एक
देश -
अनेक
भाषाएँ -
एकात्म
भाषाएँ
कुछ
दिनों पूर्व गृहमंत्री श्री
अमित शाहने कह दिया एक देश,
एक
भाषा और यह एक विवादका विषय
बन गया। मुझे लगा कि इस पूरी
चर्चामें तकनीकीकी भूमिका
भी है,
उसकी
चर्चा करूँ। यह है संगणकीय (
कम्प्युटर)
तकनीक।
संयोगसे यह विषय भी शाहके
गृहमंत्रालयका हिस्सा है।
हम
एक राष्ट्र,
एक
भाषाका नारा क्यों लगाते हैं?
क्योंकि
एक स्वतंत्र राष्ट्रके रूपमें
आज भी हम विश्वको यह नही बता
पाते कि हमारी राष्ट्रभाषा
कौनसी है?
फिर
वैश्विक समाज अंग्रेजीको
हमारे देशकी de
facto भाषा
मानने लगता है। उनकी इस अवधारणाकी
पुष्टि हम भारतीय ही करते हैं।
जब दो भारतीय व्यक्ति विदेशमें
एक दूसरेसे मिलते हैं तब भी
अंगरेजीमे बात करते है। देशके
अंदर भी कितने ही माता-
पिता
जब अपने बच्चोंके साथ कहीं
घूमने जा रहे होते हैं तब उनके
साथ अंगरेजीमें ही बोलते हैं।
ये बातें देशके गृहमंत्रीको
अखर जायें और वह सोचे कि काश
हमारे देशकी एक घोषित राष्ट्रभाषा
होती,
तो
यह स्वाभाविक भी है और उचित
भी। अंग्रेजीको अपनी संपर्क
भाषा बनानेके कारण हमारी
जगहंसाई तो होती ही है,
हमारा
आत्मगौरव भी घटता है।
तो
जब तक हिंदीको राष्ट्रभाषा
नही घोषित किया जाता तबतक
विश्वके भाषाई इतिहासमें यही
लिखा जायगा कि विश्वके किसी
भी देशकी राष्ट्रभाषाके रूपमें
हिंदीकी प्रतिष्ठा नही है।
स्मरण रहे कि हमसे छोटे छोटे
देशोंकी भाषाओंको भी राष्ट्रभाषाका
सम्मान प्राप्त है,
यथा
नेपाली,
बांग्ला,
ऊर्दू,
फिनिश,
हंगेरियन
इत्यादि। जब हम कह सकेंगे कि
हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है,
तब
विश्व कहेगा कि यह १३० करोडवाले
लोकतंत्रकी भाषा है। वर्तमानमें
हिंदीका विवरण ऐसा नही दिया
जा सकता,
केवल
यह कहा जाता है कि भारतमें
लगभग साठ करोड नागरिकोंकी
भाषा हिंदी है। इस प्रकार
वैश्विक बाजारमें संख्याबलसे
मिलनेवाला लाभ ना तो देश ले
पाता है ना हिंदी भाषा।
इसी
कारण मैं इस बातका पूरा समर्थन
करती हूँ कि हमें शीघ्रातिशीघ्र
हिंदीको राष्ट्रभाषा घोषित
करना चाहिये। इस मर्यादित
अर्थमें अमित शाहका नारा एक
राष्ट्र,
एक
भाषा मुझे पूरी तरह मान्य
है।
परंतु
जिस प्रकार हमारे राष्ट्रकी
अस्मिताका प्रश्न महत्वपूर्ण
है,
उसी
प्रकार हमारी हर भाषाका,
हर
बोलीका,
हर
लिपीका प्रश्न महत्वपूर्ण
है। इस महत्वको समझानेके लिये
एक खूबसुरत उदाहरण देती हूँ।
महाराष्ट्रकी राजभाषा मराठी
है। इसके तीन जिलोंमे एक
बोलीभाषा है,
अहिराणी।
यहाँके एक तहसिलदारने एक दिन
मुझे बोलकर सुनाया कि कैसे
चोपडा तहसिलकी अहिराणी अलग
है,
और
धडगावकी अलग,
पाचोराकी
अलग है,
धुलेकी
अलग,
शिरपूरकी
अलग,
जलगावकी
अलग। अर्थात पांच पांच कोसपर
भाषा कैसे बदलती है,
इसका
बेजोड नमूना वह मुझे दिखा रहा
था। मेरा भी अनुभव है कि पटनाकी
भोजपूरी अलग सुनाई देती है
और जौनपुरकी अलग। मेरी दृष्टिमें
यह भाषाका सामर्थ्य है कि वह
कितनी लचीली हो सकती है।
तो
जब अस्मिताकी बात करते है तब
इस खूबसुरतीकी सराहना भी होनी
चाहिये और सुरक्षा भी। जैसे
राष्ट्रीय अस्मिताके लिये
हिंदीको राष्ट्रभाषा घोषित
किया जाना सही है वैसे ही
मराठीकी अस्मिताको बनाये
रखनेका प्रयास भी उसी गृहमंत्रालयको
करना होगा। अहिराणीकी अस्मिता
बनाये रखनेका प्रयास केंद्रके
साथ महाराष्ट्रकी सरकार और
जनताको करना होगा जबकि अलग
अलग तहसिलोंमें बोली जानेवाली
अलग अलग अहिराणियोंको संभालने
हेतु सरकारके साथ वहाँ वहाँके
लोगोंको आगे आना होगा। लेकिन
इस संभालनेकी प्रक्रियामें
अन्य भाषाकी भिन्नताके प्रति
विद्वेष या वैरकी भावना नही
होनी चाहिये। अर्थात इनकी
आन्तरिक एकात्मताको समझकर
उसका सम्मान होना चाहिये,
और
उससे लाभ उठाना चाहिये इतना
सिद्धान्त तो सबकी समझनेमें
आता है।
क्या
इस सिद्धान्तका कोई व्यावहारिक
पक्ष है,
विशेषकर
ऐसा जिसमें गृहमंत्रालयके
लिये कोई जिम्मेदारी है। जी
हाँ,
है।
जितनी अधिक तेजीसे और कुशलतासे
गृहमंत्रालय उसे निभायेगा,
उतनी
ही तेजीसे हम अपने देशके भाषाई
एकात्मको निभा पायेंगे।
इस
दिशामें मेरे कुछ तकनीकी सुझाव
हैं जो आयटी क्षेत्रसे संबंधित
