हिंदी
राग अलगावका
या एकात्मताका
इस
देवभूमि
भारतकी
करीब
50
भाषाएँ
जिनकी
प्रत्येककी
लोकसंख्या
10
लाखसे
कहीं
अधिक
है,
और
करीब
7000
बोलीभाषाएँ
जिनमेंसे
प्रत्येकको
बोलनेवाले
कमसे
कम
पाँचसौ
लोग
हैं,
ये
सारी
भाषाएँ
मिलकर
हमारी
अनेकता
में
एकता
का
अनूठा
और
अद्भुत
चित्र
प्रस्तुत
करती
है।
इन
सबकी
वर्णमाला
एक
ही
है,
व्याकरण
एक
ही
है
और
सबके
पीछे
सांस्कृतिक
धरोहर
भी
एक
ही
है।
यदि
गंगोत्रीसे
काँवड
भरकर
रामेश्वर
ले
जानेकी
घटना
किसी
आसामी
लोककथा
को
जन्म
देती
है,
तो
वही
घटना
उतनीही
क्षमतासे
एक
भिन्न
परिवेशकी
मलयाली
कथा
को
भी
जन्म
देती
है।
इनमेसे
हरेक
भाषाने
अपने
शब्दभंडारसे
और
अपनी
भाव
अभिव्यक्तिसे
किसी
न
किसी
अन्य
भाषाको
भी
समृद्ध
किया
है।
इसी
कारण
हमारी
भाषासंबंधी
नीतिमें
इस
अनेकता
और
एकता
को
एकसाथ
टिकाने
और
उससे
लाभान्वित
होनेकी
सोच
हो
यह
सर्वोपरि
है
--
वही
सोच
हमारी
पथदर्शी
प्रेरणा
होनी
चाहिये।
लेकिन
क्या
यह
संभव
है
?
पिछले दिनों और पिछले कई वर्षों हिंदी-दिवसके कार्यक्रमोंकी जो भरमार देखने को मिली उसमें इस सोचका मैंने अभाव ही पाया । यह बारबार दुहाई दी जाती रही है कि हमें मातृभाषाको नही त्यजना चाहिये -- यही बात एक मराठी, बंगाली, तमिल, भोजपुरी या राजस्थानी भाषा बोलनेवाला भी कहता है और मुझे मेरे भाषाई एकात्मताके सपने चूर-चर होते दिख पडते हैं । यह अलगाव हम कब छोडनेवाले हैं? हिंदी दिवसपर हम अन्य सहेली-भाषाओंकी चिंता कब करनेवाले हैं? एक हिंदी मातृभाषाका व्यक्ति हिंदीकी तुलनामें केवल अंग्रेजीकी बाबत सोचता है और शूरवीर योद्धाकी तरह अंग्रेजीसे जूझनेकी बातें करता है। हमें यह भान कब आयेगा कि एक बंगाली, मराठी, तमिल या भोजपुरी मातृभाषाका व्यक्ति उन उन भाषाओंकी तुलनामें अंग्रेजीके साथ हिंदीकी बात भी सोचता है और अक्सर अपनेको अंग्रेजीके निकट औऱ हिंदीसे मिलों दूर पाता है। अब यदि हिंदी मातृभाषी व्यक्ति अंग्रेजी के साथ साथ किसी एक अन्य भाषाको भी सोचे तो वह भी अपनेको अंग्रेजीके निकट और उस दूसरी भाषा से कोसों दूर पाता है। अंग्रेजीसे जूझनेकी बात खतम भले ही न होती हो, लेकिन उस दूसरी भाषाके प्रति अपनापन नही पनपता है और उत्तरदायित्व की भावना तो बिलकुल नही। फिर कैसे हो सकती है कोई भाषाई एकात्मता?
