बुधवार, 25 नवंबर 2020

Bashing manusmriti

 


This new paper of mine published by Indic Today may interest some members. 
In this paper, I try to tackle some of the important but difficult questions regarding the authenticity of Manusmriti as a text and as a Shastra, including questions related to origination, composition, authorship, and transmission.

Abstract
Starting from George Bühler in the 19th century to Patrick Olivelle and Wendy Doniger of our own times, Western scholarship has had a long engagement with the text of Manusmṛti. Though their engagement has been long and at many different levels, one thing with which they are yet to come to terms with is the sheer size of the text as well as the wide range of the subject matter covered in it.
In this paper, I contend that the predominant position of modern scholarship on the composition and integrity of the text of Manusmṛti is problematic as it side-lines the evidence presented by the native tradition regarding how the text has been received within the tradition.

In this paper, I contend that the predominant position of modern scholarship on the composition and integrity of the text of Manusmṛti is problematic as it side-lines the evidence presented by the native tradition regarding how the text has been received within the tradition.

It will be shown that a careful understanding of the native accounts of the origination of the text as well as the general process of transmission of knowledge prevalent in the Hindu tradition clearly points to Manusmṛti as a carefully created text with unitary authorship. It will be further shown how the very narrative structure of the text as well as its deeper architecture supports the position of unitary authorship.

Regards,
Nithin

शनिवार, 14 नवंबर 2020

महंगी शिक्षा -- समस्या एवं समाधान

 महंगी शिक्षा -- समस्या एवं समाधान

महंगी शिक्षा की समस्या निवारण 

खंड 1 भारतीय पद्धति,  ब्रिटिश पद्धति सरकारी, कॉर्पोरेट पद्धति 

खंड 2 डाटा एनालिसिस 

प्रभाग 4 शिशु प्राथमिक माध्यमिक उच्च तंत्र प्रांत वार लिंग वार जाति वार 

५ स्पेशल परपज यथा नवोदय वनवासी कल्याण महिलाएं 

६ रोजगार बेरोजगार 

७ उद्योजकता 

८ परदेशगमन 

खंड 3 उपाय 

प्रभाग ९ मातृभाषा, ऑनलाइन, मोर बुक नीडेड  

प्रौढ शिक्षा इनफॉर्मल कौशल शिक्षा फील्ड स्टडी 

प्रभाग १० ऑडियो वीडियो अप्रेंटिस वानप्रस्थ सब पढ़े सब बढ़े ईच वन टीच वन

श्रद्धा और अंधश्रद्धा -- अनुक्रम

 श्रद्धा और अंधश्रद्धा

भूमिका  किम् कर्तव्यम् -- किमर्थम्

खंड एक

अध्याय से ८

अध्याय १अ -- श्राद्धका अर्थ 

 मनुष्य श्रद्धामय है

अध्याय १ आ  श्रद्धा ही जीवन है

राष्ट्र निर्माण में तत्व दर्शन का महत्व

भारतीय संस्कृति का अस्तित्व कगार पर खड़ा है

पुराने को मिटाने से ही नए का सृजन होता है -- इसमें कितना तथ्य है

शिव के पांच तत्व उत्पत्ति पोषण विलय अर्थात तिरोहित करना और आशीर्वाद देना

पश्चिमी संस्कृति श्रद्धा के विषय में क्या कहती है

राजकारण धर्मका अन्योन्य संबंध

आज हमें एक लीगल फिलॉसफी की भी आवश्यकता है

खंड 2

अध्याय से १५

भगवद्गीता में श्रद्धा

१० अंधश्रद्धा व तामसी श्रद्धामें अन्तर

११ अंधश्रद्धा व अश्रद्धामें अन्तर

१२ अंधश्रद्धा शब्दका बवाल

१३

१४

१५

खण्ड तीन

अध्याय १६ से २०

१६

१७

१८

१९

२०

उपसंहार

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अभी मैं गायत्री परिवार की तरफ से जो लेख डाले गए हैं उसमें से लेखक क्रमांक 4 पढ़ रहे हैं जिसका शीर्षक है श्रद्धा ही जीवन है

