ऊर्दू केवल मुसलमानोंकी भाषा नही है
लेखक डा. अमरनाथ, कोलकात्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.
इधर उर्दूको मुसलमानोंकी भाषाके रूपमें रेखांकित करनेका चलन बढा है । यह गलत अवधारणा है। कोई भी भाषा किसी खास
मजहब की नहीं होती. हर भाषा किसी न किसी जाति ( कौम) की होती है. उर्दू भी सिर्फ मुसलमानों की भाषा नहीं है. यदि वह सिर्फ मुसलमानों की भाषा होती तो बंगलादेश ( तब के पूर्वी पाकिस्तान ) के मुसलमान उर्दू के खिलाफ और बंगला के पक्ष में शानदार कुर्बानियां क्यों देते ? उन्हीं की याद में 21 फरवरी को सारी दुनिया मातृभाषा दिवस के रूप में मनाती है. जिस उर्दू को लोग मुसलमानों की भाषा कह रहे है उसे मुंशी प्रेमचंद, ब्रजनारायण चकबस्त, रघुपतिसहाय फिराक, रतननाथ सरसार, कृश्न चंदर, गोपीचंद नारंग, शीन काफ निजाम, रामलाल, जोगिन्दर पाल, देवेन्द्र इस्सर, बलराज कोमल, रतन सिंह, कन्हैयालाल कपूर, दिलीप सिंह, नरेन्द्र लूथर, बलराज मैनरा, सुरेन्द्र प्रकाश जैसे अनेक हिन्दू साहित्यकारों ने अपना जीवन देकर समृद्ध किया है. महान साहित्यकार, चाहे जिस किसी भाषा का हो, कभी भी साम्प्रदायिक नहीं होता. मुसलमानों के नबी पर हिन्दू कवियों की कविता मुश्किल से देखने को मिलेगी किन्तु उर्दू के मुस्लिम कवियों के साहित्य पर यदि एक नजर दौड़ाएं तो दर्जनों कवि सिर्फ कृष्ण लीला का गान करते मिल जाएंगे. रहीम (अब्दुर्रहीम खानखाना) ने लिखा है, “जिमि रहीम मन आपुनो कीन्हों चतुर चकोर, निसि वासर लाग्यों रहे कृष्ण चंद्र की ओर.” मुस्लिम कवयित्री ताज तो कृष्ण के प्रेम में इतनी दीवानी हैं कि कलमा कुरान सब छोड़कर हिन्दू बनने को लालायित हैं, “देवपूजा ठानी, मैं नमाज हूँ भुलानी, तजे कलमा कुरानी सारे गुनन गहूँगी मैं. नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै, मैं तो मुगलानी हिन्दुआनी ह्वै रहूँगी मैं.” होली, दीवाली, महादेव जी के ब्याह और कन्हैया जी के जन्म पर कविताएं लिखने वाले नजीर अकबराबादी क्या सांप्रदायिक कवि हैं? उन्होंने सिर्फ होली पर 26 कविताएं रची हैं. कन्हैया जी की लीलाओं का उन्होंने इन शब्दों में चित्रण किया है- “तारीफ करूँ अब मैं क्या-क्या उस मुरली अधर बजैया की, नित सेवा कुँज फिरैया की और बन-बन गऊ चरैय्या की. गोपाल बिहारी बनवारी दुखहरन नेह करैया की, गिरधारी सुन्दर स्यामबरन और हलधर जू के भैया की, यह लीला है उस उस नंद ललन मनमोहन जसुमति छैया की रख ध्यान सुनौ दंडौत करौ जै बोलो किशन कन्हैया की.“ उर्दू कविता की प्रगतिशीलता और हमारी जातीय संस्कृति पर यदि ठीक से शोध कार्य हो तो वह हमारी आंखें खोलने वाला साबित होगा. समूचा उर्दू साहित्य कृष्ण भक्ति और कृष्ण लीला गान की परंपरा से भरा पड़ा है. सागर निजामी, एहसान बिन दानिश, नजीर बनारसी, अख्तर शीरानी, जोश मलीहाबादी, हामिद उल्लाह हमसफर, अर्श मलस्यानी, ब्रजनारायण चकबस्त, हाफिज जालंधरी, अकबर सोहानी, अब्दुल असर जालंधरी, अशरफ महमूद, मौलाना आजाद अजीमाबादी, आशिक हुसैन, ईंशा अल्लाह खां, गुलाम मुस्तफा अली खां, मौलाना जफर अली खां, अख्तर शीरानी आदि अनेक कवि हैं जिनके काव्य का विषय कृष्ण चरित्र है. हाफिज जालंधरी लिखते हैं, “दुनिया से निराला, यह बांसुरी वाला, गोकुल का ग्वाला वह गोपियों के साथ, हाथ में दिए हाथ, रक्शां हुआ ब्रजनाथ आजा मेरे काले, भारत के उजाले, दामन में छुपा ले ऐ हिन्द के राजा, इक बार तूं आजा दुख दर्द मिटा जा.” जोश मलीहाबादी की ‘मुरली’ नामक कविता की कुछ पंक्तियां देखिए “यह किनने बजाई मुरलिया