पिछले दिनों और पिछले कई वर्षों हिंदी-दिवसके कार्यक्रमोंकी जो भरमार देखने को मिली उसमें इस सोचका मैंने अभाव ही पाया । यह बारबार दुहाई दी जाती रही है कि हमें मातृभाषाको नही त्यजना चाहिये -- यही बात एक मराठी, बंगाली, तमिल, भोजपुरी या राजस्थानी भाषा बोलनेवाला भी कहता है और मुझे मेरे भाषाई एकात्मताके सपने चूर-चर होते दिख पडते हैं । यह अलगाव हम कब छोडनेवाले हैं? हिंदी दिवसपर हम अन्य सहेली-भाषाओंकी चिंता कब करनेवाले हैं? एक हिंदी मातृभाषाका व्यक्ति हिंदीकी तुलनामें केवल अंग्रेजीकी बाबत सोचता है और शूरवीर योद्धाकी तरह अंग्रेजीसे जूझनेकी बातें करता है। हमें यह भान कब आयेगा कि एक बंगाली, मराठी, तमिल या भोजपुरी मातृभाषाका व्यक्ति उन उन भाषाओंकी तुलनामें अंग्रेजीके साथ हिंदीकी बात भी सोचता है और अक्सर अपनेको अंग्रेजीके निकट औऱ हिंदीसे मिलों दूर पाता है। अब यदि हिंदी मातृभाषी व्यक्ति अंग्रेजी के साथ साथ किसी एक अन्य भाषाको भी सोचे तो वह भी अपनेको अंग्रेजीके निकट और उस दूसरी भाषा से कोसों दूर पाता है। अंग्रेजीसे जूझनेकी बात खतम भले ही न होती हो, लेकिन उस दूसरी भाषाके प्रति अपनापन नही पनपता है और उत्तरदायित्व की भावना तो बिलकुल नही। फिर कैसे हो सकती है कोई भाषाई एकात्मता?
कोई
कह
सकता
है
कि
हम
तो
हिंदी-दिवस
मना
रहे
थे
--
जब
मराठी
या
बंगाली
दिवस
आयेगा
तब
वे
लोग
अपनी
अपनी
सोच
लेंगे
--
लेकिन
यही
तो
है
अलगाव
का
खतरा।
जोर-शोरसे
हिंदी
दिवस
मनानेवाले
हिंदी-भाषी
जबतक
उतनेही
उत्साहसे
अन्य
भाषाओंके
समारोह
में
शामिल
होते
नही
दिखते
तबतक
यह
खतरा
बढता
ही
चलेगा।
एक
दूसरा
उदाहरण
देखते
हैं
--
हमारे
देशमें
केंद्र-राज्यके
संबंध
संविधानके
दायरेमें
तय
होते
हैं।
केंद्र
सरकारका
कृषि-विभाग
हो
या
शिक्षा-विभाग,
उद्योग-विभाग
हो
या
गृह
विभाग,
हर
विभागके
नीतिगत
मुद्दे
एकसाथ
बैठकर
तय
होते
हैं।
परन्तु
राजभाषा
की
नीतिपर
केंद्रमें
राजभाषा-विभाग
किसी
अन्य
भाषाके
प्रति
अपना
उत्तरदायित्व
ही
नही
मानते।
तो
बाकी
राजभाषाएँ
बोलनेवलोंको
भी
हिंदीके
प्रति
उत्तरदायित्व
रखनेकी
कोई
इच्छा
नही
जागती।
बल्कि
सच
कहा
जाय
तो
घोर
अनास्था,
प्रतिस्पर्धा,
यहाँ
तक
कि
वैरभावका
प्रकटीकरण
भी
हम
कई
बार
सुनते
हैं।
उनमेंसे
कुछको
राजकीय
महत्वाकांक्षा
बताकर
अनुल्ल्लेखित
रखा
जा
सकता
है,
पर
सभी
अभिव्यक्तियोंको
नही।