होनेके कारण वे भी गृहमंत्रालयकी
कार्यकक्षामे है।
यहाँ
थोडासा संगणकके
(कम्प्यूटरके)
इतिहासमें
झांककर देखना होगा। १९९०
आते आते सरकारी
संगणकीय संस्थान
सीडॅकके एक संगणक शास्त्रज्ञ
श्री मोहन तांबेने एक
संगणक सॉफ्टवेयरकी
रचना की जिसका
इनस्क्रिप्ट
नामक
कीबोर्ड
लेआउट
भारतीय वर्णमालाके अक्षरोंके
क्रमानुसार तथा आठ उंगालियोंसे
टाइपिंग
करने हेतु अत्यंत सरल व सुविधाजनक
है। इसका प्रयोग सारी भारतीय
लिपियोंसहित सिंहली,
भूटानी,
तिब्बती,
थाई
आदिके लिये एक जैसा ही है। यह
जो
सॉफ्टवेयर
बना उसका नाम था लीप-ऑफिस।
इसके लिये सीडॅकने जेजे स्कूल
ऑफ आर्टके डीन श्री जोशीकी
सहायतासे करीब बीस अलग-
अलग
फॉण्टसेट भी बनवाये। कदाचित
आज
भी
किसी किसीके स्मरणमें उनके
नाम होंगे यथा सुरेख,
वसुंधरा,
योगेश
इत्यादि।
हिंदीके साथ साथ प्रत्येक
भारतीय लिपीके लिये भी १०-२०
फॉन्टसेट
बनाये गये।
एक तरहसे कहा जा सकता है कि
तांबेजी व जोशीजीने पद्मश्री
मिलने जैसा काम किया था। इनके
माध्यमसे किसी भी एक लिपीमें
लिखा गया आलेख एक
ही क्लिकसे
दूसरी लिपीमें और
मनचाहे फॉण्टमें
बदला जा सकता था (
देखें
वीडिये लिंक Inscript-part-2
-- मराठी
हिन्दी धपाधप लेखन हेतू --
https://www.youtube.com/watch?v=0YspgTEi1xI&feature=user&gl=GB&hl=en-GB
)
श्री
तांबेने १९९१ में ही इस
इनस्र्किप्ट की-बोर्ड
लेआउटको तथा संगणककी प्रोसेसर
चिपमें स्टोरेज हेतु किये
जानेवाले एनकोडिंगको ब्यूरो
ऑफ इण्डियन स्टॅण्डर्डसे
भारतीय प्रमाणके रूपमें घोषित
भी करवा लिया जिसका बडा लाभ
आगे चलकर हुआ जब १९९५ में
इंटरनेटका युग आया।
१९९५
से २००५ तकका सीडॅकका इतिहास
एक विफलताका इतिहास है और मैं
यहाँ उसे दोहराना नही चाहती।
उसका एक आयाम यह था कि लीप
ऑफिसको देशकी लिपीयोंके सुगठित
प्रचारहेतु समर्पित करनेकी
जगह साडॅक उसे १५००० में बेचती
थी। इतना कहना पर्याप्त है
कि इस दौरान श्री तांबे सीडॅकसे
बाहर हुए और इंटरनेटके साथ
कम्पॅटिबल न होनेके कारण
सीडॅकने अन्ततोगत्वा लीप-ऑफिसको
भी डंप कर दिया। इस बीच इंटरनेट
तथा नई १६-
बिटवाली
संगणकीय प्रणालीमें पुराना
युरोपीय स्टॅण्डर्ड ASCII
अपर्याप्त
होनेके कारण एक नया विश्वव्यापी
स्टॅण्डर्ड बनने लगा युनीकोड।
इसे बनानेवाले युनीकोड
कन्सोर्शियमने अर्थात
अंतर्राष्ट्रीय संगठनने श्री
तांबेद्वारा प्रमाणित करवाये
स्टॅण्डर्डको ही भारतीय
भाषाओंके स्टॅण्डर्ड हेतु
स्वीकार किया। यही कारण है
कि लीप-ऑफिसका
पूरा सॉफ्टवेयर ना सही,
परन्तु
इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड
लेआऊटके साथ तांबेका बनाया
स्टोरेज एनकोडिंग हो तो वह
लेखन इंटरनेटपर टिकाऊ रहता
है,
जंक
नही होता।
देशका
दुर्भाग्य है कि उपरोक्त
तकनीकी बारीकियाँ तथा अगले
परिच्छेदोंमें वर्णित बारकियाँ
भी गृहमंत्रालय या सीडँकके
वरिष्ठ अधिकारियोंको ज्ञात
ही नही हैं। उनसे चर्चा करनेपर
वे इन्हें तुच्छ बताते हुए
इस बातपर गर्व करते हैं कि वे
इन बारीकियोंको अपने निम्नस्तरीय
अधिकारियोंको सौंपते हैं,
स्वयं
इनपर विचार नही करते। मेरा
मानना है कि जब तक वे इन बातोंको
ठीक तरह नही समझेंगे,
तबतक
वे भाषाई एकात्मताको बचाने
या उसका लाभ उठानेमें सक्षम
नही होंगे।
युनीकोड
कन्सोर्शियमके द्वारा इंडियन
स्टॅण्डर्ड स्वीकारे जानेके
बाद भी सीडॅकने अपने लीपऑफिसको
और खास तौरसे उसके फॉण्ट-
सेटोंको
देशी लिपियोंके लिये समर्पित
नही किया बल्कि उसे डंप कर
दिया। भारत सरकारने ऐसा होने
दिया और २००५ में देशी भाषाओंको
रोमनागरीमें लिखे जाने हेतु
एक करोड सीडी फ्री बँटवाईं।
कभी कभी मुझे यह भी शंका होती
है कि शायद यह कोई प्लान था
देशकी लिपियाँ समाप्त करनेका।
इसी रोमनागरी सॉफ्टवेयरका
बदला रूप आज हम गूगल-इनपुट
टूलके रूपमें मार्केटमें
छाया हुआ देखते हैं। लेकिन
गृहमंत्रालय आज भी निर्देश
दे सकता है कि लीप ऑफिसके लिये
बनवाये गये सभी लिपियोंके
फॉण्ट ओपन डोमेनमें डाले
जायें – अर्थात विनामूल्य
उपलब्ध कराये जायें।
संगणकके
इतिहासमें १९८० के दशकसे ही
मायक्रोसॉफ्टकी ऑपरेटिंग
सिस्टमका बोलबाला और एकाधिकार
प्रस्थापित होने लगा था। लेकिन
