मंगलवार, 11 सितंबर 2018

११ दिन चली अढाई कोस गर्भनाल सितम्बर २०१८

भारत है अपना अभिमा
हिन्दी है अपनी पहचान
भारतवासी मिलकर देंगे
इसे विश्वभाषाका स्थान
15 अगस्त 2018 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलनमें सहभागिता हेतु पुणे-दिल्ली विमान प्रवासमें अचानक ये पंक्तियाँ मनमें उदित हुईं। भारत सरकारके प्रतिनिधिमंडलको 16 अगस्तकी रात्रिमें देरसे प्रस्थान करना था। लेकिन वह दोपहरी और संध्या एक शोक संदेश लेकर आई कि अटलजी नहीं रहे। देशने एक सजग, सयाना, सशक्त राजनेता खो दिया। उन्हीं समाचारोंके साथ दिल्ली एयरपोर्ट और वहाँसे आगे मॉरीशसकी यात्रा तय की। अगली सुबह मॉरीशस पहुँचकर सारे यात्री अपने-अपने होटलोंके अनुसार बिखर गये।
मनमें एक खटपटसी हुई कि सम्मेलन तो अगले दिन प्रारंभ होना था, फिर आज कोई साइट सीईंग क्यों नहीं? लेकिन होटलके लिये जो एक घंटेकी लम्बी बस यात्रा हुई उसने मॉरीशसकी निसर्गरम्य धरतीसे सबका परिचय करा दिया। चारों ओर गन्नेके खेत। आम, इमली और सैकड़ों प्रकारके वृक्ष। हरे-भरे पहाड़। अत्यंत सुगढ़तासे बनी सड़कें और उन पर अनुशासित भावसे चलते वाहन। अगल बगल दीखते एक या दो मंजिले बड़े-बड़े मकान यहाँकी सम्पन्नताके द्योतक थे।
दोपहरको फिर एक अलग रास्तेसे लम्बी बस यात्रा करके हम गंगा-तालाके किनारे गंगा-आरती स्थलपर पहुँचे। रास्तेमें एक ऊँचा पहाड़ था जिसका ऊपरी हिस्सा किसी मंदिरके शिखरके आकारका था और उसकी नुकीली चोटी पर एक बड़ा सा वृत्ताकार पाषाण जो कुछ कुछ सुदर्शन चक्रसा लग रहा था। यही था यहाँका सुप्रसिद्ध मुडिया पहाड। कथा है कि एक चारवाहेने सतर्कता संकेत मिलनेके बाद भी तालाबमें उतरती परियोंकी ओर देखा तो सजाके तौर पर उसका सिर कट गया और उड़कर पहाड़की नुकीली चोटी पर अटक गया। उसी पहाड़की तलछटीमें है गंगा-तालाब जहाँ संगमरमरका एक बड़ा-सा आधुनिक शिवमंदिर है। ऐसे एक-दो स्थलोंके सिवा यहाँ देखनेके लिये एक ही वस्तु है - मॉरीशसके चारों ओर पसरा हुआ समुद्र एकदम साफ, चकाचक, नीला। मॉरीशस पर्यटनकी आत्मा और उसकी सम्पन्नताका आधार।
11वें विश्व हिन्दी सम्मेलनका, या यों कहें कि मॉरीशसमें तीसरी बार सम्पन्न हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलनका और मॉरीशसकी धरतीका क्या ऋणानुबंध है, यह समझनेके लिये इतिहासके पन्नोंमें थोड़ी देर झांकना होगा।
सत्रहवीं सदीसे आरंभ करते हुए कई यूरोपीय देशोंने अफ्रीका एशिया खण्डों में अपने उपनिवेश बसाये। तब यूरोपमें गुलामीकी प्रथा चरम सीमा पर पहुँचने लगी। गुलामोंका उपयोग खेती अन्य उत्पादनमें किया जाता। 18वीं सदीमें अमरीकामें गुलामी प्रथाको समाप्त किया गया और गुलामोंका निर्यात बंद कर दिया। तब दुनियाँका सबसे उपनिवेश था अंगरेजोंके कब्जेवाला भारत अर्थात् बंगाल, बिहार ओडिसा, अवध। अंगरेजोंने यहाँके लोगोंको बन्दी बनाकर उन्हें सस्ते मजदूरोंके रूपमें निर्यात करनेकी नीति चलाई। इस प्रकार भारतसे और खासकर बिहार तथा पूर्वी उत्तरप्रदेशके इलाकोंसे जहाज-दर-जहाज भरकर उपनिवेशी देशोंमें भेजे जाने लगे। इस प्रकार मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी, टोबैगो, त्रिनिदाद इत्यादि कई उपनिवेशोंमें भारतीय मजदूरोंकी बस्तियाँ बनती गईं। करीब डेढ़ सदीके बाद उन्हें स्वतंत्रता मिली, शिक्षा मिली और उन्होंने थोड़ी सम्पन्नता राजकीय सत्ता भी पाई।
