चात शब्दों के बजाय पूरे के पूरे अँग्रेज़ी के वाक्यांश छापना शुरू कर दीजिए। अर्थात् इनक्रीज द चंक ऑफ इंग्लिश फ्रेज़ेज़ । मसलन ‘आऊट ऑफ रीच/बियाण्ड डाउट/नन अदर देन/ आदि आदि । कुछ समय के बाद लोग हिन्दी के उन शब्दों को बोलना ही भूल जायेंगे । उदाहरण के लिए हिन्दी में गिनती स्कूल में बंद किये जाने से हुआ यह है कि यदि आप बच्चे को कहें कि अड़सठ रूपये दे दो, तो वह अड़सठ का अर्थ ही नहीं समझ पायेगा, जब तक कि उसे अंग्रेजी में सिक्सटी एट नहीं कहा जायेगा । इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अख़बार से उठाकर दे रहा हूं।
’मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफटर्स किये हैं, वो रोड को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे हैं । क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं । इन प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है ।’इस तरह की भाषा के लगातार पाँच-दस वर्ष तक प्रिंट माध्यम से पढ़ते रहने के बाद होगा यह कि अख़बार के ख़ासकर युवा पाठक की यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिन्दी में बोले तो वह गूंगा हो जायेगा । उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं ‘इल्यूज़न ऑफ स्मूथ ट्रांजिशन’। अर्थात् हिन्दी की जगह अँग्रेज़ी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने को सफल छद्म की अंतिम और अचूक पायदान-हिन्दी का हिंग्लिष में बदल जाना।
हिन्दी को इसी तरीके से हिन्दी के अख़बारों में ‘हिंग्लिश’ बनाया जा रहा है। समझ के अभाव में लोग इस सारे सुनियोजित एजेण्डे को भाषा के परिवर्तन की ऐतिहासिक प्रक्रिया ही मानने लगे हैं और हिन्दी में यह होने लगा है । गाहे-ब-गाहे लोग बाक़ायदा इस तरह इसकी व्याख्या भी करते हैं । अपनी दर्पस्फीत मुद्रा में वे बताते हैं, जैसे कि वे अपनी एक गहरी सार्वभौम प्रज्ञा के सहारे ही इस सचाई को सामने रख रहे हों कि हिन्दी को हिंग्लिश बनना अनिवार्य है। उनको तो पहले से ही इसका इल्हाम हो चुका है और ये तो होना ही है । यह नियति है, निर्विकल्प। इससे बचा नहीं जा सकता। इससे बचने का अब कोई रास्ता ही नहीं है। यह टेक्नोलॉजिकल-डिटरमिनिज्म की तरह बनाया और बताया जा रहा है कि इन्टरनेट के सामने तुम्हारी वही स्थिति है, जो शेर के सामने बकली की । अब साहित्य को कसाईखाना कहने और बताने के दिन लद गए । अब तो यह इण्टरनेटी युग ही कसाईखाना है । तुम केवल हलाक होने की विधि ज़रूर चुन सकते हो । या तो ‘हलाल’ या फिर ‘झटका’ । ‘झटका’ विधि यही है कि पहली कक्षा से अंग्रजी शुरू कर दो ।
आप को यह याद ही होगा कि एक भली चंगी भाषा से उसके रोज़मर्रा के साँस लेते शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीन कर उसे बोली में बदल दिये जाने को क्रियोल कहते हैं । अर्थात् हिन्दी का हिंग्लिश बनाना एक तरह से उसका क्रियोलीकरण करना है । और कांट्रा-ग्रेजुअलिज्म के हथकंडों से, बाद में उसे डि-क्रियोल किया जायेगा । डिक्रियोल करने का अर्थ, उसे पूरी तरह अँग्रेज़ी के द्वारा विस्थापित कर देना ।
भाषा की हत्या के एक नव-उपनिवेषी योजनाकार ने, अगले और अंतिम चरण को कहा है कि फायनल असाल्ट ऑन हिन्दी । बनाम हिन्दी को नागरी लिपि के बजाय रोमन-लिपि में छापने की शुरूआत करना । अर्थात् हिन्दी पर अंतिम प्राणघातक प्रहार । बस हिन्दी की हो गई अन्त्येष्टि । चूँकि हिन्दी को रोमन में लिख पढ़कर बड़ी होने वाली पीढ़ी के लिए, वह नितांत अपठनीय हो जायेगी । इसी युक्ति से गुयाना में जहाँ 43 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते थे को फ्रेंच द्वारा डि-क्रियोल कर दिया गया और अब वहाँ देवनागरी की जगह रोमन-लिपि को चला दिया गया है । यही काम त्रिनिदाद में इस षड्यंत्र के ज़रिए किया गया है। नतीज़तन, वहाँ नागरी लिपि अपाठ्य हो जाने वाली है ।
