पिछले
महीने
मुझे
आयआयटी
पवई
के
एक
विद्यार्थी
समूह
को
संबोधित
करना
था।
वे
ग्रामीण
इलाकों
की
समृद्धि
के
लिये
कुछ
करना
चाहते
हैं
और
हमारा
विषय
भी
वही
था
-
ग्रामीण
प्रगति
के
रास्ते
क्या-क्या
हो
सकते
हैं।
एक
प्रश्न
यह
भी
था
कि
वैश्विक
बाजार
में
हम
अपना
स्थान
कैसे
बना
सकते
हैं?
उसमें
संगणक
की
भूमिका
को
हम
किस
प्रकार
उपयोग
में
ला
सकते
हैं?
वैश्विक
बाजार
-
इस
शब्द
ने
हमें
पिछले
कई
दशकों
से
एक
छलावे
में
डाल
कर
रखा
है।
क्या
है
यह
बाजार?
विश्व
की
सात
अरब
जनसंख्या
में
करीब
डेढ़
अरब
जनसंख्या
अर्थात्
पाँचवाँ
हिस्सा
तो
भारत
का
ही
है।
इस
बड़े
भारी
बाजार
को
विश्व
की
दूसरी
कंपनियाँ
तो
पहचानती
हैं
पर
हमारे
अपने
उत्पादक
नहीं
पहचानते।
दूसरे
देश
की
सरकारें
तो
समझती
हैं
पर
अपने
देश
की
सरकार
नहीं
समझती।
इसी
कारण
हिंदी
सहित
देशी
भाषाओं
का
महत्व
समझे
बिना
सरकार
हर
काम
में
अंगरेजी
को
प्राथमिकता
देती
है,
मानो
अपने
देश
की
जनता
कुछ
है
ही
नहीं।
उन
विद्यार्थियों
के
सम्मुख
भी
मेरी
चर्चा
का
विषय
यही
था
-
आज
भी
देश
की
साठ
प्रतिशत
जनसंख्या
गांवों
में
रहती
है
और
जो
शहरों
में
रह
रहे
हैं
उनमें
से
आधे
भी
गांव
से
उठकर
वहां
आये
हैं
अर्थात्
जिन्हें
हम
फर्स्ट
जेनरेशन
कहते
हैं।
फिर
उनकी
भाषामें
उनसे
व्यवहार
किये
बगैर
कैसे
हम
उनकी
समृद्धि
में
सहायक
हो
सकते
हैं?
उनकी
भाषामें उन्हें संगणकीय कौशल्य
दिये बिना कैसे वे समृद्ध हो
सकते हैं ?
आज
एक
समीकरण
बन
चुका
है
- संगणक
और
समृद्धि
का।
इसे
समझते
हुए
डिजिटायजेशन
का
कार्यक्रम
जोर-शोर
से
चल
पड़ा
है।
लेकिन
उसकी
भाषा
है
अंगरेजी।
सरकार
चाहती
है
कि
जनता
अपना
सारा
काम
ऑनलाइन
करे।
लेकिन
सरकार
भूल
जाती
है
कि
आज
भी
अस्सी
प्रतिशत
की
भाषा
स्वदेशी
भाषा
ही
है --
अंगरेजी
नहीं।
इसीलिये
बहुत
ही
बड़े
तामझाम
व
संपत्ति-निवेश
के
साथ
सरकार
डिजिटायजेशन
में
तो
लग
पड़ी
।
लेकिन
आज
से
तीन
या
पांच
वर्षों
में
पता
चलेगा
कि
इसका
प्रभावी
फल
नहीं
मिल
रहा।
इस
गलत
दिशा
में
जाते
कार्यक्रम
की
दिशाको
आज
ही
मोड़ना
होगा।
सच
कहा
जाय
तो
संगणक
व्यवसायियों
के
पास
यह
एक
बड़ा
मौका
है
कि
वे
ऑनलाइन
सेवाओं
को
भारतीय
भाषाओं
में
लाने
का
व्यवसाय
आरंभ
करें।
क्योंकि
इसमें
हजारों
संभावनाएँ
हैं। और
बहुत बडा मार्केट भी।
हमारी
विशाल
जनसंख्या
का
बड़ा
हिस्सा
10
से
30
वर्ष
की
आयु
में
है।
इतने
बड़े
यंगिस्तान
को
देख
हम
फूले
नहीं
समाते।
लेकिन
इनमें
से
केवल
पंद्रह
से
बीस
प्रतिशत
ही
दसवीं
कक्षा
से
आगे
निकल
पायेंगे।
और
अंगरेजी
का
हौव्वा
तो
उन
पर
भी
है
जो
दसवीं
से
आगे
निकल
पायेंगे।
यही
वह
यंगिस्तान
है
जो
समृद्धि
लाने
में
अघाडी
पर
रखा
जायेगा।
लेकिन
हमारा
सारा
ध्यान
लगा
हुआ
है
कि
ये
लोग
जल्दी
से
जल्दी
अंगरेज
हो
जायें
और
अंगरेजी
का
ज्ञान
लेकर
संगणक-साक्षर
बन
जायें।
इस
नीतिकी भूलको समझना आवश्यक
है।
हमारे
देश
की
साक्षरता
70
प्रतिशत,
अंग्रेजी-साक्षरता
20-22
प्रतिशत
और
उस
इंग्लिश-लिटरसी
की
अनुगामिनी
होकर
चलने
वाली
कंम्प्यूटर
लिटरसी
है
10-12
प्रतिशत।
चीन
की
स्थिति
क्या
है?
