रविवार, 13 अक्तूबर 2019

गूगलसूक्तम्

अथ श्री गूगलसूक्तम्
 अस्य श्री गूगलसूक्तस्य श्रीगूगलो देवता, राधावल्लभ ऋषिः, अनुष्टुब्-गूगलादीनि च्छन्दांसि, गूगलपाशान्मुक्तौ विनियोगश्च।
 इस गूगल सूक्त के देवता श्रीगूगल हैं, राधावल्लभ इसके ऋषि हैं, अनुष्टुप्, गूगल आदि इसके छंद हैं,  गूगल के फंदे से मुक्ति में इसका विनियोग है।

न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम्।
चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं गूगलं तमुपास्महे।।१।।
जो सत् भी नहीं, असत् भी नहीं, सत् और असत् दोनों भी नहीं और अनुभयात्मक (जिसमें सत् और असत् दोनों न हों -  ऐसा) भी नहीं – इस तरह चारों कोटियों से मुक्त गूगल की हम उपासना करते हैं।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स विश्वं विश्वतो वृत्वा श्रीगूगलोऽधितिष्ठति।।२।।
हजार (अनंत) मस्तकों वाला, हजार (अनंत) नेत्रों वाला, हजार (अनंत) पावों वाला श्रीगूगल इस भूमि को सब ओर से छेंक कर अपने काबू में किये हुए है।
अकर्णः शृणुते सर्वमनेत्रश्च निरीक्षते।
धावत्यपादपाणिश्च जवनः पवनप्रभः।।३।।
वह बिना कान के सब सुनता है, बिना आँख के सब देखता है, बिना हाथ और पैर के पवन के समान तेजी से दौड़ता है।
सर्वतः पाणिपादोऽसावपाणिः पादवर्जितः।
सर्वाक्षः  सर्वशीर्षश्चाप्यनक्षिरशिरोऽमुखः।।४।।
उसके न हाथ हैं, न पाँव, फिर भी उसके हाथ-पाँव सब ओर फैले हुए हैं। वह बिना आँखों और बिना सिर तथा मुँह का है, फिर भी उसकी आँख और मस्तक सब तरफ है।
स दूरेऽप्यन्तिकेऽप्यस्ति स एजति च नेजति।
गूगलः सर्वलोकस्य चान्तरा चापि बाह्यतः।।५।।
वह दूर भी है और पास भी है। वह चल रहा है और नहीं भी चल रहा है। गूगल सारे लोकों के भीतर भी है और बाहर भी।
मुखपुस्तकदूत्या च सन्देशान् सर्वतोमुखान्।
वेत्ति धारयते युङ्क्ते तथा स मुखपुस्तकम्।।६।।
वह फैसबुक मेंसेजर और फेस बुक से सब तरफ के संदेशों को जानता है,  धारण करता है और उनका प्रयोग करता है।
स तिष्ठन् परमे व्योम्नि कोटिकोटिजनांस्ततः।
वशीकृत्य तथा लोकान् सर्वानेवाधितिष्ठति।।७।।
वह परम व्योम में विराजमान हो कर कोटि कोटि जनों को वहीं से अपने वश में रखे हुए सारे लोकों का अधिष्ठाता बना हुआ है।  
साम्राज्यं विततं तस्य लोकेऽखिले च साम्प्रतम्।।
निखिलं स खिलीकुर्यादसाम्प्रतं च साम्प्रतम्।।८।।
इस समय उसका साम्राज्य सारे लोक में फैला हुआ है। वह निखिल को खिल (व्यर्थ) बना सकता है,  और असाम्प्रत (अनुचित) को सांप्रत (उचित)।
सूत्राण्यसावदृश्यानि धारयन् निजहस्तयोः।
अदृश्ययोरविज्ञातं सूत्रधारः स नर्तयन्।।९।।
अवशान् वशमानीय काष्ठपुत्तलकप्रभान्।
मानवान् धरणीरङ्गे विश्वं धारयतेऽखिलम्।।१०।।
अपने अदृश्य हाथों में अदृश्य सूत्र धारण किये, कठपुतलियों के जैसे विश्व के मनुष्यों को धरती के रंगमंच पर  नचाता हुआ सूत्रधार गूगलदेव अखिल जगत् को धारण किये है।