जबकि, विडम्बना यह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के धूर्त दलालों के दिशा निर्देश में, संसार की इस दूसरी बड़ी बोले जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीन कर, उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के ही सभी अख़बार जुट गए हैं । वे हिन्दी का क्रियोलीकरण कर रहे हैं। उन्होंने यह स्पष्ट धारणा बना ली है कि वे अब हिन्दी के लिए हिन्दी का अख़बार नहीं निकाल रहे हैं, बल्कि अँग्रेज़ी के अख़बार की नर्सरी का काम कर रहे हैं । क्योंकि, देर-सबेर इसी को ही तो भारत की राष्ट्रभाषा बनाना है । प्राथमिक शिक्षा के लिए विश्व-बैंक द्वारा प्राप्त धन का यही तो आख़री सुफल है, क्योंकि आगे जाकर समूची आरंभिक शिक्षा के कायान्तरण के कर्मकाण्ड को पूरा किया जाना एक अघोषित शर्त है, जिसमें हिन्दी के कई अख़बार मिल-जुलकर आहुतियाँ दे रहे हैं । वे स्वाहा-स्वाहा करते हुए हिन्दी की आहुति चढ़ा रहे हैं । उन्होंने अपने हिन्दी-समाचार पत्रों में, बच्चों के लिए निर्धारित पृष्ठों पर अँग्रेजी सिखाने का श्रीगणेष कर दिया है। यह एजुकेषन फॉर ऑल का उद्घोष, वस्तुतः ‘इंगलिष फॉर ऑल’ ही है। क्योंकि, आज इ.एल.टी. (इंग्लिष लर्निंग और टीचिंग) उद्योग की धनराषि रक्षा बजटों के आसपास पहुँचने की तैयारी में है ।
वे आज़ादी मिलने के साथ ही गाँधी-नेहरू की पीढ़ी द्वारा कर दी गयी महाभूल को वे दुरूस्त करने में लगे हैं, जिसके चलते अंधराष्ट्रवादी उन्माद में हिन्दी को राष्ट्रभाषा की जगह बिठा दिया था – जबकि, यह तो सत्ता की भाषा बनने के लायक ही नहीं थी। यह तो अपढ़ गुलामों और मातहतों और अज्ञानियों की भाषा थी और उसे वैसा ही बने रहना चाहिए । इसी क़िस्म की इच्छा और संकल्प की अनुगूँज गुरूचरणदास एवं अमेरिका की बर्कली विष्वविद्यालय की प्रोफेसर गेल ओमवेत जैसे लोगों के प्रायोजित लेखों से सुनाई देती है, जो इन अख़बारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर छपते रहते हैं । वे बार-बार कहते हैं कि ज़ल्द ही हिन्दुस्तान, दुनिया की आने वाले दो सौ वर्षों के लिए ‘भाषाशक्ति’ बनने वाला है – जबकि वे जानते हैं कि इससे बड़ा धोखा और कोई हो ही नहीं सकता । वास्तव में वे भारत को 2000 बरस के लिए ग़ुलाम बनाने के लिए ठेके का काम ले चुके हैं। वे उसे उस दिशा में घेरने की निविदा हाथिया चुके हैं। इस घेरने के काम में अख़बार सबसे सुंदर और सुविधाजनक लाठी है।
पिछले दिनों, अमेरिका में ग़रीब मुल्कों की आँखें खोल देने वाली एक पुस्तक छप कर आयी है, जिसे न लिखने के लिए सी.आई.ए. ने एक मिलियन डॉलर रिश्वत देने की पेश की थी – लेकिन, लेखक ने उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और साहस जुटा कर प्रायश्चित के रूप में लिख ही डाली यह पुस्तक: ’कन्फेशन ऑव एन इकोनोमिक हिटमैन’ । नोम चोमस्की और डेविड सी. कोर्टन जैसे बुद्धिजीवियों ने, लेखक को उत्साहित करते हुए कहा कि इसका प्रकाशन शेष संसार का तो हित करेगा ही, बल्कि, इससे अमेरिका का भी हित ही होगा । इसलिए इसका छपना ज़रूरी है ।
बहरहाल, पुस्तक के लेखक जॉन पार्किन्स ने उसमें विस्तार से बताया कि किस तरह बहुराष्ट्रीय निगमों के ज़रिए अमेरिका ने तीसरी दुनिया के ग़रीब मुल्कों के आर्थिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया कि नतीजतन वे सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी विपन्न हो गए। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसे ही बहुराष्ट्रीय निगमों और विश्व-बैंक के पूर्व कर्मचारी हिन्दी के अख़बारों के ‘तथाकथित-सम्पादकीय पृष्ठों’ पर कब्ज़ा करते जा रहे हैं । वे इन दिनों हमारे हिन्दी के समाचार पत्रों द्वारा इस भूमण्डलीय युग के चिंतक और राष्ट्र निर्माता बन गये हैं। भारत में अँग्रेज़ी के अश्वमेध में भिड़े ये लोग, अँग्रेज़ी की अपराजेयता का इतना बखान करते हैं कि सामान्यजन ही नहीं, कई राजनेताओं और शिक्षाविदों को लगता है, जैसे आर्थिक प्रलय की घड़ी सामने है और उसमें अब केवल अँग्रेज़ी ही मत्स्यावतार हैं। अतः हमें लगे हाथ उसकी पीठ पर इस आर्यभूमि को चढ़ा देना चाहिए, वर्ना यह रसातल में डूब जायेगी । ये सब देश को बचाने वाले लोग हैं । वे कहते हैं, एक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने तुम्हें सभ्य बनाया । अब जो आ रही हैं, वे तुम्हें सम्पन्न बनायेगी। माँ तो माँगने पर ही रोटी देती है, ये तुम्हें बिना मांगे माल देंगे । तुम्हें मालामाल कर देंगी । फिर भी तुम ’माँगोगे मोर’ । इसलिए हिन्दी को छोड़ो और अँग्रेज़ी का दामन थामो । 