हमें नही भूलना चाहिये कि
उन्हें भी एक मार्केटकी आवश्यकता
होती है और वे ग्राहकको असंतुष्ट
नही रख सकते। उनके दो बडे
मार्केट थे --
एक
चीन जहाँ उनकी मनमानी नही चलती
थी। इसीलिये चीन आग्रही रहा
कि वहाँ संगणकके सारे आदेश
चीनी लिपीमें ही दिखेंगे।
दूसरा मार्केट है भारत। लेकिन
सीडॅक और भारत सरकारने बारबार
यही रोना रोया है कि क्या करें,
मायक्रोसॉफ्ट
हमें भारतीय भाषाई सुविधा
नही देता। बहरहाल,
इंटरनेट
आनेके बाद सीडॅकने यही रोना
रोया कि बीआयएस एवं युनीकोड
द्वारा मान्य एनकोडिंगको
भारतीय लिपियोंमें लागू करनेके
लिये मायक्रोसॉफ्ट सहयोग नही
दे रहा।
तभी
१९९६ में मायक्रोसॉफ्टको
टक्कर देती हुई और अपना मंच
पूरे विश्वके उपयोगके लिये
फ्री रखनेका दावा करनेवाली
लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम
मार्केटमें आई,
उसने
भारतीय लिपियोंके दो-दो
तीन-तीन
फॉण्ट बनवाये और सारी सुविधाऐँ
फ्री डाऊनलोडसे देने लगे। तब
जाकर मायक्रोसॉफ्टने भी
प्रत्येक भारतीय लिपीके लिये
एक-एक
फॉण्ट बनवाकर अपना मार्केट
बचाया। इस हेतु उन्हें भी अपना
की-बोर्ड
लेआउट वही रखना पडा जो तांबेका
बनाया था -
लेकिन
मायक्रोसॉफ्टके अधिकारियोंने
भी कभी उनके श्रेयको नही
स्वीकारा।
तो
आज भारतीय फॉण्ट-मार्केटकी
स्थिती यह है कि लीप-ऑफिस,
श्रीलिपी,
कृतिदेव
इत्यादि नामोंसे प्रत्येक
भारतीय लिपीके जो चालीस पचास
फॉण्टसेट्स भारतीय कंपनियोंके
पास उपलब्ध है वे इंटरनेटपर
जंक हो जाते हैं क्योंकि उनका
एनकोडिंग बीआयएस स्टॅण्डर्ड
या युनीकोडके अनुसार नही है।
और जिस मायक्रोसॉफ्ट या लीनक्स
ऑपरेटिंग सिस्टममें युनीकोडके
अनुरूप भारतीय भाषाई सॉफ्टवेयर
बनाया गया है,
उनके
पास दो-तीनसे
अधिक फॉण्ट उपलब्ध नही हैं।
इसका भारी नुकसान हमारी प्रकाशन
संस्थाओंको उठाना पडता है
क्योंकि फॉण्टफटीगसे बचने
और प्रकाशनकी सुंदरताके लिये
उन्हें कई फॉण्ट्सकी आवश्यकता
होती है।
यदि
गृहमंत्रालयको अपनी सारी
भाषाकों व लिपियोंको सम्मान
एवं उपयोगिता बनाये रखनी है
तो सीडॅकके पास जो लीप-ऑफिसके
फॉण्ट कचरेमें पडे हैं,
उन्हें
देशके लिये उपलब्ध कराया जा
सकता है। भाषाई प्रकाशन गतिमान
रहेगा तो भाषाई प्रगति भी
तेजीसे हो सकेगी।
लेकिन
उससे भी एक बडी व्यवस्था
गृहमंत्रालयको करनी होगी।
चूँकि सभी भारतीय लिपियोंकी
वर्णमाला एक ही है,
अतः
युनिकोड प्रणालीमें जहाँ आज
उन्हें अलग अलग खानेमें रख्वाया
गया है,
उसकी
बजाय एक ही खानेमें रखवाया
जाय। इससे सारी लिपीयोंमें
लिप्यंतरण करना सरल होगा और
एकात्मताके लिये वह भी बडा
संबल बनेगा। इसे एक उदाहरणसे
समझा जा सकता है। मान लो कि
गीता प्रेसने भगवद्गीताकी
संस्कृत आवृत्ति देवनागरीमें
बनाई तो उसे तत्कालही अन्य
लिपियोंमें भी बदला जा सकेगा।
दूसरा फायदा भी है – किसीभी
लिपीमें टाइप किया शब्द
गूगल-सर्चपर
सभी लिपियोंमें उपलब्ध होगा
और यह शोधप्रकल्पोंमें अतीव
उपयोगी रहेगा। ज्ञातव्य है
कि अरेबिक वर्णमालाके आधारपर
बनी सारी भाषाएँ युनीकोडने
एकत्रित रखी है अतः उनकी शीघ्र
लिप्यंतरण संभव है। इसी प्रकार
चीनी वर्णमालासे चलनेवाली
चीनी-
जपानी-
कोरियाई
लिपियाँ भी एक ही खानेमें है।
यही सुविधा भारतीय लिपियोंमें
होनी चाहिये जैसी लीप ऑफिसमें
थी। लेकिन इसके लिये गृहमंत्रालय
व युनीकोड कन्सोर्शियमके बीच
संवाद बनाना पडेगा।
प्रधान
मंत्रीने हालमें ही इंगित
किया है कि एक राज्यके स्कूली
बच्चोंको दूसरे किसी राज्यकी
भाषासे परिचित कराने के प्रयास
हों। इस दिशामें अहमदाबादके
एक प्रोफेसरकी बनाई साराणियोंका
उल्लेख औचित्यपूर्ण है। एक
बडे पोस्टर पर दस-
दस
शब्द संस्कृत,
हिंदी
सहित अलग-
अलग
भाषाओंमें,
उनकी
अपनी लिपी और देवनागरी लिपीके
साथ लिखकर ये सारणियाँ बनाई
हैं। ऐसे लगभग १५०० शब्द संकलित
किये हैं। ऐसे दस-
दस
पोस्टर स्कूलोमें लगाये जायें
तो स्वयमेव बच्चोंमें अपने
देशकी सभी भाषाओंके प्रति
परिचय,
अपनापन
और उत्कंठा बढेगी जो भाषाई
एकात्मताके लिये आवश्यक है।
दो
अन्य कार्यक्रम गृहमंत्रालयको
हाथमें लेने होंगे। एक है
भारतीय भाषाओंके लिये अच्छा
ओसीआर बनवाना ताकि भारतियोंके