वर्ष
2001
में
उनकी
लिटरसी
थी
85
प्रतिशत।
इंग्लिश
लिटरसी
थी
3
प्रतिशत
और
कंप्यूटर
लिटरसी
जो
अंगरेजी
लिटरसी
की
नहीं,
बल्कि
चायनीज
लिटरसी
की
अनुगामिनी
थी
-
वह
थी,
आठ
प्रतिशत
और
उसकी
शुरूआत
हुई
1997
के
आसपास।
आज
या
कल
संगणक-लिटरसी
में
चीन
हमसे
आगे
ही
निकलने
वाला
है।
मीलों
आगे,
क्योंकि
उनकी संगणक-साक्षरता
अंगरेजीकी मोहताज नही है।
हमारे
देश
में
1985-90
के
आसपास संगणकके
क्षेत्रमें
एक
बड़ा
मार्केट
खुला
कि
पश्चिमी
देशों
से
संगणक --
आधारित
जॉब
वर्क
ले
आओ
और
उसे
पूरा
कर
पैसे
कमाओ।
1985 से
2005 तक
हमारा
आईटी
क्षेत्र
फलता-फूलता
रहा
और
उनकी
कमाई
पर
सरकार
ने
कहा
देखो
यही
है
रास्ता।
स्कूलों
में
संगणक-दान
की
होड
सी
लग
गई।
सरकारी
फर्मान
निकले
कि
सबको
अंगरेजी
पढ़ाओ,
टाई-शाई
पहनाओ
और
कम्प्यूटर
का
काम
सिखाओ।
इस नीतिसे
विद्यार्थियों
की
और
शिक्षकों
की
भी
संगणकीय
क्षमता
उनकी
स्वभाषा-क्षमता
से
नहीं,
बल्कि
अंगरेजी-क्षमता
से
सीमांकित
हो
गई।
जब
तक
अंगरेजी
ज्ञान
नहीं
बढ़ता,
संगणक
ज्ञान
नहीं
बढ़
सकता।
चीन
में
उलटी
प्रक्रिया
रही।
संगणक
क्षमता
का
आधार
बनी
स्वदेशी
चीनी
भाषा।
तो
संगणक
क्षमता
में
तेजी
से
बढ़ोत्तरी
होने
लगी।
पश्चिमी
देशों
के
जॉब
वर्क
वहाँ
भी
आये।
दस-पंद्रह
चीनीभाषी
संगणक-विदों
के
साथ
एक-एक
अंगरेजी
भाषा
का
संगणक-विद,
इस
आधार
पर
जॉब
वर्क
लेना
आरंभ
किया
और
तरक्की
करते रहे।
वर्ष
2020
तक
पश्चिमी
देशोंका
पूरा
जॉब-
वर्क-
मार्केट
हथियाने
का
संकल्प
है।
सॉफ्टवेअर
के साथ चीनने हार्डवेयर और
शोधकार्यपर भी ध्यान दिया
है।
हार्डवेयर
मार्केट
में
तो
यह
हालत
है
कि
मानो
सिलिकन
वैली
उठकर
शंघाई
में
आ
गई
हो।
आईबीएम
अब
केवल
चिप
के
रिसर्च
ही
कर
लेता
लै,
पर
उनका
प्रॉडक्शन
पूरी
तरह
ताइवान-कोरिया-चीन
में
ही
हो
सकता
है।
कुछ
ही
वर्षों
में
रिसर्च
में
भी
वे
आगे
निकलेंगे
क्योंकि
मातृभाषा
आधारित
शिक्षा
के
कारण
सोच-विचार
की
क्षमता
संकुचित
होने
की
बजाय
वृद्धिगत
ही
होती
है।
यही
कारण
है
कि
हमारी
पेटीएम
जैसी
कंपनियों
को
बैक-एंड
सपोर्ट
के
लिये
चीन
की
अलादिन
कंपनी
पर
निर्भर
रहना
पड़ता
है
जबकि
अपनी संगणक-क्षमता
का दम भरते हुए भी हमारे देशमें
इतने विशाल पैमानेपर कुछ भी
नही हो पाया।
हमारे
सभी
इलेक्ट्रॉनिक
उपकरणों
का
उत्पादन
भी
चीन
से
आयातित
सस्ते
व
टिकाऊ
पीसीबी
पर
निर्भर
है।
तो
हार्डवेयर
में
आगे,
रिसर्च
में
आगे
और
जिस
संगणकीय
कुली-गिरी
पर
हम
इतराते
थे,
वहाँ
भी