हिरदे में बदरी छाई. गोकुल बन में बरसा रंग बाजा घर घर में मृदंग खुद से खुला हर एक जुड़ा हर एक गोपी मुस्कराई” शाह अजीमाबादी की कविता ‘जमुना की लहरें उठती हैं’ की चंद पंक्तियां द्रष्टव्य हैं, “शीशे से भी नाजुक लहरों पर कितनी परछाईं पड़ती है. जब ताज महल कुछ कहता है, मुमताज की सूरत हंसती है. गीता की हंसी ख्वाबों से परे घनश्यामी बंशी बजती है जमुना का लहरें उठती हैं, कुछ कहती हैं, कुछ गाती हैं.” फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, फैज अहमद फैज, अली सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी, अहसान दानिश, कैफी आजमी, निदा फाजली और जावेद अख्तर जैसे प्रगतिशील और हिन्दी जाति की सामासिक संस्कृति को पुख्ता करने में अपनी समूची जिन्दगी समर्पित कर देने वाले साहित्यकारों को माइनारिटी का कवि भला कैसे कहेंगे ?. ‘’हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा.’’ का तराना छेड़ने वाले डॉ. इकबाल क्या सिर्फ एक मुसलमान हैं ?राजनीति ने हमें वह दिन देखने को मजबूर कर दिया है कि आज तुलसी और निराला को पढ़ने वाला विद्यार्थी मिर्जा गॉलिब, फिराक और नजीर अकबरावादी को नहीं पढ़ सकता जबकि ये सभी एक ही जाति, हिन्दी (हिन्दुस्तानी) जाति के कवि हैं? हम एक दूसरे को जानेंगे नहीं तो भला आपस में प्रेम कैसे करेंगे. बाबा तुलसी दास ने भी तो कहा है, “जाने बिनु न होंहि परतीती / बिनु परतीति होहिं नहिं प्रीती.” जिसे हम हिन्दी सिनेमा कहते हैं उसे हिन्दी और उर्दू दोनो शैलियों के लेखकों का सहयोग मिलता रहा है. यह अकारण नहीं है कि मशहूर फिल्म ‘मुगले आजम’ के निर्माता निर्देशक ने सेंसर बोर्ड से अपनी फिल्म के लिए हिन्दी नाम का सर्टिफिकेट हासिल करना उचित समझा. हम कहते तो हैं ‘हिन्दी सिनेमा’, किन्तु उसकी आधी से अधिक पांडुलिपिया उर्दू लिपि में रहती हैं. हिन्दी फिल्मों में गाए जाने वाले गीतों में से लगभग तीन चौथाई गीत मुसलमानों के घर में जन्म लेने वाले और तथाकथित उर्दू कवियों द्वारा रचे गए होते हैं. गुलशन बावरा, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी, कमाल अमरोही, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, गुलजार, जावेद अख्तर और निदा फाजली तक अधिंकांश बड़े गीतकार उर्दू के हैं किन्तु न तो उनके गीतों को ‘उर्दू गीत’ कहा जाता है और न तो उनकी फिल्मों को हम ‘उर्दू फिल्में’ कहते हैं .प्रख्यात धारावाहिक महाभारत की पटकथा तो राही मासूम रजा नाम के एक उर्दू साहित्यकार ने लिखी है और घोषित किया है कि “मैं गंगा का बेटा हूं. मुझसे ज्यादा हिन्दुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कौन जानता है. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय खोलने वाले पं. मदनमोहन मालवीय और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी खोलने वाले मुस्लिम नेता सर सैयद अहमद खाँ की तुलना करते हुए अकबर इलाहाबादी ने लिखा है, “हजार शेख ने दाढ़ी बढ़ाई सन की सी / मगर वो बात कहां मालवी मदन की सी.” हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे जैसे ही एक कट्टर हिन्दू ने जब महात्मा गांधी की हत्या की, तो बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के एक मुसलमान कवि नजीर बनारसी का दर्द छलक उठा और उसने कहा था, “जमीं वालों ने तेरी कद्र जब कम की मेरे बापू! जमीं से ले गए तुमको उठाकर आसमां वाले.“तात्पर्य यह कि भाषा का संबंध कभी भी मजहब से नहीं होता और उर्दू भी सिर्फ मुसलमानों की भाषा नहीं है.
