गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

भारत भाषा-प्रहरी : डॉ. परमानंद पांचाल

 भारत भाषा-प्रहरी : डॉ. परमानंद पांचाल

हिंदी और भारतीय भाषाओं को उतना नुकसान अंग्रेजों ने नहीं पहुंचाया जितना कि आजादी के बाद काले अंग्रेजों ने पहुंचाया। वे जिन्होंने जाने-अनजाने उच्च-  शिक्षा, रोजगार  और व्यापार-व्यवसाय व देश के तंत्र को अंग्रेजीकरण की ओर धकेला । इसी के चलते धीरे-धीरे शिक्षा का अंग्रेजीकरण हुआ और भारतीय  भाषाएँ हाशिए पर जाती चली गईं।
      हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं को एक बड़ा झटका तब लगा जब लिपियों पर हमला प्रारंभ हुआ। लिपि के माध्यम से भारतीय भाषाओं पर यह हमला  शायद पहले के  हमलों के मुकाबले  अधिक घातक था चूंकि इसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां सदा - सदा के लिए अपनी भाषा से कट जाती हैं। अंग्रेजी  माध्यम के स्कूलों के साथ-साथ  देवनागरी सहित भारतीय लिपियों के लिए प्रौद्योगिकी-सुविधा की कमी आदि कारण तो थे ही इसके अतिरिक्त  अंग्रेजीपरस्तों की सुविधा और हिंदी के क्षेत्र में उनका वर्चस्व  भी इसका एक महत्वपुर्ण कारक बन रहा है। प्रबंधन में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका के चलते हिंदी के  पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों में भी हिंदी के लिए रोमन लिपि प्रचलन में आने  लगी है। गोवा जहाँ की भाषा कोंकणी और लिपि देवनागरी है, वहाँ तो एक वर्ग पहले से  ही कोंकणी के लिए रोमन लिपि की माँग करता रहा है । इस वातावरण से रोमन लिपि  के ऐसे समर्थकों को भी काफी मदद मिली।  इधर चेतन भगत जैसे  अंग्रेजी लेखक भी मौका देख देवनागरी लिपि, जो हिंदी सहित अनेक भारतीय भाषाओं की लिपि है, के  खिलाफ या यूँ कहें रोमन के पक्ष में उतर आए ।
      ऐसे में जबकि ज्यादातर साहित्यकार मौन साधे थे तब जिन लोगों ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन के प्रयोग को थोपने के खिलाफ आवाज बुलन्द की उनमें एक प्रमुख  नाम था डॉ परमानन्द पांचाल ।  हिंदी और भारतीय भाषाओं को उतना नुकसान अंग्रेजों ने नहीं पहुंचाया जितना कि आजादी के बाद काले अंग्रेजों ने पहुंचाया। वे जिन्होंने जाने-अनजाने उच्च-शिक्षा, रोजगार  और व्यापार-व्यवसाय व देश के तंत्र को अंग्रेजीकरण की ओर धकेला । इसी के चलते धीरे-धीरे शिक्षा का अंग्रेजीकरण हुआ और भारतीय भाषाएँ हाशिए पर जाती चली गईं।
      हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं को एक बड़ा झटका तब लगा जब लिपियों पर हमला प्रारंभ हुआ। लिपि के माध्यम से भारतीय भाषाओं पर यह हमला शायद पहले के  हमलों के मुकाबले  अधिक घातक था चूंकि इसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां सदा - सदा के लिए अपनी भाषा से कट जाती हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के साथ-साथ  देवनागरी सहित भारतीय लिपियों के लिए प्रौद्योगिकी-सुविधा की कमी आदि कारण तो थे ही इसके अतिरिक्त अंग्रेजीपरस्तों की सुविधा और हिंदी के क्षेत्र में उनका वर्चस्व  भी इसका एक महत्वपुर्ण कारक बन रहा है। प्रबंधन में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका के चलते हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों में भी हिंदी के लिए रोमन लिपि प्रचलन में आने  लगी है। गोवा जहाँ की भाषा कोंकणी और लिपि देवनागरी है, वहाँ तो एक वर्ग पहले से ही कोंकणी के लिए रोमन लिपि की माँग करता रहा है । इस वातावरण से रोमन लिपि  के ऐसे समर्थकों को भी काफी मदद मिली।  इधर चेतन भगत जैसे अंग्रेजी लेखक भी मौका देख देवनागरी लिपि, जो हिंदी सहित अनेक भारतीय भाषाओं की लिपि है, के  खिलाफ या यूँ कहें रोमन के पक्ष में उतर आए ।
      ऐसे में जबकि ज्यादातर साहित्यकार मौन साधे थे तब जिन लोगों ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन के प्रयोग को थोपने के खिलाफ आवाज बुलन्द की उनमें एक प्रमुख  नाम था डॉ परमानन्द पांचाल । डॉ. परमानंद पांचाल दक्खिनी हिंदी साहित्‍य के ख्‍याति प्राप्‍त विद्वान, लिपि वि‍शेषज्ञ और एक प्रति‍ष्ठित साहित्‍यकार है। पिछले चार दशकों से हिंदी भाषा और साहित्‍य के विभिन्‍न पक्षों, ज्ञान विज्ञान, पर्यटन, संस्‍कृति और इतिहास पर निरन्‍तर लेखन द्वारा लेख और निबंध की वि‍धाओं को नया आयाम दिया है। इन्‍होंने देश और विदेश में देवनागरी के प्रचार-प्रसार हेतु अपना सारा जीवन समर्पित का दिया है। राष्‍ट्रीय एकता के लिए नागरी लिपि का प्रचार-प्रसार इनका मि‍शन है।
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      1930 में ग्राम-सिरसली (उतर-प्रदेश) में जन्मे डॉ. परमानंद पांचाल  केन्द्रीय सरकार के कार्यालय में हिंदी का प्रयोग बढ़ाने के कार्य से संबद्ध रहे हैं। इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना के समय डॉ0 परमानंद पांचाल हिंदी के परामर्शदाता रहे और हिंदी माध्‍यम से उच्‍च पाठ्यक्रम तैयार करने में विशेष योगदान दिया। डॉ. परमानंद पांचाल ने राष्‍ट्रपति के वि‍शेष-कार्य अधिकारी (ओ.एस.डी.भाषा) के रूप में हिंदी की उल्‍लेखनीय सेवा की। राष्‍ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी द्वारा देश और विदेश में दिए जाने वाले हिंदी भाषणों को तैयार करने के महत्‍वपूर्ण उतरदायित्‍व का बड़ी सफलता से निर्वाह किया। यह इतिहास में पहला अवसर था जब राष्‍ट्रपति के मूल भाषण विदेशों में भी केवल हिंदी में ही होते थे और राष्ट्रपति भवन की आधिकारिक भाषा एक प्रकार से हिंदी बन गई थी, वहां जिस निष्ठा और परिश्रम से हिंदी को लोकप्रिय बनाया गया था, उस का वास्तविक श्रेय डॉ. परमानंद पांचाल की सेवाओं को ही जाता हैं। 