श्रद्धा मानव जीवन की न्यू है जैसी जिसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है गीता के शब्दों में श्रद्धा मेयो एवं पुरुष अर्थात मनुष्य स्वभाव से ही श्रद्धा वन है यह बात अलग है कि उसकी श्रद्धा का आकार क्या है जिस तरह सूर्य के बिना  दिन नहीं होता आंखों के बिना देखा नहीं जाता कानून के बिना सुना नहीं जा सकता उसी प्रकार श्रद्धा के बिना जीवन गति में नहीं हो सकता जिस प्रकार दीपक के प्रज्वलित रहने के लिए स्नेह आवश्यक है उसी प्रकार जीवन के लिए श्रद्धा अपेक्षित है वह मनुष्य मनुष्य नहीं जिसमें श्रद्धालुओं श्रद्धा ही सत्य का साक्षात्कार कराती है यजुर्वेद 19.30 का वचन है कि श्रद्धया सत्यम् आप्यते

श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है श्रद्धा प्राणा श्रद्धा ही मनुष्य का प्राण है श्रद्धा ही मनुष्य को निज प्राण या निर्जीव समझना चाहिए किसी तरह की श्रद्धा ना होने पर वह निश्चेष्ट ही रहेगा और  चेस्ट रहित जीवन मृत्यु के समान नहीं होता है गीता में कहा है कि श्रद्धा ही मुक्ति का ज्ञान प्राप्ति का और जीवन साधना का आधार है श्रद्धा वान लभते ज्ञानम् श्रद्धालु व्यक्ति अपनी यह अथर्व वैद्य का वाक्य है श्रद्धालु व्यक्ति अपनी इंद्रियों का संयम करके तत्परता से ज्ञान प्राप्त करता है ज्ञान प्राप्त होने से मुक्ति मिलती है और फिर वह परम शांति और सुख की अनुभूति करता है हमारी श्रद्धा का उदय होता है किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से जब हम किसी व्यक्ति में जनसाधारण से अधिक विशेष गुण या शक्ति का दर्शन करते हैं तो उसके प्रति एक आनंद युक्त आकर्षण पैदा होता है और यही आकर्षण हमें उस व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करने के साथ-साथ उसके प्रति एक पूज्य भाव भी पैदा करता है इसी प्रक्रिया का नाम श्रद्धा है श्रद्धा का आधार व्यक्ति के गुण और कर्म ही होते हैं इसलिए जिन कर्मों की प्रेरणा से श्रद्धा उत्पन्न होती है उन्हें धर्म की सउदिया दी जाती है और किसी धर्म से मनुष्य समाज की स्थिति होती है संक्षेप में धर्म वान व्यक्ति हमारी श्रद्धा का केंद्र होता है श्रद्धालु और श्रद्धेय के बीच में यह धर्म कार्य ही मुख्य हेतु होता है


















जनसंख्या -- संपत्ति या विपत्ति

 

जनसंख्या -- संपत्ति या विपत्ति

जनसंख्या संपत्ति या विपत्ति 

प्रभाग 1 वर्तमान एवं भविष्य 

जमीन बनाम जनसंख्या 

पोषण स्वास्थ्य शिक्षा 

प्रभाग २ राष्ट्रकी संपत्ति क्या होती है और जनसंख्या विपत्ति कब बनती है कौन से गुण तय करते हैं कि जनसंख्या संपत्ति रहेगी या विपत्ति होगी 

प्रभाग 3 प्रांत वार जनसंख्या जनगणना के आंकड़े १९५१, ६१, ७१, ८१, ९१, २००११, 2011, 2021 