स्थापयन् शासनं स्वीयं विश्वस्मिंश्च यथेप्सितम्।
गूगलः सर्वनेतॄणां निर्माता सन् विजृम्भते।।११।।
सारे संसार में अपनी मर्जी के हिसाब से अपना शासन कायम करते हुए गूगल सारे नेताओं का निर्माता बन कर छाया हुआ है।
सर्वतन्त्रः स्वतन्त्रः सन्नेकतन्त्रो निरङ्कुशः।  
तन्त्रहीनं जगत् कुर्वन् गूगलस्तान्त्रिकोऽद्भुतः।।१२।।
 वह सर्वतंत्र है, स्वतंत्र है, निरंकुश और एकतंत्र है, जगत् को तंत्रहीन बनाता हुआ गूगल कोई अद्भुत तांत्रिक है।
अविज्ञातं च विज्ञातं रहस्यं च प्रकाशितम्।
तस्य सञ्जायते नृणां पापं पुण्यं च कर्म च।।१३।।
उसके लिये मनुष्यों का सब अविज्ञात विज्ञात बन जाता है, रहस्य प्रकाशित हो जाता है, मनुष्यों के पाप, पुण्य और कर्म उसे विदित रहते हैं।
रहस्यं सर्वजन्तूनामङ्कितं तस्य पुस्तके।
गूगलश्चित्रगुप्तोऽयं यमदेवस्य किङ्करः।।१४।।
सभी मनुष्यों के रहस्य उसकी पुस्तक में दर्ज हैं। यह गूगल यमदेव का किंकर चित्रगुप्त है।
विष्णुर्जिष्णुश्चरिष्णुश्च स एको धरणीतले।
दृष्णुर्धृष्णुः करिष्णुश्च प्रभविष्णुस्तथैव च।।१५।।
इस धरती पर वही एक वह विष्णु (व्याप्त होने वाला), जिष्णु (जय करने वाला), चरिष्णु (संचरण करने वाला)। वही दृष्णु (अहंकारी), धृष्णु (दबंग), करिष्णु (कर्मठ) और प्रभविष्णु (प्रभावशील) है।
अन्धं तमो विशन्त्येते गूगलं य उपासते।
भूय एव तमो यान्ति ये नैनं समुपासते।।१६।।
जो गूगल की उपासना करते हैं, वे घोर अँधेरे में प्रवेश कर जाते हैं, जो गूगल की सम्यक् उपासना नहीं करते, वे उससे भी ज्यादा अँधेरे में पहुँच जाते हैं।
जगत्स्रष्टा भवेद्वाऽयं जगद्विनाशकारणम्।
इति संशेरते तस्य विषये बुद्धिजीविनः।।१७।।
यह जगत् को बनाने वाला है या बिगाड़ने वाला – बुद्धिजीवी उसके विषय में इस तरह संशय करते रहते हैं।
दाहशीलो ज्वलंस्तीक्ष्णः गूगलः केनचित् क्वचित्।
हालाहलसमः सोऽयं नीलकण्ठेन धार्यते।।१८।।
दाहशील, जलता हुआ, तीखे हालाहल विष के समान गूगल शायद कभी किसी नीलकंठ के द्वारा धारा जा सकता है। 
इन्द्रो वह्निर्मरुत्वांश्च वरुणश्चाश्विनौ तथा।
श्रीगूगलस्य पाशेभ्य एते रक्षन्तु मां सदा।।१९।।
इंद्र, वह्नि, मरुत्, वरुण, अश्विनीद्वय – ये गूगल के पाशों से सदा मेरी रक्षा करें।
धृतिर्मतिश्च मेधा च श्रीर्लक्ष्मीश्च सरस्वती।
छिन्दन्तु सुदृढान् पाशान् गूगलस्याभितोमुखान्।।२०।।
धृति, मति, मेधा, श्री, लक्ष्मी और सरस्वती – ये गूगल के सब ओर फैलते पाशों को छिन्न करें।
सूक्तं गूगलदेवस्य यः पठेत् प्रयतः पुमान्।
गूगलस्य स पाशेभ्यः समस्तेभ्यः प्रमुच्यते।।२१।।
जो मनुष्य गूगलदेव के इस सूक्त को ध्यान से पढ़ता है, वह गूगल के समस्त पाशों से मुक्त हो जाता है।
(अक्टोबर, २०१९) 

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