चीनी भाषाकी
नींव पर खडी
संगणक-क्षमता
के
आधार
पर
हमसे
आगे
निकलने
का
पूरा
आयोजन।
ऐसी
है
चीन
की
विश्व
बाजार
नियंत्रण
की
दूरदर्शिता
और
हम
उससे
भिड़ना
चाहते
हैं,
व
रेस जीतना चाहते हैं
एक
ऐसी
भाषा
के
आधार
पर
जिसमें
हमारी
70 से
80
प्रतिशत
जनता
का
कोई
सहभाग
ही
नहीं
होगा।
तो
आइये
देखते
हैं
कि
इस
परिदृश्य
को
बदलकर
इसमें
भाषाई
रंग
भरना
किस
प्रकार
संभव
है।
सबसे
पहले
देखते
हैं
प्राथमिक
व
माध्यमिक
पाठशालाओं
को।
यहाँ
पहली
कक्षा
में
सौ
प्रतिशत
प्रवेश,
फिर
पाँचवीं
तक
आधे
बच्चों
का
टिके
रहना,
और
सबको
सरकारी
योजनाओं
के
अंतर्गत
संगणक
मिले
हुए
हैं,
ये
तीन अच्छी बातें हैं।
इस
दृश्य
के
कारण
संभावना
बनती
है
कि
बच्चों
को
यथाशीघ्र
संगणक
पर
इनस्क्रिप्ट
विधि
से
भाषा
लेखन
सिखाया
जाये।
लेकिन
यह
संगणकीय
प्रक्रिया
अभी
भी
अधूरी
है।
क्योंकि
सरकारी
स्कूलों
के
मुख्याध्यापक
संगणकके
डिब्बों
को
खोलने
से
डरते
हैं।
यदि
वह
खराब
हो
गये
तो
उत्तरदायी
कौन?
कभी
कभी
वे
किसी
अध्यापक
को
सौंप
देते
हैं
कि
आप
इन
मशीनों
को
कक्षा
में
ले
जाकर
पढाओ।
लेकिन
वे
अध्यापक
भी
डरते
हैं
कि
यदि
बच्चों
ने
हाथ
लगाया
और
वे
खराब
हो
गये
तो
आँच
उन
पर
ही
आयेगी।
फिर
सरकारी
योजना
में
एक
कमी
और
भी
है।
संगणक
तो
दे
दिये,
लेकिन
शिक्षकों
को
इनस्क्रिप्ट
प्रशिक्षण
की
कोई
व्यवस्था
नहीं।
ज्ञातव्य
है
कि
इसके
लिये
केवल
तीन
दिन
की
ट्रेनिंग,
या
एक
दिन
की
जानकारी-क्लास
भी
समुचित
है।
लेकिन
अब
तक
यह
नहीं
हो
पाया
है।
कारण
– वरिष्ठ अधिकारियों व
लोक-सेवकोंका
इनस्क्रिप्टके प्रति अज्ञान
।
यदि
एक समीकरण है कि डिजिटायजेशन
से सुविधा होती है,
समय
बचता है और इस प्रकार वह समृद्धिका
निमंत्रक है तो हमें इस दूसरे
समीकरणको भी समझना होगा कि
देशके अस्सी प्रतिशत युवा की
भाषाई संगणक-क्षमता
ही डिजिटायजेशन की आत्मा है।
डिजिटायजेशन
का
सुपरिणाम
यदि
शीघ्रातिशीघ्र
देखना
हो
तो
पाठशालाओं
में
इनस्क्रिप्ट
के
माध्यम
से
शिक्षकों
व
बच्चों
का
संगणकीय
व
स्वदेशी
भाषाई
प्रशिक्षण
और
उसके
साथ-साथ
डिजिटायजेशन
की
सेवाओं
के
पोर्टल्स
को
देशी
भाषाओं
में
बनाने
का
काम
तत्काल
आरंभ
करना
होगा।
इनस्क्रिप्ट
पद्धतिसे
देशी
भाषाओं
में
संगणक
शिक्षा
देने
से
रोजगार
की
संभावना
भी
बढ़ती
है।
जिन्हें
इस
सरल
विधि
से
देशी
भाषा
में
संगणक
पर
काम
करना
आ
गया
उनके
लिये
कई
आयाम
खुल
जाते
हैं।
यदि
डिजिटायजेशन
का
काम
स्वदेशी
भाषाओं
में
होता
है
तो
इन्हें
वहां
तत्काल
