हिंदी
पखवाड़े में एक प्रश्न बार-बार
उठता है कि क्या हिंदी कोई
मौलिक भाषा है? कितनी
प्राचीन या कितनी नूतन है?
चूँकि
इससे अधिक प्राचीन भाषाएं
हैं, तो
उनकी तुलनामें हिंदीकी महत्ता
कम हो जाती है, इत्यादि।
साथ ही यह प्रश्न उठता है कि
मैथिलीको हिंदीसे अलग करके
एक प्रमुख भारतीय भाषाके
रूपमें संविधानकी आठवीं
अनुसूचीमें क्यों समाविष्ट
किया गया? यदि
इसी प्रकार भोजपुरीकी मांगको
भी हम समर्थन देंगे तो इससे
हिंदीका बहुत अधिक नुकसान
होने वाला है क्योंकि फिर
अवधी, ब्रज,
बुंदेली,
छत्तीसगढ़ी,
झारखंडी इत्यादि
भाषाएं भी अपने लिए स्वतंत्र
भाषाकी श्रेणी चाहेंगी और इस
प्रकार हिंदीकी जनसंख्या
घटती चली जाएगी ।
दूसरी ओर इन भाषाओंके बोलनेवाले
अपनी अपनी अस्मिताको अधिकाधिक
सम्मान देनेका मुद्दा
बताते हैं। उनमेंसे कुछ
इसका राजनीतिक लाभ भी
देखते हैं और उस लाभकी चाहतसे
इस प्रकारके स्वतंत्र श्रेणीकी
मांग उठाते रहे हैं।
आगे भी उठाते रहेंगे।
इस मांगको हम रोक नहीं सकते,
और यह
दुख भी हिंदीके पक्षधरोंको
सालता है।
मेरे विचारमें हमने प्रश्नको ही गलत तराकेसे समझा है। ५ हिंदी बोलनेवालोंमेंसे १ कहे कि मैं तो भोजपुरीका पक्षधर या भोजपुरीभाषी हूँ तो इससे किसको क्या लाभ और क्या हानि होती है इसकी विवेचना पहले आवश्यक है। भारत एक विशाल देश है। अति विशालताके कारण निश्चित रूपसे हमें कई प्रकारके लाभ मिलते रहे हैं और आगे भी मिलते रहेंगे। इसलिए भारतमें टुकड़े गँग हमारे लिए अत्यंत संकटकी बात होगी, इस बातको शायद हम सभी भलीभाँति समझते हैं। लेकिन जब भाषाका मुद्दा उठता है तब हमारी बुद्धि विलोपित हो जाती है। हम आज तक यह सम्यक् आकलन नहीं कर पाए हैं और ना ही जनमानसको समझा पाए हैं कि एक पूरे राष्ट्रकी १४० करोड़ जनसंख्याकी एक राष्ट्रभाषा घोषित होनेसे अंतरराष्ट्रीय व्यवहारोंमें हमारा पक्ष कितना अधिक प्रभावी हो जाता है।
हमारे लिये विचारणीय प्रश्न यह होना चाहिये कि हिंदीके समर्थनमें प्रचंड जनसंख्या खडी करनेके अंतर्राष्ट्रीय लाभ क्या हैं और उनका उपयोग कर पानेके लिये हमारे पास क्या क्या पर्याय हैं। लाभ गिनाने हों तो चीन और उनकी भाषा मंडारिनकी ओर हमें देखना चाहिये जो संख्यााबलके मुद्देपर आज अंगरेजीको भी मात देती है। हिंदी भी दे सकती है। लेकिन हिंदीके पक्षधरोंको समझना पडेगा कि कन्नड, मराठी, असमिया इत्यादिकी अस्मिता बचाये बिना, बल्कि अवधी, ब्रज, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, झारखंडी इत्यादिकी अस्मिताके बिना हिंदीको समर्थन नही मिलनेवाला। और यदि इन सारी भाषाओंके साथ हम हिंदीको एकात्म भावसे जोडते हैं तो हिंदीकी समृद्धि अधिक तीव्र गतिसे होगी।
लेकिन इसके लिये हमें सरकारी तंत्रकी कुछ परिभाषाओंको बदलना होगा। मेरे सम्मुख हर जनगणनाके समय यह संकट खडा हो जाता है। मैं हिंदी, मराठी, बंगाली, भोजपुरी और मैथिली भलीभाँति लिख-पढ-बोल लेती हूँ। उनके प्रति प्रेम व मालिकाना भाव रखती हूँ। जब जनगणना क्लर्क मुझे कहता है कि आप केवल अपनी मातृभाषाका नाम लिखवाइये, तो मुझे दर्द होता है कि यदि मैं किसी भी एक भाषाका नाम लिखूँ तो अन्य भाषाओंका संख्याबल बढानेमें मेरा कोई सहभाग मंजूर नही किया जाता है। तो यह नियमावली किसने बनाई कि जनगणनामें केवल मातृभाषाको ही पूछा जाय। इसके स्थानपर यदि पूछा जाय कि आपको ज्ञात हों ऐसी पांच भारतीय भाषाओंको आप लिखवाइये तो हमारे राष्ट्र और भाषाई एकात्मताको बहुत अधिक संबल मिलेगा। और मेरा भी उत्साहवर्धन होगा कि मैं इन भाषाओंकी समृद्धिमें अधिक योगदान दे सकूँ। लेकिन हिंदीके पक्षधर इस प्रकारके तकनीकी मुद्दे या तो समझते नही हैं या उठाते नही हैं।
मुझे स्मरण आता है एक मराठी प्रकाशक और गुजराती लेखकका संवाद जिसमें गुजराती लेखकने दुख व्यक्त किया कि मराठी साहित्य गुजराती अनुवाद तो बडे पैमानेपर हुआ है लेकिन कितने मराठीभाषी गर्व और प्रेमसे कह सकते हैं कि उन्होंने अमुक अमुक गुजराती लेखकको पढा है। उसी प्रकार मैं पूछना चाहती हूँ कि कितने हिंदी साहित्यिक गर्व और प्रेमपूर्वक कह सकते हैं कि उन्होंने तमिल या गोरखाली या मणिपुरी साहित्यको पढा है, सराहा है, जिया है? हम न भूलें कि हर छोटीसे छोटी भाषाका साहित्य भी उस भौगोलिक क्षेत्रके संचित ज्ञान व इतिहासका संवाहक होता है। अतः जब तक हिंदीका रोना रोनेवाले अपना हृदयाकाश विस्तृत नही करते और हर छोटीसे छोटी बोलीभाषाकी रक्षाके समर्थनमें नही खडे होते तबतक हिंदीको राष्ट्रभाषा घोषित कर पाना और अंतर्राष्ट्रीय स्तरपर एक अस्मितायुक्त राष्ट्र कहलवाना असंभव है। तबतक अंतर्राष्ट्रीय व्यवहारमें हम अंगरेजी भाषाके गुलाम राष्ट्र ही माने जायेंगे।