प्रभाग ४ उद्योजकता बेरोजगारी  -- कृषि उद्योग एवं सेवाके सेक्टर में रोजगारी की संभावना -- फोर्थ सेक्टर शिक्षा एवं अन्वेषण 5वां सेक्टर लक्ष्य एवं दूरदृष्टि


वर्तमानमें विश्वकी जनसंख्या . अरब है चीनकी जनसंख्या १५० करोड़, भारतकी भी लगभग १५० करोड़ र बाकी पूरे विश्वमें .५ अरब। तीसरे स्थानपर जो देश है अमेरिका, उसकी जनसंख्या लगभग ३५ करोड़, अर्थात चीन व भारतकी तुलनामें एक चौथाईसे कम है

जनसंख्याका विचार अवश्यमेव रूपसे किसी समूह, समाज व राष्ट्रके विचारके साथ जुड़ा होता है जनसंख्या - यह एक बहुवचन-दर्शक शब्द है और बहुत बड़े परिमाणमें व्यक्तियोंको दर्शाता है किसी भी राष्ट्रकी एवं संस्कृतिकी संपत्ति किस प्रकार मापी जाती है या समझी जाती है

संपत्ति शब्दके पर्यायी शब्द हैं - धनका अर्जन, संसाधनोंकी उपलब्धता, श्री, समृद्धि, अभ्युदय, प्रगति, विकास, इत्यादि संपत्ति शब्दका स्मरण करनेपर हमारे मनमें ऐसे शब्द प्रकट होते हैं। परंतु एक दूसरी सूची भी है जिसमें परिश्रम, नियमबद्धता, लगन, निरंतरता, योजना, दूरदृष्टि जैसे शब्द आते हैं और उन्हें हम सहसा संपत्तिके साथ नहीं जोडते ये दूसरी सूचीके शब्द हमारे प्रयत्नोंके साथ जुड़े होते हैं जबकि पहली सूचीके शब्द प्रयासोंके फलितके साथ जुड़े होते हैं यह मनुष्य स्वभाव है कि हम प्रायः केवल फलितकी ओर देखते हैं उसके देदीप्यमान होनेके कारण हम उससे प्रभावित हो जाते हैं अथवा अगर उसमें कोई कमी या अपूर्णता दिखे तो उसकी पूर्णताहेतु मनमें अभिलाषा रखते हैं परंतु उ फलितको पानेहेतु या पूर्ण करनेहेतु जो सतत प्रयास करने पड़ते हैं उसकी अनुभूति अथवा उसका स्मरण हम प्रायः नहीं रखते प्रयत्न हमारे कष्ट करनेके दिनोंके साथ जुड़े होते हैं जबकि संपत्ति हमारे उपभोग करनेके दिनोंके साथ जुड़ी होती है, और यह मानवी स्वभाव है कि उसे कष्टोंका या प्रयासोंका विचार अधिक अच्छा नहीं लगता उपभोगसे मिलने वाले सुखकी ओर उसका चित्त लगा होता है

जबतक हमने प्रयासोंका विचार करना नहीं छोड़ा तभीतक हम भविष्यमें भी प्रयत्नशील रहेंगे और उ प्रयत्नोंसे ही भविष्यकालीन संपत्तिका निर्माण होने वाला है इसलिए प्रयत्नोंका स्मरण हमें सदा ही रखना चाहिए तो प्रश्न यह उठता है कि किसी भी समाज या राष्ट्रके कितने प्रतिशत व्यक्ति प्रयत्नशील होते हैं या प्रयत्नोंका स्मरण रखते हैं किंतु इस प्रश्नके पहले हम एक अन्य प्रश्नकी तरफ चलते हैं कि केवल एक व्यक्तिको विचारकेंद्रमें रखकर हम संपत्तिकी व्याख्या किस प्रकार करेंगे और यदि समष्टिका विचार करना हो तो हम संपत्तिकी व्याख्या किस प्रकार करेंगे। क्या इन दोनों व्याख्याओंमें अन्तर होगा।