किसी
किसीको
ध्यानसे
भी
सुनना
पडेगा,
अन्यथा
कोई
हल
नही
निकलेगा।
इस
विषयपर
सुधारोंका
प्रारंभ
तत्काल
होना
आवश्यक
है।
हमारी
भाषाई
अनेकतामें
एकताका
विश्वपटलपर
लाभ
लेने
हेतु
ऐसा
चित्र
संवर्द्धित
करना
होगा
जिसमें
सारी
भाषाओंकी
एकजुट
स्पष्ट
हो,
और
विश्वपटलपर
लाभ
उठानेकी
अन्य
क्षमताएँ
भी
विकसित
करनी
होंगी।
आजका
चित्र
तो
यही
है
कि
हर
भाषा
की
हिंदी
के
साथ
और
हिंदीकी
अन्य
सभी
भाषाओंके
साथ
प्रतिस्पर्धा
है
जबकी
उस
तुलनामें
सारी
भाषाएँ
बोलनेवाले
अंग्रेजीके
साथ
दोस्ताना
ही
बनाकर
चलते
हैं।।
इसे
बदलना
हो
तो
पहले
जनगणना
में
पूछा
जानेवाला
अलगाववादी
प्रश्न
हटाया
जाय
कि
आपकी
मातृभाषा
कौनसी
है।
उसके
बदले
यह
एकात्मतावादी
प्रश्न
पूछा
जाय
कि
आपको
कितनी
भारतीय
भाषाएँ
आती
हैं
।
आज
विश्वपटलपर
जहाँ
जहाँ
लोकसंख्या
गिनतिका
लाभ
उठाया
जाता
है
--
वहाँ
वहाँ
हिंदीको
पीछे
खींचनेकी
चाल
चली
जा
रही
है।
क्योंकि
संख्याबलमें
हिंदी
के
टक्करमें
केवल
अंग्रेजी
और
मंडारिन
(चीनी)
है-
बाकि
तो
कोसों
पीछे
हैं।
संख्याबलका
लाभ
सबसे
पहले
मिलता
है
रोजगारके
स्तरपर।
अलग
अलग
युनिवर्सिटीयोंमें
भारतीय
भाषाएँ
सिखानेकी
बात
चलती
है,
यूनोमें
अपनी
भाषाएँ
आती
हैं,
तो
रोजगारके
नये
द्वार
खुलते
हैं।
भारतीय
भाषाओंको
विश्वपटलपर
चमकते
हुए
सितारोंकी
तरह
उभारना
हम
सबका
कर्तव्य
है।
यदि
मेरी
मातृभाषा
मराठी
है
और
मुझे
हिंदी
व
मराठी
दोनों
ही
प्रिय
हों
तो
मेरा
मराठी-मातृभाषिक
होना
हिंदीके
संख्याबल
को
कम
करें
यह
मैं
कैसे
सहन
कर
सकती
हूँ
--
और
अंतर्राष्ट्रीय
स्तर
पर
हिंदीके
संख्याबलके
कारण
भारतियोंको
जो
लाभ
मिल
सकता
है
उसे
क्यों
गवाऊँ?
क्या
केवल
इसलिये
कि
मेरी
सरकार
मुझे
अंतर्राष्ट्रीय
स्तरपर
हिंदीकी
महत्ताका
लाभ
नही
उठाने
देती?
और
मेरे
मराठी
ज्ञानके
कारण
मराठीका
संख्याबल
बढे
यह
भी
उतना
ही
आवश्यक
है।
अतएव
सर्वप्रथम
हमारी
अपनी
राष्ट्रनीति
सुधरे
और
मेरे
भाषाज्ञानका
लाभ
मेरी
दोनों
माताओंको
मिले
ऐसी
कार्य-प्रणाली
भी
बनायें
यह
अत्यावश्यक
है।