      बतौर लेखक भी पांचालजी का हिंदी साहित्य को महत्वपूर्ण योगदान है। उनके प्रकाशित साहित्य में हिंदी में कीओ 23  पुस्तकें और प्रमुख-पत्र पत्रिकाओं में 400 से अधिक लेख है। इनकी पुस्तकें विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित है। ये हैं -हिंदी के मुस्लिम साहित्यकार, ‘दक्खिनी हिंदी: विकास और इतिहास’, दक्खिनी हिंदी की पारिभाषिक शब्दावली, कोहीनूर (लेख संग्रह), विदेशी यात्रियों की नजर में, भारत के सुन्‍दर द्वीप, अण्‍डमान तथा निकोबार द्वीप समूह, भूतपूर्व राष्‍ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह और हिंदी, हिंदी भाषा: राजभाषा और लिपि, भारत की महान वि‍भूति, अमीर खुसरो, दक्खिनी हिंदी: इतिहास और शब्‍द सम्‍पदा, सोहन लाल द्विवेदी, दक्खिनी हिंदी काव्‍य संचयन, प्रयोजन मूलक हिंदी, हिंदी भाषा: विवि‍ध आयाम , महान सूफी संत अमीर खुसरो, हिन्‍दी भाषा:-प्रासंगिकता और व्‍यापकता ।
 पांचालजी ने उर्दू की कई प्रमुख साहित्यिक कृतियों का हिंदी में अनुवाद भी किया। ये हैं - जिगर मुरादाबादी, मिर्जा मुहम्‍मद रफी सौदा, गुफत्गू, फिराक गोरखपुरी, शबनमिस्‍तॉ, फिराक गोरखपुरी कहीं कुछ कम है’,(शहरयार)। इनके द्वारा सम्‍पादित ग्रंथ हैं-विदेश मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा पंचम विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन के अवसर पर प्रकाशित ‘स्‍मारिका, कथा-दशक (कहानी संग्रह) का संपादन भी किया गया।  
 कुरुक्षेत्र तथा हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालयों जैसे कई विश्वविद्यालयों में इनके साहित्‍य पर शोध कार्य भी सम्‍पन्‍न हो चुका है। इनमें ‘हिंदी गद्य को डॉ0 परमानंद पांचाल की देन ‍शेष’ रूप से उल्‍लेखनीय है । उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलनों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। त्रिनिडाड एवं टोबेगो में आयोजित पांचवे विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन में डॉ0 परमानंद पांचाल की भूमिका रही। इन्‍होंने इस अवसर पर विदेश मंत्रालय की ओर से प्रथम बार प्रकाशित ‘स्‍मारिका-1996’ का कुशल सम्‍पादन किया। 8वें विश्व हिंदी सम्‍मेलन न्‍यूयार्क में देवनागरी लिपि सत्र में बीज भाषण तथा 9वें विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन , दक्षि‍ण अफ्रीका में सूचना प्रौद्योगिकी और नागरी लिपि पर व्‍याख्‍यान भी प्रस्तुत किए। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा देश –विदेश में 11 विश्वविद्यालयों और उच्‍च शिक्षा संस्थाओं व कई महत्वपूर्ण मंचों पर भाषण व्याख्यान दिए गए हैं।
अपने उल्लेखनीय कार्यों के लिए डॉ. परमानन्द पांचाल को अनेक महत्वपूर्ण पुरस्‍कार एवं समान सम्मान भी प्राप्त हुए हैं। ये हैं :-राजभाषा वि‍भाग गृहमंत्रालय, भारत सरकार द्वारा हिंदी सेवाओं के लिए सम्‍मान, ‘भारतके सुन्‍दर द्वीप’ पुस्‍तक पर भारत सरकार द्वारा ‘राहुल, सांकृत्‍यायन’ पुरस्‍कार, हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन, प्रयाग द्वारा ‘विद्या वाचस्‍पति’ की मानद उपाधि, भारतीय विद्या संस्‍थान,त्रिनिडाड एवं टुबैगो द्वारा साहित्‍यिक श्रेष्‍ठता के लिए सम्‍मान पत्र, ‘हिंदी अकादमी दिल्‍ली द्वारा वर्ष 2005-06 के लिए साहित्‍य सम्‍मान’, द्वितीय हिंदी भाषा कुम्‍भ, बेंगलौर द्वारा ‘अति विशिष्‍ट’ हिंदी सेवी पुरस्‍कार-2006, इन्‍द्र प्रस्‍थ साहित्‍य भारती द्वारा जैनेन्‍द्र कुमार सम्‍मान-2006, राष्‍ट्रीय हिन्‍दी परि‍षद्, मेरठ द्वारा ‘हिन्‍दी रत्‍न’ सम्‍मान- 2006,      राष्‍ट्रपति जी द्वारा राहुल सांकृत्‍यायन पुरस्‍कार वर्ष 2010। । हाल ही में भैपाल में आयोजित 10 वें विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन में भारत के गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह जी   द्वारा विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मान-2015 प्रदान किया गया।
डॉ. परमानन्द पांचाल ने विभिन्न पदों को सुशोभित किया वे नागरी लिपि परि‍षद् नई दिल्‍ली के महामंत्री और ‘नागरी-संगम’ पत्रिका के प्रधान सम्‍पादक , भारतीय साहि संगम (रजि0) के अध्यक्ष, मातृ-भाषा विकास परि‍षद् के अध्‍यक्ष, अमीर खुसरो अकादमी के अध्यक्ष, हिंदी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद की स्‍थायी समिति के सदस्‍य और दिल्‍ली प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष हैं। साथ ही वे भारत सरकार के कई मंत्रालयों जैसे पर्यटन तथा संस्कृति, विद्युत, संसदीय कार्य, तथा जल संसाधन मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य  और केन्द्रीय सचिवालय, हिंदी परि‍षद् की स्थायी समिति के सदस्य व परामर्शदाता हैं।  वे वर्ष 2002-2007 तक साहित्‍य अकादेमी के सदस्‍य रहें और केन्‍द्रीय हिंदी समिति (भारत सरकार) के सदस्‍य भी रहे हैं। 