एक अत्यंत मर्मस्पर्शी घटना, जिसका उल्लेख इन देशोंकी आजकी पीढ़ियाँ बारम्बार करती हैं कि इन जहाजोंमें जाने वाले सभी परिवार अपने साथ संबल या जीवनाधारके लिये तुलसी रामायणकी एक-एक प्रति लेकर गये थे। उस एक ही आधारके सहारे उन्होंने अपने संस्कारोंको, अपनी भाषा और अपने धर्मको बचाये रखा। एक राम नाम, एक रामकथा, एक रामचरित मानस किस प्रकार करोड़ों लोगोंके जीवन का संबल बन जाता है और सदियों तक बना रहता है, यह अद्भुत है।
कहते हैं कि जब यहूदियोंको जेरूसलमसे आक्रान्त कर भगाया गया था तब वे यूरोपमें बिखर गये। उन पर येशूकी हत्याका आरोप था अतः उन्हें कहीं भी स्वीकारा नहीं गया। फिर भी करीब दो हजार वर्षोंतक वह आपसमें संबल बनाये रहे - एक ही वाक्यके आसरे - कि अगले वर्ष जेरुसलममें मिलेंगे - उनके लिये शब्द बना यहूदी डायास्पोरा - अर्थात बिखरे हुए यहूदी लोग। उसी क्रममें विश्व भरमें बिखरकर बसे हुए भारतीयोंको भी इंडियन डायास्पोरा कहा जाने लगा।
यहाँ विषयान्तर करते हुए एक उल्लेख अवश्य करना पड़ेगा कि सदियों पहलेसे अफ्रीका तथा अन्यान्य देशोंमें भारतसे व्यापारी समाज भी बहुतायतसे गया। ये प्रायः गुजरातसे थे और सम्पन्न थे। उन्होंने भी भारतीय संस्कृतिको वहाँ कायम रखा। एक तीसरा वर्ग भी है। 19वीं सदीमें अंगरेजोंने कई दक्षिण भारतीय लोगोंको अलग-अलग उपनिवेशोंमें क्लर्की और अकाउंटिंग संभालनेके लिये भेजा। उधर एशियाई देशोंके साथ समुद्री रास्तेसे संपर्क बनानेमें भी दक्षिण भारतीय, खासकर तमिल और तेलुगु लोग अग्रसर थे और बीसवीं सदीमें तो उच्च शिक्षित भारतीय भी बड़ी संख्यामें अमरीका तथा यूरोपमें बसने लगे हैं। इस प्रकार इंडियन डायास्पोरा शब्दका अर्थ अब अत्यंत ही व्यापक है। इन सभीका संबंध हिन्दी तथा भारतकी अन्यान्य भाषाओंसे है। इसीलिये मेरी दृष्टिमें वे भविष्यकालीन सम्मेलन भी हैं जिन्हें विश्व भारतभाषी सम्मेलन कहा जा सकता है।
लौट चलते हैं 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलनके आयोजन उपलब्धियोंपर। पहला मुद्दा है सरकारी आयोजनका। जब सरकार इस आयोजकत्वका भार स्वीकार करती है तब उससे एक विशिष्ट संकेत मिलता है कि इसके माध्यमसे सरकार अपनी कुछ नीतियोंको आगे बढ़ाना चाहती है। वे कौन-सी सरकारी नीतियाँ हैं जो हिन्दी भाषाके साथ परस्परावलंबिताका नाता रखती हैं? सम्मेलनकी थीम थी - वैश्विक हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति। इसलिये नीतिगत तीन प्रश्न उठते हैं - भारत सरकारकी हिन्दीको लेकर सन्निकट नीति, मध्यावधिकी नीति. एवं दूरगामी नीति क्या है? यही तीन प्रश्न संस्कृतिके संबंधमें भी उठते हैं और डायास्पोरा भारतीयोंके हिन्दी लेखनके संबंधमें भी उठते हैं।
इनके उत्तर क्या भारत सरकारकी किसी नीतिमें परिलक्षित होते हैं? मुझे तो नहीं दीखते। सामाजिक फैशनके चलते एक नीति परिचलनमें आई है कि यूएनकी भाषाओंमें हिन्दीको भी स्थान मिले। इस पर थोड़ा काम भी हुआ है। हालमें यूएनने अपने रेडियोसे सप्ताहमें एक बार हिन्दी बुलेटिन देना आरंभ किया है। इस एक मुद्देको छोड़ें तो सरकारके पास कोई अन्य मुद्दा ही नहीं है जिसे हिन्दीके लिये बनी नीति कहा जा सके। यह अभाव मैंने सूरीनाम और न्यूयार्कके सम्मेलनोंमें भी पाया था और दस मौलिक बिन्दु सुझाये थे जिन पर सरकारको अपनी नीति घोषित करनी चाहिये। लेकिन नतीजा नही दिखा तो फिर विश्व हिन्दी सम्मेलनके आयोजनका यश या उसमें सरकारी यजमानत्व यश हम किस निकष पर तौलेंगे?