औऱ बात केवल मराठी या हिंदीकी नही है। विश्वस्तरपर जहाँ मैथिली, कन्नड या बंगाली लोक-संस्कृतीकी महत्ता उस उस भाषाको बोलनेवालोंके संख्याबल के आधारपर निश्चित की जाती है, वहाँ वहाँ मेरी उस भाषाकी प्रवीणताका लाभ अवश्य मिले- तभी मेरे भाषाज्ञानकी सार्थकता होगी। आज हमारे लिये गर्वका विषय होना चाहिये कि संसारकी सर्वाधिक संख्याबलवाली पहली बीस भाषाओंमें तेलगू भी है, मराठी भी है, बंगाली भी है और तमिलभी। तो क्यों न हमारी राष्ट्रभाषानीति ऐसी हो जिसमें मेरे भाषाज्ञानका अंतर्राष्ट्रीय लाभ उन सारी भाषाओंको मिले और उनके संख्याबलका लाभ सभी भारतियोंको मिले। यदि ऐसा हो, तो मेरी भी भारतीय भाषाएँ सीखनेकी प्रेरणा अधिक दृढ होगी।
औऱ बात केवल मराठी या हिंदीकी नही है। विश्वस्तरपर जहाँ मैथिली, कन्नड या बंगाली लोक-संस्कृतीकी महत्ता उस उस भाषाको बोलनेवालोंके संख्याबल के आधारपर निश्चित की जाती है, वहाँ वहाँ मेरी उस भाषाकी प्रवीणताका लाभ अवश्य मिले- तभी मेरे भाषाज्ञानकी सार्थकता होगी। आज हमारे लिये गर्वका विषय होना चाहिये कि संसारकी सर्वाधिक संख्याबलवाली पहली बीस भाषाओंमें तेलगू भी है, मराठी भी है, बंगाली भी है और तमिलभी। तो क्यों न हमारी राष्ट्रभाषानीति ऐसी हो जिसमें मेरे भाषाज्ञानका अंतर्राष्ट्रीय लाभ उन सारी भाषाओंको मिले और उनके संख्याबलका लाभ सभी भारतियोंको मिले। यदि ऐसा हो, तो मेरी भी भारतीय भाषाएँ सीखनेकी प्रेरणा अधिक दृढ होगी।
आज
विश्वके
700
करोड
लोगोंमेसे
करीब
100
करोड
हिंदीको
समझ
लेते
हैं,
और
भारतके
सवासौ
करोडमें
करीब
90
करोड।
फिरभी
हिंदी
राष्ट्रभाषा
नही
बन
पाई।
इसका
एक
हल
यह
भी
है
कि
हिंदी-भोजपुरी-मैथिली-राजस्थानी-मारवाडी
बोलनेवाले
करीब
50
करोड
लोग
देशकी
कमसे
कम
एक
अन्य
भाषाको
अभिमान
और
अपनेपनके
साथ
सीखने-बोलने
लगें
तो
संपर्कभाषा
के
रूपमें
अंग्रेजीने
जो
विकराल
सामर्थ्य
पाया
है
उससे
बचाव
हो
सके।
देशमें
6000
से
आधिक
और
हिंदीकी
2000
से
अधिक
बोलीभाषाएँ
हैं।
सोचिये
कि
यदि
हिंदीकी
सारी
बोलीभाषाएँ
हिंदीसे
अलग
अपने
अस्तित्वकी
माँग
करेंगी
तो
हिंदीका
संख्याबल
क्या
बचेगा
और
यदि
नही
करेंगी
तो
हम
क्या
नीतियाँ
बनानेवाले
हैं
ताकि
हिंदीके
साथ
साथ
उनका
अस्तित्व
भी
समृद्ध
हो
और
उन्हें
विश्वस्तरपर
पहुँचाया
जाय।
यही
समस्या
मराठीको
कोकणी,
अहिराणी
या
भिल-पावरी
भाषा
के
साथ
हो
सकती
है
और
कन्नड-तेलगूको
तुलू
के
साथ।
इन
सबका
एकत्रित
हल
यही
है
कि
हम
अपनी
भाषाओंकी
भिन्नता
को
नही
बल्कि
उनके
मूल-स्वरूपकी
एकता
को
अधोरेखित
करें।
यह
तभी
होगा
जब
हम
उन्हें
सीखें,
समझें
और
उनके
साथ
अपनापा
बढायें।
यदि
हम
हिंदी-दिवसपर
भी
रुककर
इस
सोचकी
ओर
नही
देखेंगे
तो
फिर
कब
देखेंगे
?