अँग्रेज़ी की विरुदावली गा-गाकर गला फाड़ते ये किराये के कोरस गायक, यह क्यों भूल जाते हैं कि चीनी (जिसमें ढाई हज़ार चिन्हनुमा अक्षर हैं)- और जापानी जैसी चित्रात्मक लिपियों वाली भाषाओं ने अँग्रेज़ी की वैसाखी के बग़ैर ही बीसवीं सदी के सारे ज्ञान-विज्ञान को अपनी उन्हीं चित्रात्मक लिपियों वाली भाषा में ही विकसित किया और आज जब संसार में व्यापार, टेकनॉलाजी या आर्थिक क्षेत्रों के संदर्भ खुलते हैं तो कहा जाता है, लिंचपिन ऑव वर्ल्ड-इकोनॉमी एण्ड टेकनोलॉजी हेज शिफ्टेड फ्रॉम अमेरिका टू जापान । हालाँकि, कुछ लोग अब जापान के साथ चीन का भी नाम लेने लगे हैं और यह किसी से छुपा नहीं है कि अब अमेरिका चीन से भी चमकने लगा है क्योंकि वह शीघ्र ही सूचना प्रौद्योगिकी पर कब्ज़ा करने वाला है । क्योंकि, अमेरिका में पढ़ रहा एक चीनी छात्र, यदि वहाँ रहकर कोई कम्प्यूटर सॉफ्टवेअर विकसित करता है तो साथ ही साथ उसे वह अपनी चीनी भाषा में विकसित करता है और अपने देश में पहुँचते ही वह उसे स्थापित कर देता है । जबकि, हिन्दी की नागरी लिपि, जो संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों में श्रेष्ठ और वैज्ञानिक है, को अँग्रेज़ी का रास्ता साफ करने के लिए निर्दयता के साथ मारा जा रहा है । वे अपने धूर्त मुहावरे में बताते हैं कि अख़बार इस तरह हिन्दी को नष्ट नहीं कर रहे हैं, बल्कि ग्लोबल बना रहे हैं । वे हिन्दी को एक फ्रेश-लिंग्विस्टिक लाइफ दे रहे हैं । हम जानना चाहते हैं कि भैया आप किसे मूर्ख बना रहे हैं – जिस हिन्दी को राष्ट्र संघ की भाषा सूची में शामिल नहीं करवा सके, उसे ‘हिंग्लिश’ बनाकर ग्लोबल बनायेंगे ? और ’हिंग्लिश’ बन कर, हिन्दी ग्लोबल होगी कि वह अँग्रेज़ी के ‘महामत्स्य’ के पेट में पहुँच जाएगी ? यह भाषा के विकास के नाम पर खेला जाने वाला शताब्दी का सबसे बड़ा छल है।दरअस्ल, श्रीमान जी, आप आग लगा कर, उस पर आग के आगे पर्दा खींच रहे हैं और हमें समझा रहे हैं कि ‘बेवकूफो ! हिन्दी सकुशल है और वह ज़िंदा बची रहेगी ।’ अँग्रेज़ी की लपट में स्वाहा नहीं होगी । यदि हो भी गई तो बाद उसके वह राख के रूप में रहेगी, पर रहेगी ज़रूर । भाषा की भस्म को कपाल पर पोत कर तुम प्रसन्न रहना । ठीक है, हिन्दी तुम्हारी ज़बान पर रहे न रहे पर वह तुम्हारे ललाट पर तो रहेगी ही । पहले हिन्दी ‘ललाट की बिंदी’ भर थी, अब तो तुम उससे पूरा ललाट लीप लेना । फिर तुम तो आत्मावादी हो । वासांसि जीर्णानि यथा विहाय वाले हो, इसलिए भलीभांति जानते हो कि आत्मा अमर होती है । हिन्दी की आत्मा अमर है और रहेगी । वो सिर्फ पुराने कपड़े बदल रही है । उसके पुराने कपड़ों की हालत नौ गज साड़ी फिर भी जाँघ उघाड़ी वाली उक्ति की तरह हो चुकी थी (शब्द का बहुत बड़ा जखीरा अर्थात् मोटे-मोटे शब्दकोश, लेकिन फिर भी लफ्ज़ों के लाले।) हिन्दुस्तान की एक बुकराई हुई एक अँग्रेज़ी लेखिका ने कहा -‘बताइये हिन्दी के पास ’एटम’ के लिए कोई शब्द ही नहीं है फिर भला उसमें विज्ञान की शिक्षा कैसे संभव है ?’ बहरहाल तुम्हारी हिन्दी जींस पहन रही है । उसे स्मार्टनेस की तरफ जाना है । वह फिलहाल ग्रीन रूम में  है । लद्धड़ता छोड़कर एक फ्रेश-लिंग्विटक लाइफ को हासिल करने की तरफ बढ़ रही है ।
डेविड. सी. कार्टन ने वैश्वीकरण की हकीकत उजागर करते हुए ठीक ही कहा है कि ग्लोबलाइजेशन का अर्थ सरकारों और बहुराष्ट्रीय निगमों का पारस्परिक संबंध भर है । वह कहता है कि इसीलिए ग्लोबलाइजेशन की प्राथमिक कार्रवाई यही होती है कि जिस किसी चीज़ से भी ‘राष्ट्रीयता’ की बू आये, उसे अविलम्ब हटाइये । इस ‘सैद्धान्तिकी’ के मुताबिक निश्चय ही ‘हिन्दी’ ग्लोबलाइजेशन के पहले निशाने पर है, चूँकि इससे राष्ट्रीयता की बहुत तीखी और बरदाश्त बाहर गंध आती है । वजह यह कि हिन्दी का रिश्ता राष्ट्रभाषा के रूप में नाथ देने से यह भारत के कुछ प्रदेशों की जनता की नज़र में राष्ट्रीय-अस्मिता का पर्याय बन गयी है । नतीजतन, इस पर चढ़े राष्ट्रीयता के इस कवच को हटाना ज़रूरी है, वर्ना यह मारे जाने में काफी समय  लेगी । बहुत मुमकिन है कि लोग इसकी हत्या के प्रकट पैंतरों को देख कर हो-हल्ला करते हुए एकमत होने लगें । लेकिन भूमण्डलीकरण की सफलता तभी है जब लोग भाषा और भूगोल को लेकर एकमत होना छोड़ दें । राष्ट्र राज्य की बात करने वाले को, लगे हाथ मूर्ख बताने के लिए अविलम्ब आगे आयें ।