        सरकारी सेवा के पश्चात भी इनका मन हिंदी भाषा की सेवा के लिए समर्पित रहा। वे देश -विदेश में देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने के लिए आचार्य विनोबा भावे के मि‍शन को पूरा करने में बड़ी नि:स्‍वार्थ भावना से गे है। लगे हैं। वे कहते हैं, ’स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माताओं ने जहां संविधान के अनुच्छेद 343 (!) में हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया है वहीं देवनागरी लिपि को इसकी अधिकारिक लिपि के रूप में मान्यता दी। भारत एक बहुभाषी देश है, जहां अनेक भाषाएं बोलने वाले लोग रहते हैं। भाषाओं की भांति यहां लिपियां भी अनेक है। एक अनुमान के अनुसार याहं 25 लिपियों का प्रयोग होता है, जिन में 14 प्रमुख हैं। इन में सबसे प्रमुख है देवनागरी लिपि, जो हिन्‍दी के अतिरिक्‍त संवि‍धान की 8 वीं अनुसूची में सम्मिलित भारत की कई प्रमुख भाषाओं यथा संस्‍कृत, मराठी, डोगरी, नेपाली, मैथिली, तथा बोडो, की भी अधिकृत लिपि है। इनके अतिरिक्‍त ‘कोंकणी’ और ‘संथाली’ भाषाएं भी इसे स्‍वीकार कर रही है। प्राकृत, अपभ्रंश जैसी प्राचीन भाषाएं भी देवनागरी लिपि में ही लि‍खी जाती हैं। गुजराती की लिपि भी शिरोरेखा रहित ‘देवनागरी’ लिपि ही है। वास्‍तविकता यह है कि उर्दू की अपनी लिपि फारसी होते हुए भी, भारत में आज इसकी अधिकतर रचनाएं देवनागरी लिपि में ही प्रकाशित हो रही हैं। भारतीय एकता की दृष्टि से यह महत्‍वपूर्ण है कि भारत की सभी प्रमुख भाषाओं की लि‍पियां ब्राह्मी से ही निकली हैं। इस प्रकार वे भी देवनागरी लिपि की सहोदरा ही हैं।  इसी एकरूपता के कारण आज कम्‍प्‍यूटर टाइपिंग के लि‍ए सबका की-बोर्ड भी समान है। स्‍पष्‍ट है कि देवनागरी लिपि का एक राष्‍ट्रीय महत्व है।‘
आज जबकि हिंदी साहित्य,शिक्षा आदि से जुड़ा एक बहुत बड़ा वर्ग भाषा-प्रौद्योगिकी से क्या हुआ है वे इसके पक्ष में पूरी मजबूती से खड़े होते हैं और कहते हैं:-  कम्प्यूटर और मोबाइल जैसे उपकरण भाषा और लिपि के प्रयोग के प्रमुख माध्यम बन चुके हैं और इंटरनेट के माध्यम से  भाषा का विश्व में प्रसार हो रहा है, आज सूचना और प्रौद्योगिकी का युग है, जो निश्चय ही भाषा और लिपि पर आधारित हैं। इसलिए विश्‍व में हिन्‍दी के तेजी से विकास के लिए हिन्दी को इन्‍टरनेट के प्रयोग के द्वारा विश्व में इसके प्रचार-प्रसार को बढ़ाने में रुचि लेनी चाहिए। । अलग-अलग फोंट और शैली अपनाने के कारण एक-दूसरे दस्तावेजों को पढ़ना संभव नहीं था। लेकिन हिन्दी में ‘यूनिकोड’ फोंट के आने से स्थिति बदल गई है। हिन्दी के प्रायः: सभी समाचार पत्र इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। प्रमुख पत्रिकाएं भी ऑन-लाइन पढ़ी जा सकती हैं। अतः: आवश्यकता है कि हिन्दी साहित्य से जुड़े लोग तकनीक से भी जुड़ें। साहित्यकार, अध्यापक, पत्रकार और अनुवादक कम्प्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग करें। तभी हम हिन्दी को विश्व की एक सशक्‍त, गति‍शील और उन्नत भाषा बना सकेंगे। हम हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की तो बात करते है, किंतु इसके लिए आधुनिकतम तकनीकों के प्रयोग से बचते हैं। हमें पहले हिन्दी को इसके लिए तैयार करना होगा। हिन्दी को सशक्त सरल और सक्षम बनाना होगा। तभी हम इसे विश्‍व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर सकेंगे।‘
      वे कहते हैं- ‘क्योंकि यहाँ संसार की एक मात्र सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक और ध्‍वन्‍यात्‍मक लिपि है, जो कम्प्यूटर पर प्रयोग के अधिक समीप और उपयुक्त है। सूचना और प्रौद्योगिकी के इस युग में देवनागरी ने अपनी श्रेष्ठता और वैज्ञानिकता विश्व के सामने सिद्ध कर दी है और इस लिपि को कम्‍प्‍यूटर के लिए सबसे उपयुक्‍त माना है,नासा’ के एक वैज्ञानिक ‘रिक ब्रिगस’ ने तो 1985 के अपने एक लेख में यह घोषित ही कर दिया है कि देवनागरी लिपि कम्‍प्‍यूटर आज्ञावानी की दृष्ठि से आदर्श लिपि है। आज विश्‍व में हिन्‍दी बोली तो खूब बोली जा रही है किन्तु यह एक विडम्‍बना ही है कि हम बोलने में तो हिन्‍दी का खूब प्रयोग करते हैं किन्तु लिखते समय रोमन लिपि की ओर बढ़ जाते हैं। कारण यह है कि हिन्दी के सामने बड़ी समस्या हिन्दी टाइपिंग की है। भारत की राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां बाजार में अंग्रेजी के टाइपिस्‍ट तो खूब मिलेंगे किन्‍तु हिन्‍दी के ढूंढने से ही शायद कहीं मिलें। हमें कम्‍प्‍यूटर पर हिन्‍दी को सरल और लोकप्रिय बनाने के लिए इसके विविध फोंटो में एकरूपता लानी होगी। कई बार एक फोंट पर टाइप किया सन्‍देश दूसरे कम्‍प्‍यूटर पर खुलता ही नहीं। कम्‍प्‍यूटर के की-बोर्ड भी देवनागरी में नहीं है। प्रसन्‍नता का वि‍षय है कि भारत सरकार के राजभाषा वि‍भाग ने 17 फरवरी 2012 के अपने आदेश में कहा है कि – भारत सरकार के सभी मंत्रालय और कार्यालय यूनिकोड कम्‍पलाएन्‍ट फोंट्स एवं यूनिकोड के अनुरूप सोफटवेयर तथा इनस्क्रिप्‍ट कुंजी-पटल का ही इस्‍तेमाल करें, तो भारत सरकार का मानक की-बोर्ड है और सभी ओपरेटिंग सिस्‍टम्स में डिफाल्‍ट में (यानि पहले से मौजूद) रहता है। किसी एक भाषा में इनस्क्रिप्‍ट की-बोर्ड सीखने पर सभी भारतीय भाषाओं में आसानी से टंकण किया जा सकता है।‘