पास सैकडों वर्षोंसे जमा पडे
हस्तलिखित व पुस्तकें पढकर
उन्हें डिजिटलाइज किया जा
सके। जो भारत चांदपर जा सकता
है वह एक अच्छा ओसीआर नही बना
सकता हो तो आजके वर्तमानमें
यह कोई सुखद बात नही कही जा
सकती।
भाषाई
एकात्मता बढाने हेतू एक भाषासे
दूसरी भाषामें भाषांतरका
कार्यक्रम हाथमें लेना पडेगा।
यह मानवी तरीकेसे और संगणकसे
दोनों प्रकारसे करना पडेगा।
इसके लिये अंग्रजीको माध्यम
भाषा बनानेका सीडॅकका पुराना
तरीका गलत था जिस कारण उन्हें
यह प्रोजेक्ट भी डंप करना पडा।
आज गूगल भी अंग्रेजीको ही
माध्यम बनाकर इसका प्रयास कर
रहा है। इसके स्थान पर हमारे
संगणक वैज्ञानिकोंको यदि
संसाधन उपलब्ध कराये जायें
और संस्कृतको माध्यम बनाते
हुए भाषांतर करवाया जाय तो
वह प्रयास तेजीसे सफल होंगे।
यह
बार बार कहा जा रहा है,
विशेषतया
देशके बडे वैज्ञानिकोंद्वारा
कहा जा रहा है कि जिन बच्चोंपर
छठकीं कक्षातक अंग्रेजीका
बोझ नही पड रहा वे मातृभाषाके
माध्यमसे पढाईमें अच्छी प्रगति
करते हैं। भविष्यकी आवश्यकताओंके
लिये कभी भी अंगरेजी सीखी जा
सकती है। लेकिन देशमें अमीरोंसे
आरंभकर गरीबोंतक यह भ्रम
फैलाया गया है कि अंग्रेजी
सीखकर व अंग्रेज बनकर ही हमारा
कल्याण हो सकता है। जो अंगरेज
न बने वह गँवार कहलाये और
अपमानित होता रहे। इस मानसिकताको
बदलनेके लिये देशके सभी
स्कूलोंमें छठवीतक अंग्रेजीको
हटाना और उस उस राज्यकी भाषाओंको
अनिवार्य करना ही एकमेव उपाय
है।
हमारे
देशमें लगभग पांच-सात
हजार बोलीभाषाएँ हैं और उनमें
रचा-बसा
मौखिक साहित्य हमारी एक बडी
धरोहर है। इसे तत्काल रूपसे
उस उस राज्यकी लिपियोंमें
लिखकर संरक्षित करनेकी योजना
बननी चाहिये। त्रिपुरा,
कोंकण,
असमकी
कुछ बोलियाोंपर हो रहे कामको
मैंने देखा है। एक एक अकेला
स्कॉलर इसे कर रहा होता है।
इन सबको गृहमंत्रालयकी ओरसे
प्रोत्साहन तथा आर्थिक सुविधा
देना आवश्यक है।
तत्काल
रूपसे सभी सरकारी कार्यालयोंमें
इनस्क्रिप्ट प्रणालीसे हिंदी
व भाषाई लेखनको बढावा देना
आवश्यक है। वरिष्ठोंको भी यह
प्रणाली सीखनी चाहिये। जो
रोमनागरी पद्धतीसे देवनागरी
लिखते हों उनसे यह आशा नही की
जा सकती कि वे भारतीय लिपियों
व भाषाओंपर गहराने वाले संकटको
या समाधानकी बारीकियोंको
समझें।
सरकारने
प्रायः सभी स्कूलोंमें संगणक
लॅब दिये हैे। सिद्धान्ततः
चौथीसे दसवीं कक्षातक संगणक
सीखनेकी सुविधा है। लेकिन
वस्तुस्थिति है कि प्रायः
सत्तर प्रतिशत बच्चे दसवींसे
पहलेही स्कूल छोड देते हैं।
उन्हें रोमन पद्धतिसे सिखाकर
क्या होगा – कमसे कम उनकी खातिर
तो इनस्क्रिप्ट पद्धतिसे
लेखन-टंकण
सिखानेका कार्यक्रम स्कूलोंमें
होना चाहिये। इसके लिये उनके
शिक्षकोंको भी तैयार किया
जाना चाहिये।
सारांशमें
कहना होगा कि यदि हम विश्व
बाजारमें भारतकी साखको सदा
वृद्धिंगत रखना चाहते हैं तो
हिंदीको राष्ट्रभाषा घोषित
करना सर्वोचित उपाय है।
गृहमंत्रीका नारा एक राष्ट्र,
एक
भाषा इस अर्थमें सही है कि
बाहरी देशोंके लिये हमारा
फॉर्म्युला वयं पंचाधिकं
शतं होना चहिये। यह वह सूत्र
है जो युधिष्ठिरने गंधर्वोंद्वारा
बंदी बनाये गये दुर्योधनको
छुडा लानेके लिये अन्य चार
पांडवोंसे कहा था कि हम सारे
कौरव एक सौ पांच है और परकीय
लोगोंके सम्मुख हमारी यही
पहचान होनी चाहिये। लेकिन
देशके अंतर्गत हम ध्यान रखना
होगा कि अन्य भाषाएं इसे अपनी
अस्मिताका संकट न समझें।
तकनिकीके सहारे उनके इस संशयको
दूर किया जा सकता है। यह तभी
संभव है तब गृहमंत्रालय,
डीओटी,
राजभाषा
आदि विभगोंके वरिष्ठतम अधिकारी
इन तकनीकी बारीकियोंको समझें,
उन
उन तकनीकोंको अपनायें और
आत्मसात करें। गृहमंत्रीके
लिये यह भी एक चुनौती होगी कि
उनके अधिकारियोंकी मानसिकताको
कैसे भाषाई एकताके पक्षमें
मोडा जा सकता है।
************************************************************
राष्ट्र की प्रगति के लिए हिन्दी की सर्वस्वीकार्यता आवश्यक