इसी संभावित संकट को भाँप कर दलाल लोग यह कहते फिरते हैं कि हिन्दी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा के पाखण्ड से मुक्त करके ‘जनता की गाढ़ी कमाई से खींचे गए’ पैसों का बहाया जाना अविलम्ब रोका जाये । क्योंकि इससे उसे अकारण ही ऑक्सीजन मिलती रहती है । जबकि उसकी ब्रेन-डेथ हो चुकी है । उसमें सोचने समझने की क्षमता ही नहीं है । राजभाषा के नाम पर धन उड़ेलने से एक और समस्या पैदा हो जाती है, वह यह कि एक ओर, भाषा के जिस पुराने रूप को अख़बार नष्ट करने में मेहनत करते हैं, दूसरी ओर राजभाषा के नाम पर धन उड़ेलने से, भाषा का वह पुराना रूप, एक मानक के रूप में ज़िंदा बना रहता है ।
अँग्रेज़ी इस बात में तो आरंभ से सतर्क रही और उसने हिन्दी का अन्य भारतीय भाषाओं से सहोदरा संबंध बनाने ही नहीं दिया, उलटे वैमनस्य और अदम्य वैरभाव को बढ़ाये रखा- लेकिन, हिन्दी की, अपनी बोलियों से जड़ें इतनी गहरी बनी और रही आयीं कि उसको वहाँ से उखाड़ना मुश्किल रहा । बहरहाल, ये काम अब मीडिया ने अपने हाथ में ले लिया है । बोलियों का संहार करने में, जो काम इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया कर रहा है, उसे दस कदम आगे जाकर हिन्दी के अख़बार कर रहे हैं । जो अख़बार साढ़े तीन रुपये में बिकते हुए जानलेवा आर्थिक कठिनाई का रोना रो रहे थे, वे अब एक या डेढ़ रुपये में चौबीस पृष्ठों के साथ अपनी चिकनाई और रंगीनी बेच रहे हैं । स्पष्ट है, यह विदेशी चंचला धनलक्ष्मी है । क्या ये लोग नहीं जानते कि यह पूँजी ‘अस्मिताओं’ का ‘विनिमय’ नहीं, बल्कि अस्मिताओं का सीधा-सीधा ‘अपहरण’ करती हैं। यह अख़बारों को अपनी ‘हवाई सेना’ बनाकर, ‘विचारों का विस्फोट’ करती है, और विस्फोट वाली जगह पर थल-सेना कब्ज़ा कर लेती है । इसी के चलते अख़बार ‘बाज़ारवाद’ के लिए जगह बनाने का काम कर रहे हैं । वे पहले ‘विचार’ परोसते थे, अब ‘वस्तु’ परोस रहे हैं – अलबत्ता, खुद ‘वस्तु’ बन गये हैं । इसी के चलते अख़बारों में संपादक नहीं, ब्राण्ड-मैनेजर बरामद होते हैं । अख़बारों की इस नई प्रथा ने, ‘मच्छरदानी’ की ‘सैद्धान्तिकी’ का वरण कर लिया है । कहने को वह ‘मच्छर-दानी’ होती है परन्तु उसमें मच्छर नहीं होता । वह बाहर ही बाहर रहता है । ठीक इसी तरह अख़बार में अख़बारनवीस को छोड़कर, सारे विभागों के भीतर सब वाजिब लोग होते हैं। बस सम्पादकीय विभाग में सम्पादक नहीं होता । इसीलिए, आपस में पत्रकार बिरादरी एडिटोरियल को एडव्हरटोरियल विभाग कहती है । अब इस मार्केट-ड्राइवन पत्रकारिता में सम्पादकीय’-विभाग, विज्ञापन-विभाग का मातहत है । यहाँ तक कि प्रकाशन योग्य सामग्री भी वही तय करता है । यों भी सम्पादकीय पृष्ठ दैनिक अख़बारों में अब बुद्धिजीवियों के वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए नहीं, राजनीतिक दलों के ‘व्यू-पाइण्ट’ (?) के लिए आरक्षित होते जा रहे हैं । वे राजनीतिक जनसंपर्क हेतु सुरक्षित पृष्ठ हैं । यह उसी पूँजी के प्रताप का प्रपात है, जो बाहर से आ रही है ।ऐसे में निश्चय ही वे हड़का कर पूछना चाहें कि बताइए भला यह कैसे हो सकता है कि आप पूँजी तो हमारी लें और ‘भाषा और संस्कृति’ आप अपनी विकसित करें ? यह नहीं हो सकता । हमें अपने साम्राज्य की सहूलियत के लिए ‘एकरुपता’ चाहिए । सब एक-सा खायें । एक-सा पीयें । एक-सा बोलें । एक-सा लिखें-लिखायें । एक-सा सोचें। एक-सा देखें। एक-सा दिखायें । तुम अच्छी तरह से जान लो कि यही संसार के एक ध्रुवीय होने का अटल सत्य है । हमारे पास महामिक्सर है – हम सबको फेंट कर ‘एकरूप’ कर देंगे । बहरहाल, उन्होंने भारत के प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपना महामिक्सर बना लिया । इसलिए, अब अख़बार और अख़बार के बीच की पहले वाली यह स्पर्धा जो धीरे-धीरे गला काट हो रही थी अब क्षीण हो गयी है । चूँकि अब वे सब एक ही अभियान में शामिल, सहयात्री हैं । उनका अभीष्ट भी एक है और वह है, ‘वैश्वीकरण’ के लिए बनाये जा रहे मार्ग का प्रशस्तीकरण । सो आपस में बैर कैसा ? हम तो आपस में कमर्शियल-कजिन्स हैं । आओ, हम सब मिलकर मारें हिन्दी को। अब भारत की असली हिन्दी पत्रकारिता हिन्दी की ऐसी ही आरती उतार रही है ।
यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि आज जिस हिन्दी को हम देख रहे हैं – उसे ‘पत्रकारिता’ ने ही विकसित किया था । क्योंकि, तब की उस पत्रकारिता के खून में राष्ट्र का नमक और लौहतत्व था जो बोलता था । अब तो खून में लौह तत्व की तरह एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेन्ट) बहने लगा है । अतः वही तो बोलेगा । उसी लौहतत्व की धार होगी जो हिन्दी की गर्दन उतारने के काम में आयेगी । हालांकि, अख़बार जनता में मुग़ालता पैदा करने के लिए वे कहते हैं, पूँजी उनकी ज़रूर है, लेकिन चिन्तन की धार हमारी है । अर्थात् सारा लोहा उनका, हमारी होगी धार । अर्थात् भैया हमें भी पता है कि धार को निराधार बनाने में वक्त नहीं लगेगा । तुम्हीं बताओ, उन टायगर इकनॉमियों का क्या हुआ, जिनसे डरकर लोग कहने लगे थे कि पिछली सदी यूरोप या पश्चिम की रही होगी, यह सदी तो इन टायगरों की होगी। कहाँ गये वे टायगर ? उनके तो तीखे दाँत और मजबूत पंजे थे । नई नस्ल के ये कार्पोरेटी चिन्तक रोज़-रोज़ बताते हैं – हिन्दुस्तान विल बी टायगर ऑफ टुमॉरो ।
भैया ये जुमले सुनते-सुनते हमारे कान पक गये । हमें टुमॉरो का कुछ नहीं बनना, बल्कि जो कुछ बनना है आज का बनना है। हम कल के टायगर होने के बजाय आज की गाय होने और बने रहने में संतुष्ट हो लेंगे । गाय घास खायेगी तथा दूध और गोबर देगी और उससे हमारी खेतियों की सेहत ठीकठाक बनी रहेगी । हमारे किसान आत्महत्या करने से बच जाएंगे। लेकिन तुम हो कि थोड़े से चमड़े के लिए पूरी की पूरी ज़िंदा गाय को मार रहे हो ।
तब की पत्रकारिता में अपने देश और समाज को गढ़ने-रचने का साहस था, संकल्प था, समझ और स्वप्न भी था (बेशक उसमें राष्ट्रीय-पूँजीवाद की एक बड़ी व ऐतिहासिक भूमिका भी थी।)। वह ज़ख्मी कलम के साथ बारूद और बंदूक की बर्बरता के खिलाफ लड़ी थी । इस कारण वह भाषा के मसले को गहरे ऐतिहासिक विवेक के साथ देख रही थी । यहाँ गाँधी का प्रसंग उल्लेखनीय लगता है । वे भी पत्रकार थे। आजादी की घोषणा के बाद जब बी.बी.सी. ने उन्हें बुलाया तो उन्होंने प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा था, ‘संसार को कह दो गाँधी को अँग्रेज़ी नहीं आती । गाँधी अँग्रेज़ी भूल गया है।’ यह एक नवस्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण के बड़े स्वप्न का उत्तर था । यह वाक्य नहीं, एक भावी महासमर के प्रारूप का खुलासा था । उन्हें यह अहसास था कि अपनी भाषा के अभाव में, राष्ट्र फिर से गुलामी के नीचे चला जाएगा । उन्होंने स्वयं को वर्गच्युत करके, जिस तरह भारतीय समाज के आखिरी आदमी के बीच खुद को नाथ लिया था, उसने उन्हें इस बात के लिए और अधिक दृढ़ कर लिया था कि अँग्रेज़ी की औपनिवेशिक दासता से मुक्त नहीं हुए तो इतनी लम्बी लड़ाई के बाद हासिल की गई आजादी का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा । उन्होंने ये बात कई-कई जगह और अपनी चिट्ठियों तथा पर्चों में भी बार-बार लिखी और छापी ।
मगर, आज सबसे बड़ी त्रासदी तथा विसंगति यही है कि हमारी पत्रकारिता, नई तथा कभी ख़त्म न हो सकने वाली गुलामी खोलने का रास्ता सिर्फ अपनी धंधई बुद्धि की व्यावसायिक अधीरता के कारण कर रही है । इस पत्रकारिता में, अख़बार जो ‘माल’ की तरह उत्पादित और वितरित हो रहा है । कहीं कहीं तो छापकर प्रेस से सीधे गोदामों में भरा जा रहा है । क्योंकि उन्हें अब सर्कुलेशन नहीं केवल प्रिंट आर्डर को देखना है । क्योंकि, वह विज्ञापनों की दर तय करता है । उसमें न तो अतीत के आकलन का गहरा विवेक रहा है – और, न ही ‘भविष्य में झांक सकने वाली दृष्टि’। एक किस्म का धंधई-उन्माद है, जिसे पूँजी का प्रवाह पैदा कर रहा है । इसलिए, वह केवल अपने व्यावसायिक साम्राज्य के लिए अराजक होने की हद तक, भाषा, संस्कृति और समाज को विखण्डित करने से भी संकोच नहीं कर रहे हैं । यों भी उनके लिए अब समाज को मात्र एक उपभोक्तावर्ग की तरह देखने की लत पड़ गई है । अब उनके लिए देश की जनता राष्ट्र की नागरिक नहीं बल्कि उसके प्रॉडक्ट (?) की ग्राहक है । इसके साथ विडम्बना यह भी है कि सम्पूर्ण हिन्दी भाषाभाषी समाज भी, भाषा के साथ किए जा रहे ऐसे विराट छल को पाण्डु पुत्रों की मुद्रा में गूँगा बन कर देख रहा है ।
