चेत जाइये वरना युनीकोड बनेगा हमारी एकात्मिक सांस्कृतिक धरोहर को खतरा
चुनावी उम्मीदवारोंमेंसे एक भी पसंद न हो तो आपको अनास्था जतानेका अधिकार अब उच्चतम न्यायालय के कारण मिलपाया । लेकिन लडाइयाँ कितनी बाकी हैं। अनास्था मत का चुनाव चिह्न होगा NOTA. यह भारतीय भाषाओंका और भारतीय
संविधान का सरासर अपमान है कि हम अपनी बात कहने के लिये अपनी भाषा के शब्द नही अपनाते। उसके प्रति सजग नही
रहते।
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इस देवभूमि भारतकी करीब पचास भाषाएँ जिनकी प्रत्येककी लोकसंख्या 10 लाखसे कहीं अधिक है, और करीब 7000 बोलीभाषाएँ जिनमेंसे प्रत्येकको बोलनेवाले कमसे कम पाँचसौ लोग हैं, ये सारी भाषाएँ मिलकर हमारी अनेकता में एकता का अनूठा और अद्भुत चित्र प्रस्तुत करती है। इन सबकी वर्णमाला एक ही है, व्याकरण एक ही है और सबके पीछे सांस्कृतिक धरोहर भी एक ही है। यदि गंगोत्रीसे काँवड भरकर रामेश्वर ले जानेकी घटना किसी आसामी लोककथा को जन्म देती है, तो वही घटना उतनीही क्षमतासे एक भिन्न परिवेशकी मलयाली कथा को भी जन्म देती है। इनमेसे हरेकने अपने शबदभंडारसे और अपनी भाव अभिव्यक्तिसे किसी न किसी अन्य भाषाको भी समृद्ध किया है। इसी कारण हमारी भाषासंबंधी नीतिमें इस अनेकता और एकता को एकसाथ टिकाने और उससे लाभान्वित होनेकी सोच हो यह सर्वोपरि है -- वही सोच हमारी पथदर्शी प्रेरणा होनी चाहिये।
1. सुधारोंका प्रारंभ हो -- सर्वोच्च न्यायालय, गृह व वित्त मंत्रालय, केंद्रीय लोकराज्यसंघकी परीक्षाएँ, एंजिनियरिंग, मेडिकल तथा विज्ञान एवं समाजशास्त्रीय विषयोंकी स्नातकस्तरीय पढाई ।सुधारोंका दूसरा छोर हो प्रथमिक और माध्यमिक स्तरकी पढाई।
2. अनेकतामें एकताको बनाये रखनेके लिये दो अच्छे साधन हैं - संगणक एवं संस्कृत। उनके उपयोग हेतु विस्तृत चर्चा हो।
3. हमारी भाषाई अनेकतामें एकताका विश्वपटलपर लाभ लेने हेतु ऐसा चित्र संवर्द्धित करना होगा जिसमें सारी भाषाओंकी एकजुट स्पष्ट हो। आजका चित्र तो यह है कि हर भाषा की हिंदी के साथ और हिंदीकी अन्य सभी भाषाओंके साथ प्रतिस्पर्धा है। इसे बदलना हो तो पहले आवश्यक है कि जनगणना में यह पूछा जाय कि आपके कितनी भारतीय भाषाएँ आती हैं, ना कि केवल आपकी मातृभाषा कौनसी है।विश्वपटलपर जहाँ लोकसंख्या गिनतिका लाभ उठाया जाता है -- वहाँ वहाँ हिंदीको पीछे खींचनेकी चाल चली जा रही है। क्योंकि संख्याबलमें हिंदी के टक्करमें केवल अंग्रेजी और मंडारिन (चीनी) है- बाकि तो कोसों पीछे हैं। यदि मेरी मातृभाषा मराठी है और मुझे हिंदी व मराठी दोनों ही प्रिय हों तो मेरा मराठी-मातृभाषिक होना हिंदीके संख्याबल को कम करें यह मैं कैसे सहन कर सकती हूँ--और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना लाभ क्यों गवाऊँ? क्या केवल इसलिये कि मेरी सरकार मुझे अंतर्राष्ट्रीय स्तरपर हिंदीकी महत्ताका लाभ नही उठाने देती ? अतएव सर्वप्रथम हमारी अपनी राष्ट्रनीति सुधारे और मेरे भाषाज्ञानका लाभ मेरी दोनों माताओंको मिले ऐसी कार्य-प्रणाली भी बनायें यह अत्यावश्यक है।
औऱ बात केवल हिंदीकी नही है। विश्वस्तरपर जहाँ मराठी, मैथिली, कन्नड या बंगाली लोक-संस्कृतीकी महत्ता उस उस भाषाको बोलनेवालोंके संख्याबल के आधारपर निश्चित की जाती है, वहाँ वहाँ मेरी उस भाषाकी प्रवीणताका लाभ अवश्य मिले- तभी मेरे भाषाज्ञानकी सार्थकता होगी। तो क्यों न हमारी राष्ट्रभाषानीति ऐसी हो जिसमें मेरे भाषाज्ञानका अंतर्राष्ट्रीय लाभ उन सारी भाषाओंको मिले। यदि ऐसा हो, तो मेरी भी भारतीय भाषाएँ सीखनेकी प्रेरणा अधिक दृढ होगी।
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