हमारे मित्र प्रियंकर पालीवाल बताते हैं कि जस्टिस शारदा चरण मित्र ने देश की स्वाधीनता और एकीकरण हेतु 1905 में एक लिपि विस्तार परिषद की स्थापना की थी . 1907 में संस्था की पत्रिका 'देवनागर' के द्वारा एक लिपि विस्तार की अलख जगाई थी ।
और मैं भी यही कहना चाहती हूँ कि ये अलग अलग वर्णाकृतियाँ (यथा -- बंगाली, कानडी, गुजराती ) ये कोई अबूझ पहेलियाँ थोडे ही हैंं, ये हैं बस भिन्न भिन्न कॅलीग्राफ्री, जो हमारी वर्णमाला के लिये अलग अलग गहनोंकी तरह हैं। हमें बस इतना ही करना है कि इन्हें ""एक क्लिकसे ही "" एक वर्णाकृतिसे दूसरीमें बदलनेका तंत्रज्ञान विकसित करना होगा (जो श्रीश बैंजल या अनुनाद सिंह जैसे कुछ लोग प्रयास कर भी रहे हैं) । फिर भाषाएँ भी धडल्लेसे पढी जा सकेंगी और भाषाई दूरियाँ मिटती चलेंगी ।(क्या कोई और भी इस सपनेको पाल रहा है ??) । वैसे पालीवालजी, उस लिपि विस्तार परिषदका भी थोडा इतिहास लिख डालिये। हमें भी प्रोत्साहन मिलेगा कि हम कितने ऊँचे लोगोंके कंधेपर खडे हैं और कितनी दूरतक देख सकते हैं।
और मैं भी यही कहना चाहती हूँ कि ये अलग अलग वर्णाकृतियाँ (यथा -- बंगाली, कानडी, गुजराती ) ये कोई अबूझ पहेलियाँ थोडे ही हैंं, ये हैं बस भिन्न भिन्न कॅलीग्राफ्री, जो हमारी वर्णमाला के लिये अलग अलग गहनोंकी तरह हैं। हमें बस इतना ही करना है कि इन्हें ""एक क्लिकसे ही "" एक वर्णाकृतिसे दूसरीमें बदलनेका तंत्रज्ञान विकसित करना होगा (जो श्रीश बैंजल या अनुनाद सिंह जैसे कुछ लोग प्रयास कर भी रहे हैं) । फिर भाषाएँ भी धडल्लेसे पढी जा सकेंगी और भाषाई दूरियाँ मिटती चलेंगी ।(क्या कोई और भी इस सपनेको पाल रहा है ??) । वैसे पालीवालजी, उस लिपि विस्तार परिषदका भी थोडा इतिहास लिख डालिये। हमें भी प्रोत्साहन मिलेगा कि हम कितने ऊँचे लोगोंके कंधेपर खडे हैं और कितनी दूरतक देख सकते हैं।
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किसी जमानेमें रेमिंग्टन ही मान्य था -- एक तो कई लोग टाइपराइटर पर सीखकर आते थे, दूसरा परीक्षकोंका कन्फ्यूजन ये था कि संगणकपर परीक्षार्थी बॅकस्पेस दबाकर भूलसुधार कर लेंगे तो क्या होगा । मैंने मराठी-विकास-सचिव के नाते 2007 में तीन बदलाव किये -- परीक्षार्थी को संगणक/टाइपराइटर मुहैया कराया --जो पहले उन्हें लाना पडता था, परीक्षामें दोनों लेआउटोंका ऑप्शन रखा। परीक्षकोंको समझाया कि संगणकवालोंकी जाँच स्पीडके आधारपर होगी क्योंकि जिसे बारबार गलती-सुधार-हेतु बॅकस्पेस का प्रयोग करना पडे वह स्पीडमें मात खायेगा, घोषणा कर दी कि अगले 1 वर्ष पश्चात् टाइपराइटरका ऑप्शन रद्द होगा। बाद में 2011 में मैसूर स्थित सरकारी संस्थान ने, 2012 में महाराष्ट्र के आयटी सचिवने और अब सुना है कि 2013 से दिल्ली स्थित विभागने यही नीति अपनाई है।
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जो जानते हैं भारतीय भाषाओंकी समृद्धि और गौरव, जो उससे लाभ उठा रहे हैं और जो उन्हें बढाने में अपना योगदान कर रहे हैं, इन तीनों श्रेणियों में से अत्यल्प संख्यामें लोग इस बातको समझ रहे हैं कि भाषाओंकी नींव तो कुतरी जा रही है, खोखली हो रही है। आगेके जमानेमें कम्प्यूटर छाया रहेगा और अंग्रेजीभी। दोनोंसे बैर नही कर सकते। केवल इतना कर सकते हैं कि भारतीय लिपियोंकोभी कम्प्यूटर पर उतनीही सरलता और बहुलतासे प्रस्थापित करो, जितनी सरलता व बहुलतासे अंग्रेजी प्रस्थापित है। आप भारतके किसीभी कोनेसे हों, कोई भी भाषा बोलते हों, कोई भी लिपी लिखते हों, नींव सबकी खोखली हो रही है और बचनेका तरीका सबके लिये एक जैसा है। अतः सारी भाषाओंके पण्डित एकत्र हों, सं गच्छध्वं, सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम् जैसे श्रुति-आदेश का पालन करें और एकात्मभावसे इस काम में लग जायें -- तभी बचेगी नींव और तभी टिकेगा भाषा-वैभव।
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