यहाँ यह पुनसर्मरण कराना ज़रूरी है कि हिन्दी का ’समकालीन-भाषा-रूप’ आज विकास की जिस सीढ़ी तक पहुँचा है, उसे गढ़ने और विकसित करने में निःसंदेह हमारी हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका बहुत बड़ी रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश वही पत्रकारिता, जिसे भाषा अभी तक का अपना सबसे अधिक विश्वसनीय माध्यम मानते आ रही थी, आज सबसे बड़ा धोखा उसी से खा रही है। उसके लिए सर्वाधिक संदिग्ध वही बन गया है । आज दैनिक-पत्रकारिता, उस मादा-श्वान की तरह है, जो अपने ही जन्मे को भी खा जाती है ।
अब यह भ्रम हमें दूर कर लेना चाहिए कि भाषा बोले जाने वाले लोगों की संख्या से बड़ी है। यह मूर्ख मुग़ालता है। बोला जाना ‘कामचलाऊ संप्रेषण’ का संवादात्मक रूप है, चिन्तनात्मक नहीं । वह हमेशा ही ’आज’ ‘अभी‘ ‘ताबड़तोड़‘ बनाम अनियंत्रित अधीरता से भरा होता है । नतीजतन, उसे इस बात की कोई ज़रूरत और फुरसत नहीं होती कि वह अँग्रेज़ी के किसी नये शब्द का पर्याय ढूँढे या उसके लिए नया शब्द गढ़े । जैसे कि पिछली पीढ़ी ने मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट के लिए पहले संसद सदस्य शब्द गढ़ा फिर अन्त में सांसद शब्द बनाया । लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अँग्रेज़ी को जस का तस उठाकर अपनी फौरी ज़रूरत पूरी कर लेता है । इसी आदत ने हिन्दी में, शेयर्ड वकैब्युलरि को बढ़ाया और अख़बारों ने लगे हाथ, उसे एक अभियान की तरह उठा लिया । इसलिए, भाषा के इस खिचड़ी रूप का जयघोष करते हुए, जो लोग भाषा की सुंदर सेहत का प्रचार कर रहे हैं, या तो वे इस खतरनाक मुहिम का बेशर्म हिस्सा हैं, या फिर उनकी समझ का कांकड़ ही छोटा है । मेरे खयाल से पहली बात ज्यादा सच्ची और सही है।
इसके साथ ही ऐसे महामूर्खों या फिर चालाकों की कमी नहीं है जो हर समय इस बात की डूंडी पीटते रहते हैं कि लो अब तो तुम्हारी हिंग्लिश ब्रिटेन में भी लोकप्रिय हो गई है। यह बात ऐसे महातथ्य की तरह प्रचारित की जा रही है जैसे हमारी हिन्दी ने अँग्रेज़ी की सदियों की कुलीनता की कलाई झटक कर उसे सिंहासन से उतारकर सड़क पर ला दिया है । आभिजात्य का प्रोलेतेरीकरण कर दिया है। रॉयल को रौंद दिया है। देखो ! गौरांग प्रभु ने कुलीनता के कवच को खदेड़कर तुम्हारी हिंग्लिश का झगला धारण कर लिया है । यह हिन्दी की उपलब्धि नहीं, सिर्फ भारतीयों की गुलाम मानसिकता की सूचना है । यह दासी का क्वीन के करीब पहुँच जाने का मूर्ख और मिथ्या रोमांच है, जो हिन्दी के हिंग्लिशियाते अख़बारों की प्रथम पृष्ठों की खबर बनाता है ।
पिछले ही दिनों ऐसी ही पगला डालने वाली एक खबर और रही कि हिन्दी के कुछेक शब्दों को ऑक्सफर्ड डिक्शनरी ने ले लिया । ऑक्सफर्ड डिक्शनरी हिन्दी-गर्भित हो गई है। ये वे शब्द थे, जिनके लिए अँग्रेज़ी में उपयुक्त या पर्याय असम्भव था क्योंकि वे अपना विकल्प खुद थे-मसल, घी, गुड़, मंत्र, सत्याग्रह, पंडित आदि-आदि । उनको अँग्रेज़ी में उलथाया जाता तो वे अपना अर्थ ही खो देते । बस… क्या था ? अख़बार बताने लगे कि ये लो हिन्दी छाने लगी अंग्रेजी पर । एक अपढ़ महान ने तो यह तक कह दिया कि आज हमने डिक्शनरी पर विजय पाई है, एक दिन ब्रिटेन पर पा लेंगे । बहरहाल, यह वैसी ही विदूषकीय प्रसन्नता थी जो मालवी की एक कहावत को चरितार्थ करती है कि एक नदीदे को किसी ने दे दी कटोरी तो उसने उससे पानी पी-पीकर ही अपना पेट फोड़ लिया । जबकि, यह ऑक्सफर्ड-डिक्शनरी की ज्ञानात्मक उदारता नहीं बल्कि नव उपनिवेशवादी बिरादरी का पूरा सुनिश्चित अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान है, जो भारतीयों को तैयार करता है कि जब अँग्रेज़ी जैसी महाभाषा उदार होकर हिन्दी के शब्दों को अपना रही है तो हिन्दी को भी चाहिए कि वह अँग्रेज़ी के शब्दों को इसी उदारता से अपनाये । अँग्रेज़ी के शब्दकोष में हिन्दी के शब्दों का दाखिला बमुश्किल एक प्रतिशत होगा । अर्थात्् दाल में नमक के बराबर भी नहीं । लेकिन, हमारे अख़बार तो नमक में दाल मिला रहे हैं । हिन्दी की विशाल हत्या को समावेशी बनाने और बताने का कैसा उदाहरण है ।