      देवनागरी व भारतीय लिपियों के संवर्धन और इनके माध्यम से हिंदी व भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार को ध्यान में रखकर वे निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत करते हैं:- 
1     भारत सरकार के सभी मंत्रालय और कार्यालय यूनिकोड कम्‍पलाएन्‍ट फोंट्स एवं यूनिकोड के अनुरूप सोफ्टवेयर तथा इनस्क्रिप्‍ट कुंजी-पटल का ही इस्‍तेमाल करें, तो भारत सरकार का मानक की-बोर्ड है और सभी ओपरेटिंग सिस्‍टम्स में डिफाल्‍ट में (यानि पहले से मौजूद) रहता है। किसी एक भाषा में इनस्क्रिप्‍ट की-बोर्ड सीखने पर सभी भारतीय भाषाओं में आसानी से टंकण कर सकते हैं। आदेश के अनुसार दो वर्ष बाद रेंमिग्‍टन की-बोर्ड का प्रयोग नहीं किया जा सकेगा।
2 सभी कम्‍प्‍यूटर द्वि‍भाषी की-बोर्ड वाले ही खरीदे जाएं-जिनमें ‘इनस्‍क्रिप्ट ले-आउट’ अवश्‍य हो।
3 सभी नई भर्तियों के लिए हिन्‍दी टाइपिंग परीक्षा ‘इनस्क्रिप्‍ट’ की-बोर्ड पर ही लेना अनिवार्य हो।
4 सभी सरकारी कार्यालयों की वेबसाइट द्वि‍भाषी और यूनिकोड समर्थित फोंट में ही तैयार कराई जाएं।
5. हिन्दी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए अब वेब पर ‘डोमेन नेम’ नागरी में भी उपलब्ध कराए जा सकेंगे। किन्तु आवश्यकता है कि वर्तनी जांच सम्‍बन्‍धी क्रमादेश भी सारे सॉफटवेयर निर्माताओं के लिए एक ही होने चाहिए, जो मानक वर्तनी के आधार पर हों।
      सूचना के इस युग 
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में संचार माध्‍यमों पर हिन्‍दी का प्रयोग तो बढ़ रहा है, किन्तु अनेक चैनलों पर शीर्षक रोमन में ही नजर आते हैं।  इस  संबंध में उनका कहना है कि ‘दूरदर्शन’ पहले देवनागरी में लि‍ख जाता था। अब वह ‘डी. डी.’ बन कर रह गया है। कहना न होगा कि  संक्षिप्तीकरण के चक्कर में हिन्‍दी के मूल शब्‍द ही गायब होते जा रहें है। ‘मुख्यमंत्री’ को समाचार पत्र केवल ‘सी.एम.’ लि‍ख देते है।  प्रधानमंत्री को ‘पीएम’ आदि। ऐसी परिपाटी से हिन्दी सरल होने के बजाए दुरूह होती जा रही है और रोमन लिपि का प्रचलन बढ़ता नज़र आता  है, जो न तो हिन्दी के हित में है और न ही राष्ट्र के हित में। 
      आज हिंदी की भाषा ही नहीं लिपि भी निरन्तर पिछड़ती जा रही है जिसके चलते जनसामान्य, नई पीढ़ियाँ भाषा और साहित्य दोनों  से कटती जा रही हैं। लेकिन हिंदी के नाम पर ज्यादातर कवायद केवल साहित्य को ले कर दिखती है। ऐसे में एक वयोवृद्ध साहित्यकार  न केवल  लिपि के लिए मजबूती से खड़ा होता है बल्कि उसके लिए भाषा-प्रौद्योगिकी का प्रबल समर्थक बनकर सही मायने में  प्रगतिशील होने का भी परिचय देता है। इस प्रकार वह न केवल हिंदी का बल्कि तमाम भारतीय भाषाओं  का प्रहरी बनकर  खड़ा होता है। वयोवृद्ध साहित्यकार, लेखक, भाषा-कर्मी भारत-भाषा प्रहरी 'डॉ. परमानन्द पांचाल' को वैश्विक हिंदी सम्मेलन का  सादर नमन !  