जब
भी
सर्वोच्च
न्यायालयमें
अंग्रेजीको
हटाकर
हिंदी
लाने
की
बात
चलती
है,
तो
वे
सारे
विरोध
करते
हैं
जिनकी
मातृभाषा
हिंदी
नही
है।
फिर
वहाँ
अंग्रेजीका
वर्चस्व
बना
रहता
है।
उसी
दलीलको
आगे
बढाते
हुए
कई
उच्च
न्यायालयोंमें
उस
उस
प्रान्तकी
भाषा
नही
लागू
हो
पाई
है।
उच्च
न्यायालयों
के
न्यायाधीश
भारतके
किसी
भी
कोनेसे
नियुक्त
किये
जा
सकते
हैं,
उनके
भाषाई
अज्ञानका
हवाला
देकर
अंग्रेजीका
वर्चस्व
और
मजबूत
बनता
रहता
है।
यही
कारण
है
कि
हमें
ऐसा
वातावरण
फैलाना
होगा
जिससे
अन्य
भारतीय
भाषाएँ
सीखने
में
लोग
अभिमानका
भी
अनुभव
करें
और
सुगमताका
भी।
हमारे
सुधारों
में
सबसे
पहले
तो
सर्वोच्च
न्यायालय,
राज्योंके
उच्च न्यायालय,
गृह
व
वित्त
मंत्रालय,
केंद्रीय
लोकराज्यसंघकी
परीक्षाएँ,
एंजिनियरिंग,
मेडिकल
तथा
विज्ञान
एवं
समाजशास्त्रीय
विषयोंकी
स्नातकस्तरीय
पढाई
में
भारतीय
भाषाओंको
महत्व
दिया
जाय।
सुधारोंका
दूसरा
छोर
हो
प्रथमिक
और
माध्यमिक
स्तरकी
पढाईमें
भाषाई
एकात्मता
लानेकी
बात
जो
गीत,
नाटक,
खेल
आदि
द्वारा
हो
सकती
है।।आघुनिक
मल्टिमीडिया
संसाधनोंका
प्रभावी
उपयोग
हिंदी
और
खासकर
बालसाहित्यके
लिये
तथा
भाषाई
बालसाहित्योंको
एकत्र
करने
के
लिये
किया
जाना
चाहिये।
भाषाई
अनुवाद
भी
एकात्मता
के
लिये
एक
सशक्त
पूल
बन
सकता
है
लेकिन
देशकी
सभी
सरकारी
संस्थाओंमें
अनुवादकी
दुर्दशा
देखिये
कि
अनुवादकोंका
मानधन
उनके
भाषाई
कौशल्यसे
नही
बल्कि
शब्दसंख्या
गिनकर
तय
किया
जाता
है
--
जैसे
किसी
ईंट
ढोनेवालेसे
कहा
जाय
कि
हजार
ईंट
ढोने
के
इतने
पैसे।
अनेकतामें
एकताको
बनाये
रखनेके
लिये
दो
अच्छे
साधन
हैं
-
संगणक
एवं
संस्कृत।
उनके
उपयोग
हेतु
विस्तृत
चर्चा
हो।
मान
लो
मुझे
कन्नड
लिपी
पढने
नही
आती
परन्तु
भाषा
समझमें
आती
है।
अब
यदि
संगणकपर
कन्नडमें
लिखे
आलेखका
लिप्यन्तर
करनेकी
सुविधा
होती
तो
मैं
धडल्लेसे
कन्नड
साहित्यके
सैंकडों
पन्ने
पढना
पसंद
करती।
इसी
प्रकार
कोई
कन्नड
व्यक्ति
भी
देवनागरीमें
लिखे
तुलसी-रामायणको
कन्नड
लिपिमें
पाकर
उसका
आनंद
ले
पाता।
लेकिन
क्या
हम
कभी
रुककर
दूसरे
भाषाइयोंके
आनंदकी
बात
सोचेंगे?
