भाषा-व्याकरण, ज्ञान भावोत्पत्ति -- रेडियो मधुबन
एक अलग लेख
भाषा है क्या क्या?
भाषा क्या है? हम क्यों बोलते हैं? - सीधी सी बात है। हम अपने बात को दूसरे तक पहुँचाने के लिए बोलते हैं। जो हम बोलते हैं उसे भाषा कहते हैं।
लेकिन रुको। क्या तुमने कभी किसी पेड पर चढने का आनन्द लिया है? या फिर कभी खिडकी की सरिया पकडकर खिडकी की मुंडेर पर चढा हैं? कोई ऐसा काम किया है जो अँडव्हेंचर मे आता है?कोई भी ऐसा काम जो करने पर दोस्त-माता पिता-चाहने वाले सबकी आँखो मे प्रशंसा का भाव भर जाता हैं? ऐसा कोई अँडव्हेचर करनेपर मन नही मानता। मन उकसाता हैं- चलो अब एक अँडव्हेचर और करो।
तो एक बार मेरे साथ भी यही हुवा। मैं लिख बैठी कि भाषा जो है, सो अपनी बात को दूसरे तक पहुँचाने का माध्यम है। तो मनने टोक कर पूछा- बस इतना ही? फिर मुझे चिढाते हुए कहा - सोचो, सोचो, भाषा और भी बहुत कुछ है। फिर मैने सोचा तो लगा- सचमुच भाषा केवल संवाद का माध्यम नही हैं। भाषा सामर्थ्य है- सौंदर्य है और एक लयबध्द नियमबध्द व्यवस्था भी है। इन तीनोंके कारण शक्ती भी हैं। और संस्कृति का परिचय तो हमारी भाषा से ही होता है।
भाषा में सामर्थ्य है -- हमे प्रोत्साहित करने का, हमे दुखी करने का, हमे खुश करने का। जब हमारे ऋषि कहते हैं- उत्तिष्ठत जाग्रत, प्राय वरान्निबोधित -- अर्थात उठो जागो और उसे जानो जो सबसे अच्छा है और उसे पाने का प्रयास करो -- तो हमे प्रेरणा मिलती है। जब माँ पिता कहते है कि, तुमने हमारा सर ऊँचा कर दिया हैं, तब मन में एक आत्मविश्वास भर जाता हैं। कोई डाँट दे कि क्या गलती कर रहे हो, तो वाकई हम सोचने लगते हैं कि क्या और क्यों गलती कर डाली। इस प्रकार भाषा में सामर्थ्य हैं- भाव उत्पन्न करने का।
भाषा में सौदर्य भी है। जैसे जब हम पहली बार सुनते हैं- "चाचाने चाचीको चान्दीके चम्मच से चटनी चटाई" तो मन अनायास इस भाषा लालित्य पर मुग्ध हो जाता है। या यह पंक्ति हो- "तरनी तनुजा तट तमाल तरुवर बहू छाये"। या फिर यह पंक्तियाँ देखो-
पयसा कमलं कमलेन पयः
पयसा कमलेन विभाति सरः।
मणिना वलयं, वलयेन मणिः
मणिना वलयेन विभाति करः।।
इस प्रकार भाषा एक सौदर्य, लालित्य और माधुर्य का भाव भी जगाती है।
भाषा में जो एक नियमबद्धता और व्यवस्था होती है उसका भी अपना महत्व है। यह नियमबद्धता दो तरह से प्रकट होती है। पद्य रचना हो तो उसे छंद, ताल, लय का ध्यान रखना पडता हैं। गद्य रचना हो तो हर वाक्य की रचना का ध्यान रखना पडता हैं। इसीको व्याकरण कहते हैं।
भाषा से संस्कृती भी झलकती है। गंगा मैया कहने से झलकता है कि हमारी संस्कृती मे नदी को माँ जैसा सम्मान दिया जाता है। जब हम कहते हैं अतिथि देवो भव तो इससे हमारी अतिथिको सम्मान देने की परंपरा झलकती है। जब हम सुनते है - "रखिया बंधा ले भैया सावन आइल" तो हमारी भारतीय संस्कृती मे भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को बात समझ में आती है।
और भाषा सें ज्ञान का प्रवाह होता है इस बातको कौन नही जानता? मनुष्य ने भाषा बोलना सीखा इसी लिये अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कहीं से कहीं पहुँच गया। हम भी अपनी भाषा का सम्मान करें क्योंकि, उसी को आधार बनाकर हम ऊँचाईयोंको छू सकते हैं।