यहाँ मुझे कुछ मुद्दे रखने है जिपर विमर्श आरंभ होना चाहिये।
सम्मेलनकी थीम थी - वैश्विक हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति। उद्घाटन सत्रमें भारतकी विदेशमंत्रीके साथ दोनों विदेश राज्यमंत्री, गोवा पश्चिम बंगालके राज्यपाल, गृह राज्यमंत्री एवं मानव संसाधन राज्यमंत्री उपस्थित थे। मॉरीशसके प्रधानमंत्री शिक्षामंत्री भी थे। अर्थात् यह एक पूर्णरूपेण सामर्थ्यवान मंच था। अटलजीके दुखद निधनकी शोकछाया सम्मेलन पर थी। उसे सुषमाजीने संवेदनापूर्वक संभाल लिया। उन्होंने घोषणा कर दी कि भोजनोपरान्त सत्र अटलजीके प्रति श्रद्धांजलि निवेदनका सत्र होगा और पहला सत्र उसी प्रकार उत्साहपूर्वक चलेगा जो अटलजी जीवित होते तो उन्हें अच्छा लगता। उन्होंने पिछले दसों सम्मेलनोंमें की गई अनुशंसाओको एकत्र करनेकी उनके अनुपालन पर ध्यान देनेकी बात भी कही। लेकिन विडम्बना है कि ये अनुशंसाएँ अभी भी विश्व हिन्दी सम्मेलनके पोर्टल तक नही पहुँच पाई हैं।
सम्मेलन में समानान्तर सत्र चले। शिक्षामें संस्कृति, लोक साहित्यमें संस्कृति, फिल्मोंमें, प्रवासी साहित्यमें, बाल साहित्यमें, संचार माध्यममें संस्कृति आदि संस्कृतिसे जुड़े विषयोंके अलावा सूचना प्रौद्योगिकीमें हिन्दी नामक सत्र भी था। यह ऐसा विषय है जो सूरीनामसे या शायद उससे पहलेसे चला रहा है। मेरे विचारमें यह एक अत्यंत गंभीर मुद्दा है जिसपर केन्द्र सरकार केवल उदासीन बल्कि गलत रास्तेपर भी है। इसीलिये नीतिकी बात मैंने उठाई।
प्रौद्योगिकीके क्षेत्रमें सरकारी नीति सदासे हिन्दी-विरोधी और अंगरेजी परस्त रही है, जो कि शिक्षा क्षेत्रमें उसी नीतिका प्रतिबिम्ब है। यह घटनाक्रम मैंने 1991 से अर्थात् पिछले 28 बरसों से देखा है। राजनेता नौकरशाह यह कहकर बचना चाहते हैं कि हम तकनीकमें नहीं जायेंगे - हमारा काम तो नीति बनानेका है। तो देशमें अवश्य ही कुछ ऐसी शक्तियाँ हैं जो सामान्यजनकी आँखोंसे दूर हैं परन्तु तकनीकि विशेषज्ञोंको अपनी जेबमें रखती हैं। ये ही वे शक्तियाँ भी हैं जो केंद्र सरकारसे ऐसी नीतियाँ बनवाती हैं जो हिन्दीको दुय्य स्थानपर डाल दे और अंगरेजीको ही हर जगह प्रश्रय दे। देशमें सरकार किसी भी पार्टीकी हो, वे इन शक्तियोंकी चातुर्यभरी रणनीतिसे नहीं बच सकतीं। इसीलिये हमें हिन्दीकी दुर्दशा प्रौद्योगिकीके क्षेत्रमें भी देखनेको मिलती हैं।
सूरीनामके सम्मेलनमें मैंने प्रेक्षककी हैसियतसे यह मुद्दा उठाया था कि सी-डैकके ही कुछ वैज्ञानिकों द्वारा बनाया गया इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड हर तरहसे भारतीय भाषाओंके लिये सरल सुलभ है क्योंकि इसकी संरचना हमारी वर्णमालाके चार्टकी तरह उसी क्रमसे की गई है। जिन भी बच्चोंने पहली कक्षामें कखगघ से क्षत्रज्ञ तकका वर्णमाला चार्ट सीखा हो, वह चाहे चौथी कक्षामें स्कूल छोड़ दे या बारहवींमें - लेकिन वह कम्प्यूटर पर लेखन अवश्य कर सकता है। तब मंचासीन एक विद्वानने कहा था कि बहनजीको समझना चाहिये कि देशका युवा अंगरेजी जानता है, यह देशकी स्ट्रेंग्थ है, इसलिये हम सी-डैक द्वारा बनाया गया वह दूसरा की-बोर्ड अपनाते हैं जो रोमन फोनेटिक अर्थात क्वर्टी को-बोर्डकी सहायतासे भारतीय भाषाएँ लिखता है। हमारा ध्यान इस ओर होना चाहिये कि कैसे हमारा युवा अधिकतासे कम्प्यूटरका प्रयोग करे और यदि उसने क्वर्टी की-बोर्ड सीखा ही हुआ है तो वह दूसरे की-बोर्ड सीखनेके लिये समय क्यों खराब करे।