                                                                                                           प्रस्तुति - डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'
संपर्क :-डॉ. परमानंद पांचाल
        232, ए पाकेट-1, मयूर विहार,   फेज-1, दिल्‍ली-110091                                              
        फोन नं0 001-22751649, मो0 नं. 09818894001   

हिंदी राग अलगावका या एकात्मताका



हिंदी राग अलगावका या एकात्मताका

इस देवभूमि भारतकी करीब 50 भाषाएँ जिनकी प्रत्येककी लोकसंख्या 10 लाखसे कहीं अधिक है, और करीब 7000 बोलीभाषाएँ जिनमेंसे प्रत्येकको बोलनेवाले कमसे कम पाँचसौ लोग हैं, ये सारी भाषाएँ मिलकर हमारी अनेकता में एकता का अनूठा और अद्भुत चित्र प्रस्तुत करती है। इन सबकी वर्णमाला एक ही है, व्याकरण एक ही है और सबके पीछे सांस्कृतिक धरोहर भी एक ही है। यदि गंगोत्रीसे काँवड भरकर रामेश्वर ले जानेकी घटना किसी आसामी लोककथा को जन्म देती है, तो वही घटना उतनीही क्षमतासे एक भिन्न परिवेशकी मलयाली कथा को भी जन्म देती है। इनमेसे हरेक भाषाने अपने शब्दभंडारसे और अपनी भाव अभिव्यक्तिसे किसी किसी अन्य भाषाको भी समृद्ध किया है। इसी कारण हमारी भाषासंबंधी नीतिमें इस अनेकता और एकता को एकसाथ टिकाने और उससे लाभान्वित होनेकी सोच हो यह सर्वोपरि है -- वही सोच हमारी पथदर्शी प्रेरणा होनी चाहिये। लेकिन क्या यह संभव है ?
पिछले दिनों और पिछले कई वर्षों हिंदी-दिवसके कार्यक्रमोंकी जो भरमार देखने को मिली उसमें इस सोचका मैंने अभाव ही पाया यह बारबार दुहाई दी जाती रही है कि हमें मातृभाषाको नही त्यजना चाहिये -- यही बात एक मराठी, बंगाली, तमिल, भोजपुरी या राजस्थानी भाषा बोलनेवाला भी कहता है और मुझे मेरे भाषाई एकात्मताके सपने चूर-चर होते दिख पडते हैं यह अलगाव हम कब छोडनेवाले हैं? हिंदी दिवसपर हम अन्य सहेली-भाषाओंकी चिंता कब करनेवाले हैं? एक हिंदी मातृभाषाका व्यक्ति हिंदीकी तुलनामें केवल अंग्रेजीकी बाबत सोचता है और शूरवीर योद्धाकी तरह अंग्रेजीसे जूझनेकी बातें करता है। हमें यह भान कब आयेगा कि एक बंगाली, मराठी, तमिल या भोजपुरी मातृभाषाका व्यक्ति उन उन भाषाओंकी तुलनामें अंग्रेजीके साथ हिंदीकी बात भी सोचता है और अक्सर अपनेको अंग्रेजीके निकट औऱ हिंदीसे मिलों दूर पाता है। अब यदि हिंदी मातृभाषी व्यक्ति अंग्रेजी के साथ साथ किसी एक अन्य भाषाको भी सोचे तो वह भी अपनेको अंग्रेजीके निकट और उस दूसरी भाषा से कोसों दूर पाता है। अंग्रेजीसे जूझनेकी बात खतम भले ही होती हो, लेकिन उस दूसरी भाषाके प्रति अपनापन नही पनपता है और उत्तरदायित्व की भावना तो बिलकुल नही। फिर कैसे हो सकती है कोई भाषाई एकात्मता?
कोई कह सकता है कि हम तो हिंदी-दिवस मना रहे थे -- जब मराठी या बंगाली दिवस आयेगा तब वे लोग अपनी अपनी सोच लेंगे -- लेकिन यही तो है अलगाव का खतरा। जोर-शोरसे हिंदी दिवस मनानेवाले हिंदी-भाषी जबतक उतनेही उत्साहसे अन्य भाषाओंके समारोह में शामिल होते नही दिखते तबतक यह खतरा बढता ही चलेगा।
एक दूसरा उदाहरण देखते हैं -- हमारे देशमें केंद्र-राज्यके संबंध संविधानके दायरेमें तय होते हैं। केंद्र सरकारका कृषि-विभाग हो या शिक्षा-विभाग, उद्योग-विभाग हो या गृह विभाग, हर विभागके नीतिगत मुद्दे एकसाथ बैठकर तय होते हैं। परन्तु राजभाषा की नीतिपर केंद्रमें राजभाषा-विभाग किसी अन्य भाषाके प्रति अपना उत्तरदायित्व ही नही मानते। तो बाकी राजभाषाएँ बोलनेवलोंको भी हिंदीके प्रति उत्तरदायित्व रखनेकी कोई इच्छा नही जागती। बल्कि सच कहा जाय तो घोर अनास्था, प्रतिस्पर्धा, यहाँ तक कि वैरभावका प्रकटीकरण भी हम कई बार सुनते हैं। उनमेंसे कुछको राजकीय महत्वाकांक्षा बताकर अनुल्ल्लेखित रखा जा सकता है, पर सभी अभिव्यक्तियोंको नही। किसी किसीको ध्यानसे भी सुनना पडेगा, अन्यथा कोई हल नही निकलेगा।

