श्रद्धा
और
अंधश्रद्धा
भूमिका किम् कर्तव्यम् -- किमर्थम्
खंड
एक
अध्याय
१
से
८
अध्याय १अ -- श्राद्धका अर्थ
१ मनुष्य श्रद्धामय है
अध्याय १ आ श्रद्धा ही जीवन है
२
राष्ट्र
निर्माण
में
तत्व
दर्शन
का
महत्व
३
भारतीय
संस्कृति
का
अस्तित्व
कगार
पर
खड़ा
है
४
पुराने
को
मिटाने
से
ही
नए
का
सृजन
होता
है
--
इसमें
कितना
तथ्य
है
५
शिव
के
पांच
तत्व
उत्पत्ति
पोषण
विलय
अर्थात
तिरोहित
करना
और
आशीर्वाद
देना
६
पश्चिमी
संस्कृति
श्रद्धा
के
विषय
में
क्या
कहती
है
७
राजकारण
व
धर्मका
अन्योन्य
संबंध
८
आज
हमें
एक
लीगल
फिलॉसफी
की
भी
आवश्यकता
है
खंड
2
अध्याय
९
से
१५
९
भगवद्गीता
में
श्रद्धा
१०
अंधश्रद्धा व तामसी श्रद्धामें
अन्तर
११
अंधश्रद्धा व अश्रद्धामें
अन्तर
१२
अंधश्रद्धा शब्दका बवाल
१३
१४
१५
खण्ड
तीन
अध्याय
१६
से २०
१६
१७
१८
१९
२०
उपसंहार
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अभी मैं गायत्री परिवार की तरफ से जो लेख डाले गए हैं उसमें से लेखक क्रमांक 4 पढ़ रहे हैं जिसका शीर्षक है श्रद्धा ही जीवन है
श्रद्धा मानव जीवन की न्यू है जैसी जिसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है गीता के शब्दों में श्रद्धा मेयो एवं पुरुष अर्थात मनुष्य स्वभाव से ही श्रद्धा वन है यह बात अलग है कि उसकी श्रद्धा का आकार क्या है जिस तरह सूर्य के बिना दिन नहीं होता आंखों के बिना देखा नहीं जाता कानून के बिना सुना नहीं जा सकता उसी प्रकार श्रद्धा के बिना जीवन गति में नहीं हो सकता जिस प्रकार दीपक के प्रज्वलित रहने के लिए स्नेह आवश्यक है उसी प्रकार जीवन के लिए श्रद्धा अपेक्षित है वह मनुष्य मनुष्य नहीं जिसमें श्रद्धालुओं श्रद्धा ही सत्य का साक्षात्कार कराती है यजुर्वेद 19.30 का वचन है कि श्रद्धया सत्यम् आप्यते
श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है श्रद्धा प्राणा श्रद्धा ही मनुष्य का प्राण है श्रद्धा ही मनुष्य को निज प्राण या निर्जीव समझना चाहिए किसी तरह की श्रद्धा ना होने पर वह निश्चेष्ट ही रहेगा और चेस्ट रहित जीवन मृत्यु के समान नहीं होता है गीता में कहा है कि श्रद्धा ही मुक्ति का ज्ञान प्राप्ति का और जीवन साधना का आधार है श्रद्धा वान लभते ज्ञानम् श्रद्धालु व्यक्ति अपनी यह अथर्व वैद्य का वाक्य है श्रद्धालु व्यक्ति अपनी इंद्रियों का संयम करके तत्परता से ज्ञान प्राप्त करता है ज्ञान प्राप्त होने से मुक्ति मिलती है और फिर वह परम शांति और सुख की अनुभूति करता है हमारी श्रद्धा का उदय होता है किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से जब हम किसी व्यक्ति में जनसाधारण से अधिक विशेष गुण या शक्ति का दर्शन करते हैं तो उसके प्रति एक आनंद युक्त आकर्षण पैदा होता है और यही आकर्षण हमें उस व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करने के साथ-साथ उसके प्रति एक पूज्य भाव भी पैदा करता है इसी प्रक्रिया का नाम श्रद्धा है श्रद्धा का आधार व्यक्ति के गुण और कर्म ही होते हैं इसलिए जिन कर्मों की प्रेरणा से श्रद्धा उत्पन्न होती है उन्हें धर्म की सउदिया दी जाती है और किसी धर्म से मनुष्य समाज की स्थिति होती है संक्षेप में धर्म वान व्यक्ति हमारी श्रद्धा का केंद्र होता है श्रद्धालु और श्रद्धेय के बीच में यह धर्म कार्य ही मुख्य हेतु होता है
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