मुझे हठात् ध्यान आया कि अरे, इस सम्मेलनसे कुछ ही महीने पूर्व सोनिया गाँधीने विज्ञान भवनमें आयोजित एक कार्यक्रममें रोमनागरी शब्दका प्रयोग किया था। उन्होंने अपने संभाषणमें कहा कि इस देशके युवाओंको लेखकोंको रोमनागरीके माध्यमसे अर्थात् फोनेटिक पद्धतिसे हिंदी अन्य भारतीय भाषाएँ लिखनेके लिये एक तोहफा देते हैं, हमारी सरकार सी-डैकके माध्यमसे ऐसी एक करोड़ सीडी मुफ्त उपलब्ध करवायेंगी जिसे अपने कम्प्यूटर पर अपलोड करके आप bharat लिखेंगे और स्क्रीन पर देवनागरी या कन्नड़ इत्यादि में भारत लिखा दिखाई पड़ेगा।
सूचना प्रौद्योगिकीमें हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओंको दुय्यम बनाकर रोमन लिपीको प्रस्थापित करनेकी एक सशक्त नीति बनाना उसे अमलमें लाना - इसका उत्तम उदाहरण उस दिन देखनेमें आया।
सूरीनामके मंचासीन प्रौद्योगिकी विद्वान भी उसी रोमनागरीकी जय बुलन्द कर रहे थे और हिन्दी प्रेमियोंसे कह रहे थे - खुशी मनाओ - कमसे कम तुम्हारी स्क्रीनपर हिन्दी दिखती तो है - भले ही तुम्हें उसे रोमन स्पेलिंगके आधारसे लिखना पड़ता हो।
तबसे अबतक तेरह वर्ष बीत गये, चार सम्मेलन भी हो गये। ग्यारहवें सम्मेलनमें भी समापन सत्रमें प्रौद्योगिकी अनुशंसाए पढते हुए बड़े ही धीमे स्वरमें कहा गया कि हिन्दीको देवनागरीमें ही लिखा जाये। लेकिन ऐसी अनुशंसा नही की गई। तो अनुशंसाकर्ताको और मंचासीन किसीको यह पता है कि हिन्दीसहित सभी भारतीय भाषाओंको वर्णमाला-अनुसारी इनस्क्रिप्ट की-बोर्डकी सहायतासे देवनागरीमें लिखा जा सकता है, उनके सबके कम्प्यूटरोंमें यह प्रणाली विराजमान है, और वह इंटरनेटपर टिकाऊ है - लेकिन उनकी आँखों पर पड़ी रोमनागरी प्रेमकी पट्टीको कौन खोले?
पाठक अवश्य पूछ सकते हैं कि क्या संपूर्ण प्रौद्योगिकीमें हिन्दीकी बहस इतनीसी बात पर है कि अपने हिन्दी लेखनको कम्प्यूटरपर उतारनेके लिये हम रोमका सहारा लेते हैं या देवनागरीका? नही, लेकिन यह एक प्राथमिक मुद्दा क्यों है इसे पहले समझते हैं।
पहली बात यदि आप हिन्दी लेखनके लिये रोमन की-बोर्डपर निर्भर हैं तो आप अपनी लिपीको शीघ्र ही भूलने वाले हैं। बल्कि आपने भूलनेकी पहली सीढ़ी पार कर ली है। अपनी परीक्षा आप कर लीजिये कि आप abcd से xyz तक कितनी सरलतासे पहुँचते हैं और कखगघ से क्षत्रज्ञ तक पहुँचनेमें कितना अटकते हैं। अर्थात् वर्णमाला आप भूल ही रहे हैं। अब लिपी भूलनेमें भी क्या हर्ज है? गौर करिये कि आपके टीवी चैनलोंपर हरेक हिन्दी प्रोग्रामके नाम रोमनमें लिखे होते हैं, यहाँ तक कि सरकारी चैनल दूरदर्शन, लोकसभा राज्यसभा टीवीपर भी। यह सारा किस मंजिलका परिचायक है?