काम
मिल
सकता
है।
और
भी
कई
संभावनाएँ
हैं।
न्यायालयों
का
उदाहरण
देखा
जा
सकता
है।
आज
हर
कोई
न्यायालयीन
देरी
का
रोना
रोता
है।
इस
देरी
के
कारणों
में
एक
यह
भी
है
कि
न्यायालयों
में
शीघ्रता
से
भाषाई
टंकण
करने
वालों
की
कमी
है।
पारंपारिक
टाइपराइटर
वाली
पद्धति
से
टाइपिस्ट
तैयार
होने
में
भी
आठ
महीने
तक
का
समय
लग
जाता
है
और
वह लेखन
इंटरनेट
पर
टिकाऊ
भी
नहीं
होता
है।
अतः
उसे
अपलोड
करते
हुए
पीडीएफ
बनाने
की
आवश्यकता
पड़ती
है,
अर्थात्
काम
में
अनावश्यक
वृद्धि।
इनस्क्रिप्ट
पद्धति
से
सीखकर
आये
लोग
न्यायालय
में
वहीं
के
वहीं
डिक्टेशन
ले
सकते
हैं।
आज
भी
यह
होता
है
लेकिन
वे
टाइपिस्ट
टाइपराइटर
पद्धति
से
सीखकर
आये
होते
हैं
अतएव
उनकी
उपलब्धता
भी
कम
है
और
काम
की
गति
भी। उसे
अपलोड करनेमें भी खिचखिच है।
दूसरा
एक
बड़ा
क्षेत्र
लै
सभी
सरकारी
संकेत
स्थलों
का।
यहाँ
भी
देखा
जा
सकता
है
कि
सरकारी
सेकत
स्थल
प्रथमतः
अंगरेजी
में
ही
बनाये
जाते
हैं।
फिर
कहीं
कहीं
उन्हें
हिंदी
या
प्रांतीय
भाषा
में
भी
बनाया
जाता
है।
पर
ये
देशीभाषी
संकेत-
स्थल
समय
पर
अपडेट
नहीं
होते।
इसका
भी
वही
यांत्रिक
कारण
है इनस्क्रिप्ट
पद्धतिवाला
टायपिंग न होना।
दस
वर्ष
पहले
तक
सरकारी
कार्यालयों
में
प्रायः
किसी
को
इनस्क्रिप्ट
विधि
नहीं
आती
थी।
अतः
किसी
भी
पन्ने
को
टंकित
करने
के
बाद
उसे
पीडीएफ
बनाना
अनिवार्य
हो
जाता
था।
फिर
उसे
एनआईसी
के
सुपुर्द
किया
जाता
कि
आप
इसे
अपलोड
करें।
संकेत
स्थल
के
रखरखाव
व
अपडेट
का
काम
एनआईसी
के
अधिकार
में
रखा
होता
था
क्योंकि
पीडीएफ
फाइल
को
अपलोड
करना
एक
जटिल
प्रक्रिया
है।
पीडीएफ
फाइल
अपलोड
करने
का
सबसे
बड़ा
घाटा
यह
है
कि
उस
पर
लिखी
सामग्री
को
सर्च
इंजिन
के
द्वारा
खोजा
नहीं
जा
सकता।
इस
कारण
से
भी
भाषाई
संकेत
स्थलों
की
उपयोगिता
केवल
दस
प्रतिशत
ही
रह
जाती
है। इस
बातको प्रायः कोई भी वरिष्ठ
अधिकारी नही समझता है।
अब
धीरे-धीरे
सरकारी
कार्यालयों
में
इनस्क्रिप्ट
के
जानकार
टाइपिस्ट
आ
गये
हैं।
लेकिन
उनके
वरिष्ठ
अधिकारी
अब
तक
इस
मुद्दे
पर
अज्ञानी
ही
हैं
कि
इनस्क्रिप्ट
में
किये
गये
टंकण
के
क्या
फायदे
हैं
और
क्या
उपयोगिता
है
और
इंटरनेट-
टिकाऊ
टंकण
न
होने
के
क्या
नुकसान
हैं।
हाल
में
ही
मेरे
एक
परिचित
राजभाषा
अॅडवाइजर
ने
मुझे
पूछा
कि
अब
उनके
विभागके
सारे
टाइपिस्ट
इनस्क्रिप्ट
टाइपिंग
करते
हैं
तो
अब
उनका
हिंदी संकेत-स्थल
सुधारने
के
लिये
आगे
क्या
क्या
करना
आवश्यक
है?