क्या
हम
माँग
करेंगे
कि
मोटी
तनखा
लेनेवाले
और
कुशाग्र
वैज्ञानिक
बुद्धि
रखनेवाले
हमारे
देशके
संगणक-तज्ज्ञ
हमें
यह
सुविधा
मुहैया
करवायें।
सरकारको
भी
चाहिये
कि
जितनी
हदतक
यह
सुविधा
किसी-किसीने
विकसित
की
है
उसकी
जानकारी
लोगोंतक
पहुँचायें।
लेकिन
सरकार
तो
यह
भी
नही
जानती
कि
उसके
कौन
कौन
अधिकारी
हिंदी
व
अन्य
राजभाषाओंके
प्रति
समर्पण
भावसे
काम
करनेका
माद्दा
और
तकनीकी
क्षमता
रखते
हैं।
सरकार
समझती
है
कि
एक
कुआँ
खोद
दिया
है
जिसका
नाम
है
राजभाषा
विभाग
।
वहाँ
के
अधिकारी
उसी
कुएँमें
उछलकूदकर
जो
भी
राजभाषा(ओं)
का
काम
करना
चाहे
कर
लें
(हमारी
बलासे)
।
सरकार
के
कितने
विभाग
अपने
अधिकारियोंके
हिंदी-
समर्पण
का
लेखा-जोखा
रखते
हैं
और
उनकी
क्षमतासे
लाभ
उठानेकी
सोच
रख
पाते
हैं
?
हालमें
जनसूचना
अधिकारके
अंतर्गत
गृह-विभागसे
यह
सवाल
पूछा
गया
कि
आपके
विभागके
निदेशक
स्तर
से
उँचे
अधिकारियोंमेंसे
कितनोंको
मौके-बेमौकेकी
जरूरतभर
हिंदी
टाइपिंग
आती
है।
उत्तर
मिला
कि
ऐसी
कोई
जानकारी
हम
संकलित
नही
करते।
तो
जो
सरकार
अपने
अधिकारियोंकी
क्षमताकी
सूची
भी
नही
बना
सकती
वह
उसका
लाभ
लोगोंतक
कैसे
पहुँचा
सकती
है
?
मेरे
विचारसे
हिंदीके
सम्मुख
आये
मुख्य
सवालोंको
यों
वर्गीकृत
किया
जा
सकता
है
--
वर्ग
1
–आधुनिक
उपकरणोंमें
हिंदी
--
-
हिंदी लिपिको सर्वाधिक खतरा और अगले 10 वर्षोंमें मृतप्राय होनेका डर क्योंकि आज हमें ट्रान्सलिटरेशनकी सुविधाका लालच देकर सिखाया जाता है कि राम शब्द लिखने के लिये हमारे विचारोंमें भारतीय वर्णमाला का र, फिर आ फिर म नही लाना है बल्कि हमारे विचारोंमें रोमन वर्णमाला का आर् आना चाहिये, फिर ए आये, फिर एम् आये। तो दिमागी सोचसे तो हमारी वर्णमाला निकल ही जायेगी। आज जब मैं अपनी अल्पशिक्षित सहायकसे मोबाइल नंबर पूछती हूँ तो वह नौ, सात, दो, चार इस प्रकार हिंदी आँकडे ना तो बता पाती है औऱ न समझती है, वह नाइन, सेवन, टू..... इस प्रकार कह सकती है।
-
प्रकाशन के लिये हमें ऐसी वर्णाकृतियाँ (फॉण्टसेट्स) आवश्यक हैं, जो दिखनेमें सुंदर हों, एक दूसरेसे अलग-थलग हों और साथ ही इंटरनेट कम्पॅटिबल हों। सी-डॅक सहित ऐसी कोई भी व्यापारी संस्था जो 1991 में भारतीय मानक-संस्था द्वारा और 1996 में युनीकोड द्वारा मान्य कोडिंग स्टॅण्डर्डको नही अपनाती हो, उसे प्रतिबंधित करना होगा। विदित हो कि यह मानक स्वयं भारत सरकार की चलाई संस्था सी-डॅक ने तैयार कर भारतीय मानक-संस्थासे मनवाया था पर स्वयं ही उसे छोडकर कमर्शियल होनेके चक्करमें नया अप्रमाणित कोडिंग लगाकर वर्णाकृतियाँ बनाती है जिस कारण दूसरी संस्थाएँ भी शह पाती हैं और प्रकाशन-संस्थाओंका काम वह गति नही ले पाता जो आजके तेज युगमें भारतीय भाषाओंको चाहिये।
-
विकिपीडिया जो धीरे धीरे विश्वज्ञानकोषका रूप ले रहा है, उसपर कहाँ है हिंदी कहाँ है संस्कृत और कहाँ हैं अन्य भारती- भाषाएँ ?