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भाषा क्या है? हम क्यों बोलते हैं? - सीधी सी बात है। हम अपने बात को दूसरे तक पहुँचाने के लिए बोलते हैं। जो हम बोलते हैं उसे भाषा कहते हैं।
लेकिन रुको। क्या तुमने कभी किसी पेड पर चढने का आनन्द लिया है? या फिर कभी खिडकी की सरिया पकडकर खिडकी की मुंडेर पर चढा हैं? कोई ऐसा काम किया है जो अँडव्हेंचर मे आता है?कोई भी ऐसा काम जो करने पर दोस्त-माता पिता-चाहने वाले सबकी आँखो मे प्रशंसा का भाव भर जाता हैं? ऐसा कोई अँडव्हेचर करनेपर मन नही मानता। मन उकसाता हैं- चलो अब एक अँडव्हेचर और करो।
तो एक बार मेरे साथ भी यही हुवा। मैं लिख बैठी कि भाषा जो है, सो अपनी बात को दूसरे तक पहुँचाने का माध्यम है। तो मनने टोक कर पूछा- बस इतना ही? फिर मुझे चिढाते हुए कहा - सोचो, सोचो, भाषा और भी बहुत कुछ है। फिर मैने सोचा तो लगा- सचमुच भाषा केवल संवाद का माध्यम नही हैं। भाषा सामर्थ्य है- सौंदर्य है और एक लयबध्द नियमबध्द व्यवस्था भी है। इन तीनोंके कारण शक्ती भी हैं। और संस्कृति का परिचय तो हमारी भाषा से ही होता है।
भाषा में सामर्थ्य है -- हमे प्रोत्साहित करने का, हमे दुखी करने का, हमे खुश करने का। जब हमारे ऋषि कहते हैं- उत्तिष्ठत जाग्रत, प्राय वरान्निबोधित -- अर्थात उठो जागो और उसे जानो जो सबसे अच्छा है और उसे पाने का प्रयास करो -- तो हमे प्रेरणा मिलती है। जब माँ पिता कहते है कि, तुमने हमारा सर ऊँचा कर दिया हैं, तब मन में एक आत्मविश्वास भर जाता हैं। कोई डाँट दे कि क्या गलती कर रहे हो, तो वाकई हम सोचने लगते हैं कि क्या और क्यों गलती कर डाली। इस प्रकार भाषा में सामर्थ्य हैं- भाव उत्पन्न करने का।
भाषा में सौदर्य भी है। जैसे जब हम पहली बार सुनते हैं- "चाचाने चाचीको चान्दीके चम्मच से चटनी चटाई" तो मन अनायास इस भाषा लालित्य पर मुग्ध हो जाता है। या यह पंक्ति हो- "तरनी तनुजा तट तमाल तरुवर बहू छाये"। या फिर यह पंक्तियाँ देखो-
पयसा कमलं कमलेन पयः
पयसा कमलेन विभाति सरः।
मणिना वलयं, वलयेन मणिः
मणिना वलयेन विभाति करः।।
इस प्रकार भाषा एक सौदर्य, लालित्य और माधुर्य का भाव भी जगाती है।
भाषा में जो एक नियमबद्धता और व्यवस्था होती है उसका भी अपना महत्व है। यह नियमबद्धता दो तरह से प्रकट होती है। पद्य रचना हो तो उसे छंद, ताल, लय का ध्यान रखना पडता हैं। गद्य रचना हो तो हर वाक्य की रचना का ध्यान रखना पडता हैं। इसीको व्याकरण कहते हैं।
भाषा से संस्कृती भी झलकती है। गंगा मैया कहने से झलकता है कि हमारी संस्कृती मे नदी को माँ जैसा सम्मान दिया जाता है। जब हम कहते हैं अतिथि देवो भव तो इससे हमारी अतिथिको सम्मान देने की परंपरा झलकती है। जब हम सुनते है - "रखिया बंधा ले भैया सावन आइल" तो हमारी भारतीय संस्कृती मे भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को बात समझ में आती है।
और भाषा सें ज्ञान का प्रवाह होता है इस बातको कौन नही जानता? मनुष्य ने भाषा बोलना सीखा इसी लिये अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कहीं से कहीं पहुँच गया। हम भी अपनी भाषा का सम्मान करें क्योंकि, उसी को आधार बनाकर हम ऊँचाईयोंको छू सकते हैं।
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