इंग्लिश माध्यमवाले बच्चोंका भविष्य क्या है ???
हमें ये अन्तर समझना होगा कि क्यों १९९० से २०१० तक बच्चोंको अंगरजीमें झोंकना कुछ हद तक सही था और आज बिलकुल गलत। उन बीस वर्षोंमें हमने (नारायण मूर्ति व विप्रो जैसोंकी अगुआईमें) अमरीकाको बडी संख्यामें कम्प्यूटर कूली सप्लाय करनेका उद्योग हाथमें लिया -- जिसके लिये कम्यूटर और अंगरेजी दोनोंके ज्ञान आवश्यक था। इस दौरान हमारी इंग्लिश लिटरसी १४ प्रतिशतसे २० तक बढी और दूसरे किसी देशके पास इतने कुली नही थे। लेकिन १९९५में अंतर्जालकी स्थापना तथा कम्प्यूटरपर चीनी लिपीका सक्षम उपयोग आरंभ होनेपर चीनने बिलकुल अनोखी तकनीकसे हमारा बिझिनेस हथियाया -- कि इंग्लिश लिटरसीकी परवाह मत करो -- चीनी भाषाके माध्यमसे बच्चोंमें कम्प्यूटर लिटरसी बढाओ, फिर ५० बच्चोंकी एक टोलीपर एक इंग्लिश व कम्प्यूटर दोनोंकी जानकारीवाला सुपरवाइजर लगाओ। इस तकनीकसे एक ओर चीनने भारतीय कुलियोंका बिझिनेस छीना तो दूसरी ओर मातृभाषामें शिक्षा बरकरार रखनेके कारण चीनी विद्यार्थियोंके दिमाग कुंद होनेसे बचे रहे। इस प्रकार शोधकार्य और इनोवेशनमें चीन हमसे कोसों आगे निकल गया है ।और गैरमातृभाषी शिक्षाकी लालचमें कुंद-दिमागी होते रहनेके कारण भारतमें शोधकार्यकी क्षमता शून्यपर आ गई है। आगे हमारे बच्चोंको उच्च शोध क्षमता न हुई तो कम्प्यूटर कूली नही बल्कि सामान्य कुली बननेके लिये अमरीका जाना पडेगा। पिछली सदीसे आजतक जितने भी भारतीय अमरीका जाकर शोधकार्यमें चमके वे मातृभाषामें पढाई कर वहाँ गये थे। जो कम्प्यूटर पढकर गये उनकी बपौती चीन तेजीसे छीन रहा है । आगे भी बच्चोंको इंगलिश माध्यममें डालते रहेंगे तो कोई कम्प्यूटर नौकरी हाथ नही आनेवाली और दूसरी कोई ढंगकी नौकरी करने लायक बुद्धिमत्ता भी नही बची होगी।
शुक्रवार, 20 जुलाई 2018
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