मनुष्य के जीवन की भाँति समाज और राष्ट्र का जीवन भी सतत विकासमान प्रक्रिया है । इसलिए जिस प्रकार मनुष्य अपने जीवन में सही-गलत निर्णय लेता हुआ लाभ-हानि के अवसर निर्मित करता है और सुख-दुख सहन करने को विवश होता है उसी प्रकार प्रत्येक समाज और राष्ट्र भी एक इकाई के रूप में अपने मार्गदर्शक-सिद्धांत और नीतियाँ निर्धारित करता हुआ लाभ-हानि का सामना करता है । मनुष्य और समाज दोनों को ही समय-समय पर अपनी नीतियों-रीतियों का उचित मूल्यांकन करते रहना चाहिए । हानि सहकर भी दुराग्रह पूर्वक एक ही लीक पर आँख मूंदकर निरंतर चलते रहना न तो व्यक्ति के हित में होता है और न ही समाज के । अतः पूर्व निर्धारित नीतियों और अतीत में किए गए कार्यों की समीक्षा करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो जाता है किंतु दुर्भाग्य से क्षेत्रीय स्तर पर निजी स्वार्थों की सिद्धि के लिए दल-हित-साधन की दलदल में धंसी भारतीय राजनीति के अनेक घटक अपनी भूलों में संशोधन करने को तत्पर ही नहीं हैं। जम्मू कश्मीर राज्य से संबंधित धारा 370 और 35-ए को हटाए जाने पर विपक्षी दलों की प्रतिक्रियाएं इस सत्य की साक्षी हैं। और अब गृहमंत्री श्री अमित शाह के ‘एक राष्ट्र एक भाषा‘ के वक्तव्य पर देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण विपक्षी राष्ट्रीय दल कांग्रेस सहित छः राज्यों के आठ क्षेत्रीय दलों की प्रतिक्रियाएं भी इसी ओर संकेत करती हैं।
यह आश्चर्यजनक किंतु दुखद सत्य है कि बीसवीं शताब्दी के छठे और सातवें दशक में जिस सत्तासीन राजनीतिक दल (कांग्रेस) ने बहुमत के सहारे मनमाने निर्णय लेते हुए अनेक ऐसे संविधान-संशोधन कर लिए जो संविधान की मूल-भावना के प्रतिकूल थे, अधिकांशत त्रुटिपूर्ण थे और देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए हानिकारक थे किंतु अब जबकि तत्कालीन कमजोर विपक्ष आज उसी बहुमत की शक्ति से शक्तिशाली होकर उन त्रासद- संशोधनों को पुनरीक्षित संशोधित करना चाहता है; कर रहा है तब उसी राजनीतिक दल के द्वारा विरोध किया जा रहा है । यह संतोष का विषय है कि उस दल के अनेक सदस्य भी देश हित को ध्यान में रखकर उदारतापूर्वक सत्तासीन विपक्षी दल के प्रयत्नों का समर्थन कर रहे हैं। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में नीतियों के परिष्कार-संशोधन के प्रति उनकी यह उदार स्वीकृति-सहमति स्पृहणीय है और हमारी स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा को दृढ़ आधार प्रदान करती है।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है हमारे संघीय ढांचे का आधार बहुमत है जिसमें बहुमत के समक्ष अल्पमत सदा अस्वीकृत होता है, जहां एक भी मत कम रह जाने पर सरकारें गिर जाती हैं ऐसी व्यवस्था के मध्य पूर्व में यह संविधान संशोधन किया जाना कि जब तक एक भी अहिंदी भाषी राज्य विरोध करेगा तब तक हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया जाएगा कहां तक न्याय संगत और लोकतांत्रिक था? एकमत के लिए बहुमत का तिरस्कार किया जाना कहाँ तक उचित था? यदि वर्तमान सरकार इस संदर्भ में त्रुटि सुधार करने के लिए कोई नया कदम उठाये तो निश्चय ही उसका स्वागत किया जाना चाहिए। ‘एक राष्ट्र एक भाषा’ का विचार उपर्युक्त त्रुटि के सुधार का संकेत है।
प्रत्येक राजनीतिक दल के अपने आग्रह, दुराग्रह और पूर्वाग्रह होते हैं। इन्हीं के आलोक में दल अपना राजनीतिक कार्यक्रम निश्चित करता है और चुनावी घोषणा पत्र तैयार करता है तथा सत्ता में आता है। केंद्रीय अथवा राज्यों में सत्ता-परिवर्तन की आधार भूमि इन्हीं बिंदुओं से निर्मित होती है और अलग-अलग दल सत्ता में आकर अपनी घोषणाओं – कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करते हैं। इस स्थिति में पक्ष-विपक्ष के संकल्पों – कार्यों में भिन्नता होना स्वाभाविक है। अपने घोषणा पत्र में दिए गए जिन वचनों के आधार पर कोई दल जनादेश प्राप्त कर सत्ता में आता है उन वचनों , संकल्पों और घोषणाओं का यथासंभव निर्वाह करना उस दल का कर्तव्य भी है और दायित्व भी। यदि सत्ता पक्ष इस कर्तव्य-दायित्व का निर्वाह करता है तो विपक्ष द्वारा इसके अकारण विरोध का क्या औचित्य है ? आखिर कोई भी विपक्ष सत्ता-पक्ष से यह आशा-अपेक्षा क्यों करता है कि सत्ता पक्ष उसकी बनाई लीक पर ही चलेगा अपनी नई रेखा नहीं खींचेगा? और यदि वर्तमान अथवा भविष्य की सरकारें समाज-विरोधी राष्ट्रीय-हितों के प्रतिकूल बनाई गई रूढ़ियों का ही परिपालन करती रहेंगी तो राष्ट्र की प्रगति और सुरक्षा कैसे संभव होगी?