जब भी अँग्रेज़ी द्वारा हिन्दी को हिंग्लिश बनाये जाने की चिंता प्रकट की जाती है, तो कुछ लोग अपनी अज्ञानता में और चंद चालाक लोग अपनी धूर्तता में एक कविताई सच के जरिए हमें समझाने के लिए आगे आ जाते हैं कि कुछ है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी । जबकि, हकीकत ये है कि हमारी हस्ती कभी की पस्ती में बदल चुकी है । हमारी भाषा हमारी संस्कृति कभी के घुटने टेक चुकी है । हमारा पूरा व्यक्तित्व (परसोना) पिछले दशकों में पश्चिमी हो चुका है, जो अब अमेरिकाना होने की तरफ बढ़ रहा है । किसी ने कहा था- आज लोग अमेरिका जाकर अमेरिकाना बन रहे हैं, लेकिन शीघ्र ही वह समय आयेगा जबकि अमेरिका आपके घर में घुसकर आपको अमेरिकन बना दिया जायेगा । यह मिथ्या कथन-सी लगने वाली बात धीरे-धीरे सत्य का रूप धारण कर रही है । इसलिए अब मॉडर्निज्म एक पुराना और बासी शब्द है, जिसे छिलके की तरह उतारकर उसकी जगह नया ’अमेरिकाना’ शब्द जगह ले चुका है । यहाँ तक कि विज्ञापनों में अब अमेरिकी मॉडलों का उपयोग इस तरह किया जाता है, गालिबन भारतवंशियों ! ये तुम्हारे नये देव-पुरूष हैं और तुम्हें इन्हीं के सम्मुख दण्डवत् होना है । पूरा मीडिया गोरी चमड़ी, गोरी भाषा का जिस बेशर्मी से आदर्शीकरण कर रहा है, वह देखने लायक है।दरअसल, ’अस्मिता’ की इन दिनों एक नई और माध्यम निर्मित अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए उसका प्रचार और वकालत की जा रही है । यूँ भी अब वही सबको परिभाषित करता है और तमाम जीवन और समाज के तमाम मूल्यों का प्रतिमानीकरण करने का औजार बन चुका है । दूसरी तरफ हम अपनी सनातन रूढ़-सांस्कृतिक आत्मछवि से इतने मोहासक्त हैं कि प्रत्यक्ष और प्रकट पराजय को स्वीकारना नहीं चाहते हैं। बर्बर उपनिवेश के विरूद्ध लड़ने की निरन्तरता को जीवित बनाये रखने के लिए ऐसी अपराजय का अस्वीकार पराधीनता के दौर में, राष्ट्रवाद की नब्ज़ों में प्राण फूँकने के काम आता था । कुछ है कि हस्ती मिटती ही नहीं – तब, यह दम्भोक्ति अचूक और अमोघ बनकर काम करती थी । जन-जन को जोड़ने और जगाने का जुमला था ये कि लगे रहो भैया । निश्चय ही उस दम्भोक्ति ने ब्रिटिश उपनिवेश के विरूद्ध संघर्ष में समूचे राष्ट्र को लगाये रक्खा और हमने अँग्रेज़ों को हकालकर बाहर कर दिया । लेकिन वह अपने दंश का ज़हर खून में इस कदर शामिल कर चुका था कि हम आज हिन्दी को हिन्दी से हिंग्लिश बनाते देख रहे हैं कि कहते हैं कि कुछ नहीं होगा, वह हर हाल में बची रहेगी । हस्ती है कि मिटती नहीं कहते हुए हम यह लांछन अपने माथे पर लेने के लिए तैयार हैं कि हमने अपनी भाषा को अपने सामने दम तोड़ते हुए देखा और कुछ नहीं किया ।
कहने की ज़रूरत नहीं कि युद्धातुर उतावली से गुरूचरण दास जैसे लोग अपने तर्कों में बार-बार डेविड क्रिस्टल की पुस्तक लेंग्विज डेथ का हवाला इस तरह देते हैं, जैसे वह भाषा की भृगु-संहिता है, जिसमें भाषा की मृत्यु की स्पष्ट भविष्योक्ति है – अतः आप हिन्दी की मृत्यु को लेकर छाती-माथा मत कूटो । जबकि इससे ठीक उलट बुनियादी रूप से वह पुस्तक भाषाओं के धीरे-धीरे क्षयग्रस्त होने को लेकर गहरी चिंता प्रकट करती है । भाषाई उपनिवेशवाद (लिंग्विस्टिक इम्पीयरिलिज्म) के खिलाफ सारी दुनिया के भाषाशास्त्री को सचेत करती है पर हिन्दी वाले हैं कि सुन्न पड़े हैं । हिन्दी साहित्य संसार में विचरण करने वाले साहित्यकार तो तेरी कविता से मेरी कविता ज्यादा लाल में लगे हुए हैं या हिन्दी की वर्तनी को दुरूस्त कर रहे हैं । जबकि इस समय सबको मिलजुलकर इस सुनियोजित कूटनीति के खिलाफ कारग़र कदम उठाने की तैयारी करनी चाहिए ।