वर्ग–2
जनमानसमें
हिंदी
--
4.
कैसे
बने
राष्ट्रभाषा
–
लोकभाषाएँ
सहेलियाँ
बनें
या
दुर्बल
करें
यह
गंभीरतासे
सोचना
होगा
।
-
अंग्रेजीकी तुलनामें तेजीसे घटता लोकविश्वास, और लुप्त होते शब्दभांडार,
-
एक समीकरण बन गया है कि अंग्रेजी है संपत्ति, वैभव, ग्लॅंमर, करियर, विकास और अभिमान जबकि हिंदी या मातृभाषा है गरीबी, वंचित रहना, बेरोजगारी, अभाव और पिछडापन। इसे कैसे गलत सिद्ध करेंगे ?
वर्ग–3
सरकारमें
हिंदी
--
7. हिंदीके
प्रति सरकारी
व्हिजन क्या
है ?
क्या
किसीभी सरकारने
इस मुद्देपर
विजन-डॉक्यूमेंट
बनाया है
?
8. सरकारमें
कौन कौन
विभाग हैं
जिम्मेदार,
उनमें
क्या है
कोऑर्डिनेशन,
वे
कैसे तय
करते हैं
उद्दिष्ट
और कैसे
नापते हैं
सफलताको ?
उनमेंसे
कितने विभाग
अपने अधिकारियोंके
हिंदी-
समर्पण
का लेखा-जोखा
रखते हैं
और उनकी
क्षमतासे
लाभ उठानेकी
सोच रख
पाते हैं
?
9.
विभिन्न
सरकारी
समितियोंकी
शिफारिशोंका
आगे
क्या
होता
है,
उनका
अनुपालन
कौन
और
कैसे
करवाता
है
वर्ग–4
--
साहित्य
जगतमें
हिंदी
--
10. ललित
साहित्य के
अलावा बाकी
कहाँ है
हिंदी साहित्य
--
विज्ञान,
भूगोल,
कॉमर्स,
कानून
व विधी,
बँक
और व्यापारका
व्यवहार,
डॉक्टर
और इंजीनिअर्सकी
पढाईका स्कोप
क्या है
?
11. ललित
साहित्यमें
भी वह
सर्वस्पर्शी
लेखन कहाँ
है जो
एक्सोडस जैसे
नॉवेल या
रिचर्ड बाखके
लेखनमें है।
-
भाषा बचानेसेही संस्कृति बचती है -- क्या हमें अपनी संस्कृती चाहिये? हमारी संस्कृति अभ्युदयको तो मानती है पर रॅट-रेस और भोग-विलास को नही। आर्थिक विषमता और पर्यावरण के ह्राससे बढनेवाले जीडीपीको हमारी संस्कृति विकास नही मानती। तो हमें विकासको फिरसे परिभाषित करना होगा या फिर विकास एवं संस्कृति मेंसे एकको चुनना होगा ।
-
दूसरी ओर क्या हमारी आजकी भाषा हमारी संस्कृतिको व्यक्त कर रही है ?
-
अनुवाद, पढाकू-संस्कृति, सभाएँ इ को प्रोत्साहन देनेकी योजना हो।
-
हमारे बाल-साहित्य, किशोर-साहित्य और दृक-श्राव्य माध्यमोंमें, टीवी एवं रेडियो चॅनेलोंपर, हिंदी व अन्य भाषाओंको कैसे आगे लाया जाय ?
-
युवा पीढी क्या कहती है भाषाके मुद्देपर -- कौन सुन रहा है युवा पीढीको ? कौन बना रहा है उनकी भाषा समृद्धिका प्रयास ?
इन
मुद्दोंपर
जबतक हममें
से हर
व्यक्ति ठोस
कदम नही
बढाये,
तबतक
हिंदी पखवाडे
केवल बेमनसे
पार लगाये
जानेवाले
उत्सव ही
रह जायेंगे।
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