विश्व के सभी संप्रभुता संपन्न देशों में एक राष्ट्रभाषा है। प्रत्येक देश में बहुत सी बोलियां बोली जाती हैं तथा स्थानीय स्तर पर दैनंदिन व्यवहार उन्हीं बोलियों और भाषाओं में संपन्न होता है और उन सबके मध्य से सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझी जाने वाली कोई एक भाषा सर्वस्वीकृत होकर राष्ट्रभाषा बन जाती है। भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य सभी राष्ट्रों में राष्ट्रभाषा के रूप में किसी एक भाषा का चयन सर्वथा सहज-स्वाभाविक है जबकि भारत जैसे संप्रभुता संपन्न विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में राष्ट्रभाषा की सर्वमान्य स्वीकृति स्वतंत्रता प्राप्ति के सत्तर वर्ष उपरांत आज भी प्रश्नांकित है; संकीर्ण क्षेत्रीयता परक मानसिकता की स्वार्थसाधिनी विघटनकारी राजनीति का शिकार है।
यह स्वतः सिद्ध है कि भारत ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई हिंदी भाषा के माध्यम से लड़ी। गुजरात , बंगाल, महाराष्ट्र जैसे बड़े-बड़े प्रांतों के सभी बड़े नेताओं ने हिंदी के माध्यम से देश का नेतृत्व किया और आज भी कर रहे हैं। महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं की राष्ट्रीय-लोकप्रियता हिंदी की ऋणी है। यदि गुजराती भाषी महात्मा गांधी केवल गुजराती भाषा तक ही स्वयं को सीमित रखते तो क्या संपूर्ण भारत को प्रभावित और प्रेरित कर सकते थे ? क्या गुजराती भाषी श्री नरेंद्र मोदी हिंदी का आश्रय लिए बिना देश में इतनी लोकप्रियता अर्जित कर सकते हैं ? तात्पर्य यह है कि इस विशाल देश के किसी भी भू-भाग में जनमें किसी भी व्यक्ति को यदि राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित होना है तो उसे देश में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली भाषा को सीखना और स्वीकार करना ही होगा। प्राचीन भारत में भारतवर्ष की सर्वाधिक व्यवहृत भाषा संस्कृत थी और आधुनिक भारत में संस्कृत के स्थान पर हिन्दी प्रतिष्ठित है। आठवीं शताब्दी में केरल में जन्मे मूलतः मलयालम भाषी शंकराचार्य संस्कृत की शक्ति से संयुक्त होकर देश की एकता और अखंडता की प्रतिष्ठा कर सके; संपूर्ण भारतवर्ष को सांस्कृतिक सूत्र में पिरो सके तथा बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में नेताओं ने हिंदी के माध्यम से राजनीतिक चेतना की अलख जगाकर देश को स्वतंत्रता दिलायी। उस समय हिंदी के विरोध में कहीं भी कोई स्वर मुखर नहीं हुआ। ‘उदंत मार्तंड‘ जैसा हिंदी का प्रथम समाचार पत्र बंगाल की धरती से प्रकाशित हुआ तो श्रद्धाराम फिल्लौरी जैसे हिंदी सेवी पंजाब की कोख से अस्तित्व में आए। महर्षि दयानंद ने हिंदी के माध्यम से अपने विचारों का आलोक प्रसारित किया तो महात्मा गांधी ने ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति‘ के माध्यम से सुदूर दक्षिण तक हिंदी का परचम लहराया।
यह तथ्य कितना आश्चर्यजनक है कि वर्तमान गृहमंत्री के वक्तव्य के विरुद्ध एक स्वर में लामबंद होने वाले ये विपक्षी दल महात्मागांधी को तो मानते हैं लेकिन महात्मागांधी की हिंदी के पक्ष में कही गई बातों को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। आखिर क्यों? क्या हिंदी के पक्ष में गांधीजी के संदेश असंगत, अनुचित और देश विरोधी हैं? यदि नहीं तो उन्हें स्वीकार करने में आपत्ति क्या है ? हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के संदर्भ में महात्मा गांधी का यह कथन विशेषतः रेखांकनीय है – ‘‘हिंदी को आप हिन्दी कहें या हिंदुस्तानी, मेरे लिए तो दोनों एक ही हैं। हमारा कर्तव्य यह है कि हम अपना राष्ट्रीय कार्य हिंदी भाषा में करें।‘‘ (भाषण: मुजफ्फरपुर में 11 नवंबर 1917, विश्व सूक्तिकोष-खंड 3, पृष्ठ 1317 पर उद्धृत, संपादक- डॉ श्याम बहादुर वर्मा, प्रकाशक -प्रभात प्रकाशन दिल्ली 110006 संस्करण प्रथम 1985)– महात्मा गांधी का यह सौ वर्ष पुराना संदेश उनके ही दल के झंडाबरदारों को क्यों समझ में नहीं आया- यह प्रश्न भी विचारणीय है ?
सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भारत प्राचीन काल से एक है। उत्तर में हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर केदारनाथ में प्रतिष्ठित भगवान भूतभावन शिव दक्षिण भारतीयों के भी उपास्य हैं और सुदूर दक्षिण में सागर तट पर संस्थित रामेश्वरम उत्तर भारतीयों के लिए भी पूज्य हैं। गंगोत्री से गंगा का जल लेकर श्रद्धालु रामेश्वरम पर अर्पित करते हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग और वावन शक्तिपीठों ने सहस्त्रों वर्षों से भारतवर्ष को जोड़ रखा है। हमारा ध्वज एक है, हमारी मुद्रा एक है, हमारा संविधान एक है, हमारे महापुरुष एक हैं, हमारे धार्मिक ग्रंथ एक हैं– सब कुछ एक सा है फिर भाषा के प्रश्न पर ही हम एक क्यों नहीं हैं ? देश में सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली हिंदी भाषा के प्रति हमारे विरोध का कारण क्या है ? यह समझ से परे है।
गृहमंत्री श्री अमित शाह ने हिंदी दिवस के अवसर पर दिल्ली में आयोजित एक समारोह में ‘एक राष्ट्र एक भाषा‘ का समर्थन किया है। यहाँ एक राष्ट्र में एक भाषा का आशय हिन्दी एतर अन्य भाषाओं की समाप्ति होता तो निश्चय ही यह स्वीकृति योग्य नहीं हो सकता था किंतु यदि देश की अन्य समस्त भाषाओं के मध्य राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर एक भाषा के चयन का प्रश्न हो तो यह सर्वथा स्वागत के योग्य ही है क्योंकि हमें विश्व के समक्ष अपनी बात रखने के लिए एक भारतीय भाषा अवश्य चाहिए। आखिर यह संप्रभुता संपन्न सुविशाल राष्ट्र कब तक विश्व-पटल पर अपनी बात किसी विदेशी भाषा में रखता रहेगा ? क्या अपने देशवासियों के समक्ष अपने देश की भाषा में अपनी बात रखना अथवा विश्व पटल पर किसी भारतीय भाषा में भारत का पक्ष रखना आत्मगौरव का विषय नहीं है? क्या यह उचित है कि हम जिन अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं उन्हीं की भाषा का जुआ आजादी के बाद भी गले में डाले रहें? स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने यदि देश और विश्व के स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं को उपेक्षित कर अंग्रेजी को वरीयता दी तो आज भी हम उसे ही अपना सिरमौर बनाए रहें? देश और विश्व के स्तर पर आज एक भारतीय भाषा की सर्वमान्य स्वीकृति की आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति भारत सरकार का कर्तव्य है। यह सुखद है कि वर्तमान सरकार इस दिशा में प्रयत्नरत है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटलबिहारी वाजपेयी की भाषानीति का आदर करते हुए वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी विश्वमंच पर हिंदी की प्रतिष्ठा हेतु प्रयत्नशील हैं। हिंदी विश्व-भाषा बनने की दिशा में अग्रसर है किंतु देश के अंदर हिन्दी विरोध के अविवेक पूर्ण स्वर अभी भी मुखर हैं। तमिलनाडु की द्रमुक, डीएमके और अन्नाद्रमुक आदि दलों के नेताओं ने कहा है कि उन्हें हिन्दी स्वीकार नहीं है। तमिलनाडु के ही एमडीएमके चीफ वाईको ने धमकी दी है कि भारत में अगर हिन्दी थोपी गई तो देश बंट जाएगा। पुददु चेरी के मुख्यमंत्री नारायण स्वामी ने भी गृहमंत्री के वक्तव्य का सशक्त विरोध किया है । पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सहित वहाँ केे वामपंथी दल भी हिंदी के विरुद्ध विष-वमन कर रहे हैं। कर्नाटक, केरल और तेलंगाना के क्षेत्रीय दल भी हिंदी के विरोध में हैं जबकि हिंदी के विरोध का कोई ठोस कारण इनमें से किसी के पास नहीं है। यह दुखद है कि ये राज्य विदेशी भाषा अंग्रेजी का कभी विरोध नहीं करते। अंग्रेजी की दासता का मुकुट धारण करने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है किंतु हिंदी की स्वदेशी पगड़ी पहनना इन्हें स्वीकार नहीं। इन्हें अंग्रेजी से