बहरहाल, इस सारे मसले पर एक व्यापक राष्ट्रीय-विमर्श की ज़रूरत है । हमें याद रखना चाहिए कि कई नव स्वतंत्र राष्ट्रों ने अपनी भाषा को अपनी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाया । इसलिए, आज उनके पास उनका सब कुछ सुरक्षित है। हमने अपनी राजनीतिक भीरूता के चलते भाषा के मसले पर पुरूषार्थ नहीं दिखाया । इसी की वजह है कि हमसे आज का ये धोखादेह समय हमारे सर्वस्व को जिबह के लिए मांग रहा है । आज हमारी आज़ादी वयस्क होते ही राजनीति के ऐसे छिनाले में फंस गई है कि सारा देश मीडिया में चल रहे व्यवस्था का मुजरा देख रहा है । पूरा समाज मीडिया और माफिया आपरेटेड बन गया है । अब मीडिया ही आरोप तय करता है, वही मुकदमा चलाता है और अंत में अपनी तरह से अपनी तरह का फैसला भी सुनाता रहता है और विडम्बना यह कि वह यह सब जनतंत्र की दुहाई देकर करता है, जबकि अपनी आलोचना का हक वह किसी को नहीं देता और अपने आत्मावलोचन के लिए तो उसके पास समय ही नहीं है । ऐसी बातें सुनने की घड़ी में वह अपने कान से हियरिंग-एड निकाल लेता है।
राजनीति ने तो भाषा, शिक्षा, संस्कृति जैसे प्रश्नों पर विचार करना बहुत पहले ही स्थगित कर रखा है । भारत में राजनीति एक नया, पूँजी निवेष का क्षेत्र है। इसलिए, वह तो देश को बाज़ार तथा एन.जी.ओ. के भरोसे छोड़कर मुक्त हो गई है । यों भी उसमें प्रविष्टि की अर्हता, हत्या और घूस लेकर कानून के शिकंजे से सुरक्षित बाहर आ जाना हो गया है – और जो इन अर्हताओं से रहित हैं, वे देश को एक प्रबंध-संस्थान की तरह चलाने को भूमण्डलीकरण की वैश्विक दृष्टि मानते हैं और वे उसके राजनीतिक प्रबंधक का काम कर रहे हैं । यह राजनीतिक संस्कृति की समाज से विदाई की घड़ी है, जिसने संस्थागत अपंगता को असाध्य बन जाने की तरफ हाँक दिया है । हम क्या थे ? हम क्या हैं और क्या होंगे अभी ? जैसे प्रश्नों पर बहस करना मूर्खों का चिंतन हो गया है । जबकि, ये प्रश्न शाश्वत रहे हैं और हमेशा ही उत्तरों की माँग करते रहेंगे । इसलिए, हमें अपने इतिहास को जीवित बचाकर रखना ज़रूरी है, क्योंकि भविष्य का जब सौदा होगा, उसमें हमारी कम, हमारे अतीत की भूमिका बहुत बड़ी होती है । वरना, वह भाषा की मृत्यु के साथ दफ्न हो जायेगा। वे हमें हालीवुड की तरह भविष्यवादी फन्तासियों में जीने के लिए तैयार किये दे रहे हैं।
कुछ दिनों पूर्व विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ, उसमें तालियाँ कूटने के बजाय इस प्रश्न पर बहुत शिद्दत से सोचा जाना चाहिए था कि क्या हम शेष संसार के मुल्क बोस्निया, जावा, चीन, आस्ट्रिया, बल्गारिया, डेनमार्क, पुर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, बेल्जिमय, क्रोएशिया, फिनलैण्ड, फ्रांस, हंग्री, नीदरलैण्ड, पौलेण्ड या स्वीडन की तरह अपनी ही मूल-भाषा में शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र के लिए जगह बनाने के लिए क्या कर सकते हैं ? क्योंकि, बकौल सेम पित्रौदा, सिर्फ एक प्रतिशत ही है, जो लोग अँग्रेज़ी जानते हैं । या कि हमें अफ्रीकी उपमहाद्वीप बन जाने की तैयारी करना है । प्रसंगवश यहाँ एक भाषिक उपनिवेष के सिद्धान्तकार का पूर्वाक्त कथन याद आ रहा है-वे कहते हैं अभी तक हमारा ध्यान अफ्रीका पर केन्द्रित था, अब हम एषिया पर एकाग्र कर रहे हैं। अंत में, अफ्रीका महाद्वीप में स्वाहिली लेखक की पीड़ा को भारतीय उपमहाद्वीप की पीड़ा का पर्याय बनाना है। उसने कहा कि जब ये नहीं आए थे तो हमारे पास हमारी कृषि, हमारा खानपान, हमारी वेशभूषा, हमारा संगीत और हमारी अपनी कहे जाने वाली संस्कृति थी – इन्होंने हमें अँग्रेज़ी दी और हमारे पास हमारा अपने कहे जाने जैसा कुछ नहीं बचा है । हम एक त्रासद आत्महीनता के बीच जी रहे हैं ।
हमारी हिन्दी पत्रकारिता को सोचना चाहिए कि विदेशी धन के बलबूते पर खुद को मीडिया-मुगल बनाने के बजाय वह सोचें कि अन्ततः भारतीय भाषाओं को आमतौर पर और हिन्दी को खासतौर पर हटाकर, वह देश को आत्महीनता के जिस मोड़ की तरफ घेरने जा रही है, वह उस कल्चरल इकोनॉमी की सुनियोजित युक्ति है, जो एक नव-उपनिवेषवाद से जन्मी हैं। इसके साथ यह भी सोचें कि कहीं ऐसा न हो कि वे केवल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आरती उ

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