इस विषयपर सुधारोंका प्रारंभ तत्काल होना आवश्यक है। हमारी भाषाई अनेकतामें एकताका विश्वपटलपर लाभ लेने हेतु ऐसा चित्र संवर्द्धित करना होगा जिसमें सारी भाषाओंकी एकजुट स्पष्ट हो, और विश्वपटलपर लाभ उठानेकी अन्य क्षमताएँ भी विकसित करनी होंगी। आजका चित्र तो यही है कि हर भाषा की हिंदी के साथ और हिंदीकी अन्य सभी भाषाओंके साथ प्रतिस्पर्धा है जबकी उस तुलनामें सारी भाषाएँ बोलनेवाले अंग्रेजीके साथ दोस्ताना ही बनाकर चलते हैं।। इसे बदलना हो तो पहले जनगणना में पूछा जानेवाला अलगाववादी प्रश्न हटाया जाय कि आपकी मातृभाषा कौनसी है। उसके बदले यह एकात्मतावादी प्रश्न पूछा जाय कि आपको कितनी भारतीय भाषाएँ आती हैं आज विश्वपटलपर जहाँ जहाँ लोकसंख्या गिनतिका लाभ उठाया जाता है -- वहाँ वहाँ हिंदीको पीछे खींचनेकी चाल चली जा रही है। क्योंकि संख्याबलमें हिंदी के टक्करमें केवल अंग्रेजी और मंडारिन (चीनी) है- बाकि तो कोसों पीछे हैं। संख्याबलका लाभ सबसे पहले मिलता है रोजगारके स्तरपर। अलग अलग युनिवर्सिटीयोंमें भारतीय भाषाएँ सिखानेकी बात चलती है, यूनोमें अपनी भाषाएँ आती हैं, तो रोजगारके नये द्वार खुलते हैं।
भारतीय भाषाओंको विश्वपटलपर चमकते हुए सितारोंकी तरह उभारना हम सबका कर्तव्य है। यदि मेरी मातृभाषा मराठी है और मुझे हिंदी मराठी दोनों ही प्रिय हों तो मेरा मराठी-मातृभाषिक होना हिंदीके संख्याबल को कम करें यह मैं कैसे सहन कर सकती हूँ -- और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदीके संख्याबलके कारण भारतियोंको जो लाभ मिल सकता है उसे क्यों गवाऊँ? क्या केवल इसलिये कि मेरी सरकार मुझे अंतर्राष्ट्रीय स्तरपर हिंदीकी महत्ताका लाभ नही उठाने देती? और मेरे मराठी ज्ञानके कारण मराठीका संख्याबल बढे यह भी उतना ही आवश्यक है। अतएव सर्वप्रथम हमारी अपनी राष्ट्रनीति सुधरे और मेरे भाषाज्ञानका लाभ मेरी दोनों माताओंको मिले ऐसी कार्य-प्रणाली भी बनायें यह अत्यावश्यक है।
औऱ बात केवल मराठी या हिंदीकी नही है। विश्वस्तरपर जहाँ मैथिली, कन्नड या बंगाली लोक-संस्कृतीकी महत्ता उस उस भाषाको बोलनेवालोंके संख्याबल के आधारपर निश्चित की जाती है, वहाँ वहाँ मेरी उस भाषाकी प्रवीणताका लाभ अवश्य मिले- तभी मेरे भाषाज्ञानकी सार्थकता होगी। आज हमारे लिये गर्वका विषय होना चाहिये कि संसारकी सर्वाधिक संख्याबलवाली पहली बीस भाषाओंमें तेलगू भी है, मराठी भी है, बंगाली भी है और तमिलभी। तो क्यों हमारी राष्ट्रभाषानीति ऐसी हो जिसमें मेरे भाषाज्ञानका अंतर्राष्ट्रीय लाभ उन सारी भाषाओंको मिले और उनके संख्याबलका लाभ सभी भारतियोंको मिले। यदि ऐसा हो, तो मेरी भी भारतीय भाषाएँ सीखनेकी प्रेरणा अधिक दृढ होगी।

आज विश्वके 700 करोड लोगोंमेसे करीब 100 करोड हिंदीको समझ लेते हैं, और भारतके सवासौ करोडमें करीब 90 करोड। फिरभी हिंदी राष्ट्रभाषा नही बन पाई। इसका एक हल यह भी है कि हिंदी-भोजपुरी-मैथिली-राजस्थानी-मारवाडी बोलनेवाले करीब 50 करोड लोग देशकी कमसे कम एक अन्य भाषाको अभिमान और अपनेपनके साथ सीखने-बोलने लगें तो संपर्कभाषा के रूपमें अंग्रेजीने जो विकराल सामर्थ्य पाया है उससे बचाव हो सके।

देशमें 6000 से आधिक और हिंदीकी 2000 से अधिक बोलीभाषाएँ हैं। सोचिये कि यदि हिंदीकी सारी बोलीभाषाएँ हिंदीसे अलग अपने अस्तित्वकी माँग करेंगी तो हिंदीका संख्याबल क्या बचेगा और यदि नही करेंगी तो हम क्या नीतियाँ बनानेवाले हैं ताकि हिंदीके साथ साथ उनका अस्तित्व भी समृद्ध हो और उन्हें विश्वस्तरपर पहुँचाया जाय। यही समस्या मराठीको कोकणी, अहिराणी या भिल-पावरी भाषा के साथ हो सकती है और कन्नड-तेलगूको तुलू के साथ। इन सबका एकत्रित हल यही है कि हम अपनी भाषाओंकी भिन्नता को नही बल्कि उनके मूल-स्वरूपकी एकता को अधोरेखित करें। यह तभी होगा जब हम उन्हें सीखें, समझें और उनके साथ अपनापा बढायें। यदि हम हिंदी-दिवसपर भी रुककर इस सोचकी ओर नही देखेंगे तो फिर कब देखेंगे ?