भय नहीं है अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व से इन्हें अपनी क्षेत्रीय भाषाओं की प्रगति में कोई बाधा नजर नहीं आती। अंग्रेजी सीखने को यह अंग्रेजी का थोपा जाना नहीं मानते किंतु हिंदी सीखने को यह हिंदी का थोपा जाना मानते हैं उसका विरोध करते हैं। यह विरोध वाणिज्यिक, शैक्षणिक साहित्यिक तकनीकी आदि क्षेत्रों में नहीं है केवल राजनीतिक क्षेत्र में राजनेताओं की कुटिल बुद्धि की उपज है। भारतीय संविधान की दुहाई देने वाले इन हिंदी विरोधी राजनेताओं के भड़काऊ बयान देश की एकता और अखंडता के लिए घातक हैं।
हिंदी की प्रतिष्ठा का अर्थ क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व कम होना नहीं है। यह विचारणीय है कि जब अंग्रेजी उत्तर और दक्षिण के मध्य सेतु बन सकती है तो हिन्दी यह कार्य क्यों नहीं कर सकती? जब शासकीय कार्यों में अंग्रेजी के अबाध उपयोग से क्षेत्रीय भाषाओं की कोई हानि नहीं मानी जा रही तो हिंदी के बढ़ते उपयोग से उनको क्या खतरा हो सकता है? अहिंदी भाषी राज्यों के जो नेता हिंदी के विरोध में हर समय ताल ठोंकते रहते हैं, इतने नादान नहीं हैं कि उपर्युक्त तथ्यों से अनभिज्ञ हांे तथापि वे क्षेत्रीय जनमानस को भ्रमित कर, उसमें हिंदी के विरुद्ध कृत्रिम भय निर्मित कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने में व्यस्त हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ना केवल हिन्दी अपितु समस्त भारतीय भाषाओं के लिए अहितकर है। इस विषव्याधि का रामबाण उपचार केंद्रीय स्तर पर अंग्रेजी के वर्चस्व को हतोत्साहित कर उसके स्थान पर हिंदी को संस्थापित करना है। जब तक केंद्र में अंग्रेजी राजरानी बनी रहेगी तब तक हिन्दी शासन एवं संवैधानिक स्तर पर ना उत्तर में उचित सम्मान पा सकेगी और ना दक्षिण में उसकी स्वीकार्यता बढ़ पाएगी। यह अलग बात है कि शासन द्वारा विभिन्न स्तरों पर उपेक्षित होने के बावजूद हिन्दी अपनी शक्ति से विश्व स्तर पर निरंतर प्रतिष्ठित होगी। हिन्दी स्वयंप्रभा है। वह सत्ता की नहीं जनता की भाषा है और व्यापक जनसमर्थन से संपन्न है। अहिंदी भाषी राज्यों के हिंदी विरोधी तथाकथित राजनेताओं के दुराग्रह पूर्ण भाषण भले ही उनके थोड़े से क्षेत्र में हिंदी के प्रसार की गति धीमी कर लें किंतु विश्व-स्तर पर उसके बढ़ते पगो को थामने की सामर्थ्य उनमें नहीं है।
कैसी दुर्भाग्यपूर्ण विचित्र मानसिकता है जो एक ओर वैश्वीकरण के नाम पर हर विदेशी भाव, विषय, वस्तु आदि को स्वीकार करने के लिए सहर्ष प्रस्तुत है किंतु दूसरी ओर अपने ही देश की प्रमुखतम भाषा हिन्दी को स्वीकार करने से परहेज करती है! कैसी विडंबना है कि विदेशों में हिंदी का वर्चस्व बढ़ रहा है जबकि देश के अंदर एक वर्ग उसकी प्रगति में अवरोध उत्पन्न करने में व्यस्त है!
गृहमंत्री श्री अमित शाह के हिंदी के पक्ष में प्रस्तुत वक्तव्य–‘भारत’ विभिन्न भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है मगर पूरे देश की एक भाषा होना अत्यंत आवश्यक है जो विश्व में भारत की पहचान बने। आज देश को एकता की डोर में बांधने का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है तो वह सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है।‘– का विरोध करने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अन्य नेताओं को नेताजी सुभाष चंद्र बोस का यह कथन स्मरण रखना चाहिए कि ‘हिंदी के विरोध का कोई भी आंदोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।‘ अतः
राष्ट्र की प्रगति के लिए हिन्दी की सर्वस्वीकार्यता आवश्यक है।
‘‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’’- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह
कथन विगत डेढ़ सौ वर्षों से निज भाषा की स्वीकार्यता का समर्थन कर रहा है। राज्य एवं क्षेत्रीय स्तर पर स्थानीय भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा ही निज
भाषा की उन्नति है और उनके साथसाथ राष्ट्र स्तर पर निज भाषा के रूप में
हिन्दी की स्वीकार्यता आज की आवश्यकता है।