इसके
उत्तर
में
मैं
तीन
कार्यकलापों
को
आवश्यक
मानती
हूँ।
पहला
तो
यह
कि
सरकारी
के
अण्डर
सेक्रेटरी
से
लेकर
ज्वाइंट
सेक्रेटरी
तक
को
यह
प्रशिक्षण
लेना
चाहिये
कि
सर्च-इंजिन-समायोजित
संकेत-स्थल
न
होने
के
क्या
नुकसान
हैं
और
होने
के
क्या
फायदे।
फिर
ये
कि
सर्च-इंजिन-समायोजित
फाइल
बनाने
में
इनस्क्रिप्ट
विधि
का
क्या
महत्व
व
आवश्यकता
है।
फिर
जब
डॉक
फाइल
को
ही
अपलोड
किया
जायगा
तो
वह
करना
भी
सरल
है,
उसमें
यदाकदा
सुधार
व
अपडेटिंग
भी
सरल
है
और
इसी
कारण
उसे
किसी
एऩआईसी
अधिकारी
के
कार्यभार
में
न
रखकर
आपके
विभाग
के
किसी
नोडल
अधिकारी
पर
भी
सौंपा
जा
सकता
है।
ऐसा
करने
से अपलोडिंगका
काम तेजीसे होगा और
अधिक
पगार
वाले
एऩआईसी
तंत्रज्ञों
की
आवश्यकता
को
भी
घटाया
जा
सकता
है।
सलाह
तो मैंने दे दी,
अब
वह धरातल पर जाने कब उतरे।
एक
दृष्टि
डालते
हैं
हमारे
आज
के
भाषाई
साहित्य
पर।
शब्द
ब्रह्म
की
उपासना
और
लिपिबद्ध
ग्रंथों
की
रचना
- दोनों
ही
कार्यों
में
भारत
सर्वदा
आगे
रहा
और
इसी
कारण
विश्व
गुरु
बना।
आज
भी हमारा
लिखित साहित्य अपार है--
खासकर
संस्कृत में। लेकिन इंटरनेटपर
हमारी उपस्थिती अत्यल्प है।
यदि
हमने
तमाम
देशी
भाषाओं
को
इंटरनेट
व
वेबसाइट
के
माध्यम
से
ज्ञानभाषा
नहीं
बनाया
तो
भारत
को
फिर
एक
बार
विश्व
गुरु
बनाने
का
सपना
पूरा
होना
असंभव
है।
आज
इंटरनेट
के
विभिन्न
ज्ञान-स्थलों
पर
अंगरेजी
में
अरबों-खरबों
पन्ने
जुड़े
हुए
हैं
पर
विश्व
जनसंख्या
का
पंचमांश
हिस्सा
रखने
वाले
भारत
की
भाषाओं
के
कुल
पन्ने
दस
करोड़
से
भी
कम
हैं।
और
जो
हैं
उनमें
सर्चेबल
पन्ने
नितान्त
कम।
इस
कमी
को
शीघ्रता
से
पूरा
करना
हमारी
कार्यनीति
का
एक
महत्वपूर्ण
मुद्दा
बने यही
है देशी भाषाओंके लिये शुभकामना।
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