जब भी सर्वोच्च न्यायालयमें अंग्रेजीको हटाकर हिंदी लाने की बात चलती है, तो वे सारे विरोध करते हैं जिनकी मातृभाषा हिंदी नही है। फिर वहाँ अंग्रेजीका वर्चस्व बना रहता है। उसी दलीलको आगे बढाते हुए कई उच्च न्यायालयोंमें उस उस प्रान्तकी भाषा नही लागू हो पाई है। उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भारतके किसी भी कोनेसे नियुक्त किये जा सकते हैं, उनके भाषाई अज्ञानका हवाला देकर अंग्रेजीका वर्चस्व और मजबूत बनता रहता है। यही कारण है कि हमें ऐसा वातावरण फैलाना होगा जिससे अन्य भारतीय भाषाएँ सीखने में लोग अभिमानका भी अनुभव करें और सुगमताका भी।
हमारे सुधारों में सबसे पहले तो सर्वोच्च न्यायालय, राज्योंके उच्च न्यायालय, गृह वित्त मंत्रालय, केंद्रीय लोकराज्यसंघकी परीक्षाएँ, एंजिनियरिंग, मेडिकल तथा विज्ञान एवं समाजशास्त्रीय विषयोंकी स्नातकस्तरीय पढाई में भारतीय भाषाओंको महत्व दिया जाय। सुधारोंका दूसरा छोर हो प्रथमिक और माध्यमिक स्तरकी पढाईमें भाषाई एकात्मता लानेकी बात जो गीत, नाटक, खेल आदि द्वारा हो सकती है।।आघुनिक मल्टिमीडिया संसाधनोंका प्रभावी उपयोग हिंदी और खासकर बालसाहित्यके लिये तथा भाषाई बालसाहित्योंको एकत्र करने के लिये किया जाना चाहिये। भाषाई अनुवाद भी एकात्मता के लिये एक सशक्त पूल बन सकता है लेकिन देशकी सभी सरकारी संस्थाओंमें अनुवादकी दुर्दशा देखिये कि अनुवादकोंका मानधन उनके भाषाई कौशल्यसे नही बल्कि शब्दसंख्या गिनकर तय किया जाता है -- जैसे किसी ईंट ढोनेवालेसे कहा जाय कि हजार ईंट ढोने के इतने पैसे।

अनेकतामें एकताको बनाये रखनेके लिये दो अच्छे साधन हैं - संगणक एवं संस्कृत। उनके उपयोग हेतु विस्तृत चर्चा हो मान लो मुझे कन्नड लिपी पढने नही आती परन्तु भाषा समझमें आती है। अब यदि संगणकपर कन्नडमें लिखे आलेखका लिप्यन्तर करनेकी सुविधा होती तो मैं धडल्लेसे कन्नड साहित्यके सैंकडों पन्ने पढना पसंद करती। इसी प्रकार कोई कन्नड व्यक्ति भी देवनागरीमें लिखे तुलसी-रामायणको कन्नड लिपिमें पाकर उसका आनंद ले पाता। लेकिन क्या हम कभी रुककर दूसरे भाषाइयोंके आनंदकी बात सोचेंगे? क्या हम माँग करेंगे कि मोटी तनखा लेनेवाले और कुशाग्र वैज्ञानिक बुद्धि रखनेवाले हमारे देशके संगणक-तज्ज्ञ हमें यह सुविधा मुहैया करवायें। सरकारको भी चाहिये कि जितनी हदतक यह सुविधा किसी-किसीने विकसित की है उसकी जानकारी लोगोंतक पहुँचायें।
लेकिन सरकार तो यह भी नही जानती कि उसके कौन कौन अधिकारी हिंदी अन्य राजभाषाओंके प्रति समर्पण भावसे काम करनेका माद्दा और तकनीकी क्षमता रखते हैं। सरकार समझती है कि एक कुआँ खोद दिया है जिसका नाम है राजभाषा विभाग वहाँ के अधिकारी उसी कुएँमें उछलकूदकर जो भी राजभाषा(ओं) का काम करना चाहे कर लें (हमारी बलासे) सरकार के कितने विभाग अपने अधिकारियोंके हिंदी- समर्पण का लेखा-जोखा रखते हैं और उनकी क्षमतासे लाभ उठानेकी सोच रख पाते हैं ? हालमें जनसूचना अधिकारके अंतर्गत गृह-विभागसे यह सवाल पूछा गया कि आपके विभागके निदेशक स्तर से उँचे अधिकारियोंमेंसे कितनोंको मौके-बेमौकेकी जरूरतभर हिंदी टाइपिंग आती है। उत्तर मिला कि ऐसी कोई जानकारी हम संकलित नही करते। तो जो सरकार अपने अधिकारियोंकी क्षमताकी सूची भी नही बना सकती वह उसका लाभ लोगोंतक कैसे पहुँचा सकती है ?