सोमवार, 24 फ़रवरी 2020
शनिवार, 15 फ़रवरी 2020
Devnagari -- the Script of World
Rajan Menon writes --vajradanta5@gmail.com
It would be interesting to know why India is not in the forefront of linguistics. I would assume that this was an area where Indians would naturally excel given its rich heritage of Sanskrit.
To give an example- there is what is called an International phonetic system. It is a rather pathetic attempt to try and fit the Roman alphabetic system into a phonetic system as it is in Sanskrit. Why not just use an expanded devanagri system instead of trying to fit a round peg in a square hole as happens when Roman alphabets are used for the international phonetic system.
What is the status of linguistics in India? How does it fare in comparison to what is happening in the rest of the world?
Variants of the Sanskrit based phonetic systems are used in Thailand, Burma(?), Cambodia, maybe Laos, and traditional Indonesian. There may be more. This is an area that is almost 1 billion people. India taking the lead in this would benefit this population group and would be a great soft power asset for India.
Why not a devnagri/Sanskrit based computer programming system. Given its logical structures etc. I would imagine that it would be a much better way for computer programming than Roman/English based system. Has anyone looked into this? Imagine what would happen if it was shown that a devnagri system would always be 50% faster than a comparable Roman based programming language.
In any case, given that India has billion plus population it makes sense to start computing based on the Sanskrit language template since it is the common language of this region. As long as computing is done in Roman it will always be an obstacle and handicap for the majority of Indians.
Raja sekhar writes royaldeccan99@gmail.com
I would like to present my perspective on this topic based on my upbringing in a South Indian language exposed to regular practices in Hindu rituals.
First we have to go to the origins on Sanskrit and linguistics. Sanskrit originated before linguistics evolved and was used as 1 for communication ,administration and education 2 for science and knowledge 3 for unseen and invisible spiritual Vedic practices.Unfortunately the secular India and westernised Hindus treat Sanskrit as corona virus.
From oral practices, Sanskrit moved to utilise linguistics to pass it down the generations. Sanskrit is like a satellite and linguistics are like a rocket launch vehicle. At present two scripts devnagiri and Telugu are perfectly compatable to Sanskrit propagating above item 3.Regarding item 1 and item 2 practices ,multiple languages using various scripts are used all over the world.
What is used in in Sri Lanka, Burma, Thailand, Cambodia is not variant of Sanskrit but variant of Pali script, and Telugu belongs to this family. Fundamentally item 3 of Sanskrit is evolved from swaras ie sounds and there is only one variant which is in practices in all Vedic schools. These swaras evolved from 7 chakras in our virtual body. NO script outside India is compatable to item 3 .
Present day keyboards have both Devanagari and Telugu scripts and item 3 practices of Sanskrit are in practice today. Why the west is keen to penetrate Sanskrit ? Not to buy a ticket to heaven but To unlock the scientific knowledge hidden inside Sanskrit slokas. Our ancient Rishis used Sanskrit slokas to quantify and describe scientific events. Numerals subsequently evolved to quantify these events. Only one publishing house, Banarasidas in Delhi is translating the slokas knowledge into English with numerals that too out of passion.
German universities are breaking their heads to recruit engineers and academicians having Sanskrit back ground to unlock intrinsic meaning and hidden knowledge in slokas. AVATAAR movie is event from 1 of the 8 siddics powers ie parakaya pravesh ie migration of aathma from one body to another. LUCY, a brilliant movie gives a scientific analysis as to what happens when humans use more than their brains rated 10% capacity. One can see past and have immortality with virtual body. This is what is stated by our Rishis which is linked to kundalini Shakti.
All I can say is west knows more about India and Sanskrit and westernised Hindus are groping in the dark. Shri RM is the only witness to this.
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