मेरे विचारसे हिंदीके सम्मुख आये मुख्य सवालोंको यों वर्गीकृत किया जा सकता है --
वर्ग 1 –आधुनिक उपकरणोंमें हिंदी --
  1. हिंदी लिपिको सर्वाधिक खतरा और अगले 10 वर्षोंमें मृतप्राय होनेका डर क्योंकि आज हमें ट्रान्सलिटरेशनकी सुविधाका लालच देकर सिखाया जाता है कि राम शब्द लिखने के लिये हमारे विचारोंमें भारतीय वर्णमाला का , फिर फिर नही लाना है बल्कि हमारे विचारोंमें रोमन वर्णमाला का आर् आना चाहिये, फिर आये, फिर एम् आये। तो दिमागी सोचसे तो हमारी वर्णमाला निकल ही जायेगी। आज जब मैं अपनी अल्पशिक्षित सहायकसे मोबाइल नंबर पूछती हूँ तो वह नौ, सात, दो, चार इस प्रकार हिंदी आँकडे ना तो बता पाती है औऱ समझती है, वह नाइन, सेवन, टू..... इस प्रकार कह सकती है।
  2. प्रकाशन के लिये हमें ऐसी वर्णाकृतियाँ (फॉण्टसेट्स) आवश्यक हैं, जो दिखनेमें सुंदर हों, एक दूसरेसे अलग-थलग हों और साथ ही इंटरनेट कम्पॅटिबल हों। सी-डॅक सहित ऐसी कोई भी व्यापारी संस्था जो 1991 में भारतीय मानक-संस्था द्वारा और 1996 में युनीकोड द्वारा मान्य कोडिंग स्टॅण्डर्डको नही अपनाती हो, उसे प्रतिबंधित करना होगा। विदित हो कि यह मानक स्वयं भारत सरकार की चलाई संस्था सी-डॅक ने तैयार कर भारतीय मानक-संस्थासे मनवाया था पर स्वयं ही उसे छोडकर कमर्शियल होनेके चक्करमें नया अप्रमाणित कोडिंग लगाकर वर्णाकृतियाँ बनाती है जिस कारण दूसरी संस्थाएँ भी शह पाती हैं और प्रकाशन-संस्थाओंका काम वह गति नही ले पाता जो आजके तेज युगमें भारतीय भाषाओंको चाहिये।
  3. विकिपीडिया जो धीरे धीरे विश्वज्ञानकोषका रूप ले रहा है, उसपर कहाँ है हिंदी कहाँ है संस्कृत और कहाँ हैं अन्य भारती- भाषाएँ ?

वर्ग2 जनमानसमें हिंदी --
4. कैसे बने राष्ट्रभाषा लोकभाषाएँ सहेलियाँ बनें या दुर्बल करें यह गंभीरतासे सोचना होगा
  1. अंग्रेजीकी तुलनामें तेजीसे घटता लोकविश्वास, और लुप्त होते शब्दभांडार,
  2. एक समीकरण बन गया है कि अंग्रेजी है संपत्ति, वैभव, ग्लॅंमर, करियर, विकास और अभिमान जबकि हिंदी या मातृभाषा है गरीबी, वंचित रहना, बेरोजगारी, अभाव और पिछडापन। इसे कैसे गलत सिद्ध करेंगे ?
वर्ग3 सरकारमें हिंदी --
7. हिंदीके प्रति सरकारी व्हिजन क्या है ? क्या किसीभी सरकारने इस मुद्देपर विजन-डॉक्यूमेंट बनाया है ?
8. सरकारमें कौन कौन विभाग हैं जिम्मेदार, उनमें क्या है कोऑर्डिनेशन, वे कैसे तय करते हैं उद्दिष्ट और कैसे नापते हैं सफलताको ? उनमेंसे कितने विभाग अपने अधिकारियोंके हिंदी- समर्पण का लेखा-जोखा रखते हैं और उनकी क्षमतासे लाभ उठानेकी सोच रख पाते हैं ?
9. विभिन्न सरकारी समितियोंकी  शिफारिशोंका आगे क्या होता है, उनका अनुपालन कौन और कैसे करवाता है
वर्ग4 -- साहित्य जगतमें हिंदी --
10. ललित साहित्य के अलावा बाकी कहाँ है हिंदी साहित्य -- विज्ञान, भूगोल, कॉमर्स, कानून विधी, बँक और व्यापारका व्यवहार, डॉक्टर और इंजीनिअर्सकी पढाईका स्कोप क्या है ?
11. ललित साहित्यमें भी वह सर्वस्पर्शी लेखन कहाँ है जो एक्सोडस जैसे नॉवेल या रिचर्ड बाखके लेखनमें है।
  1. भाषा बचानेसेही संस्कृति बचती है -- क्या हमें अपनी संस्कृती चाहिये? हमारी संस्कृति अभ्युदयको तो मानती है पर रॅट-रेस और भोग-विलास को नही। आर्थिक विषमता और पर्यावरण के ह्राससे बढनेवाले जीडीपीको हमारी संस्कृति विकास नही मानती। तो हमें विकासको फिरसे परिभाषित करना होगा या फिर विकास एवं संस्कृति मेंसे एकको चुनना होगा
  2. दूसरी ओर क्या हमारी आजकी भाषा हमारी संस्कृतिको व्यक्त कर रही है ?
  3. अनुवाद, पढाकू-संस्कृति, सभाएँ को प्रोत्साहन देनेकी योजना हो।
  4. हमारे बाल-साहित्य, किशोर-साहित्य और दृक-श्राव्य माध्यमोंमें, टीवी एवं रेडियो चॅनेलोंपर, हिंदी अन्य भाषाओंको कैसे आगे लाया जाय ?
  5. युवा पीढी क्या कहती है भाषाके मुद्देपर -- कौन सुन रहा है युवा पीढीको ? कौन बना रहा है उनकी भाषा समृद्धिका प्रयास ?
इन मुद्दोंपर जबतक हममें से हर व्यक्ति ठोस कदम नही बढाये, तबतक हिंदी पखवाडे केवल बेमनसे पार लगाये जानेवाले उत्सव ही रह जायेंगे।
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