दूसरी बात उन 70 प्रतिशत बच्चोंसे संबंधित है जो आठवींतक पहुँचनेसे पहले स्कूल छोड़ देते हैं या उन 85 प्रतिशत बच्चोंसे है जो बारहवींसे पहले शिक्षा छोड़ देते हैं। ऐसे बच्चोंसे हम कहते हैं - तुम्हें देवनागरी पद्धतिसे तुम्हारी भाषा लिखना नहीं सिखायेंगे। या तो रोमन स्पेलिंग लिखना सीखो या फिर तुम्हें प्रौद्योगिकीके क्षेत्रमें प्रवेश वर्जित है, भले ही वह रेलवे रिजर्वेशन जैसी छोटी-सी बात भी क्यों हो।
तीसरा मुद्दा आता है उन तमाम डायस्पोरा भारतीयोंका जो हिन्दी या भारतीय भाषाओंमें लेखन करते हैं परन्तु रोमन वर्णाक्षरोंसे लिखनेके लिये मजबूर हैं। 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलनका प्रबंध करनेमें मॉरीशसकी विभिन्न संस्थाओंके कुल पांच-छह सौ कर्मचारी लगे हुए थे। उनमेंसे कइयोंको मैंने मीडिया कक्ष ले जाकर इनस्क्रिप्ट द्वारा देवनागरी लेखन विधि दिखाई तो उन्होंने इसे बड़ी सरलतासे सीख लिया। इसके बावजूद सभी विश्व हिन्दी सम्मेलनोंमें यह केवल अनुशंसा मात्र रह जाती है इसका 10 मिनटका डेमोन्स्ट्रेशन भी नहीं दिखाया जाता। या तो मंचपर विचरने वाले प्रौद्योगिकी एक्सपर्ट इस सुविधाके विषयमें पूर्ण अज्ञानी हैं या फिर रोमनके इतने अधिक शरणागत कि जानते हुए भी इस देवनागरी सुविधाको दबा जाते हैं।
तो स्पष्ट दिखता है कि अनुशंसाकर्ता देवनागरी लेखन सुविधाका मुद्दा तुच्छ मानते हुए अधिक महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी समस्याओंकी बात करना चाहते हैं। उनकी अनुशंसाएँ इस प्रकार रहीं -
1. हिन्दी शिक्षाको समाजके प्रत्येक स्तरपर लागू किया जाये।
2. युनिकोड स्क्रिप्टको र्चेबल किया जाये।
3. बैंकिंग सेक्टरमें युनिकोडका प्रचार-प्रसार किया जाये।
4. सभी निजी सरकारी सेवाएँ हिन्दीमें उपलब्धकी जाएँ।
5. बीमा, अंग्रेजीमें प्राप्त आईटी सोल्यूशनको हिन्दीमें किया जाये।
6. भारतीय भाषाओंके प्रचार-प्रसार हेतु सभी वेबसाइट्स द्विभाषी (अंग्रेजी और हिन्दी) स्वरूपमें किया जाये।
7. यूनिकोड का मानकीकरण किया जाये।
(संदर्भ - सम्मेलन की ओर से प्रकाशित हिन्दी विश्व का अंक-4)


उपरोक्त अनुशंसा क्रमांक 2, 3 7 अत्यंत ही दुर्बोध हैं और दर्शाती हैं कि इन्हें युनिकोडकी ही जानकारी नहीं है। युनिकोड एक कोड codeहै - एक मानक है। unicode.org नामक वेबसाइटपर युनिकोडके विषयमें यह लिखा है -
computers just deal with numbers. They store letters and other characters by assigning a number for each one. Before Unicode was invented, there were hundreds of different systems, called character encodings, for assigning these numbers. These early character encodings were limited and could not contain enough characters to cover all the world's languages. Even for a single language like English no single encoding was adequate for all the letters, punctuation, and technical symbols in common use.These different encodings were not compatible with each other.
The Unicode Standard provides a unique number for every character, no matter what platform, device, application or language..........
अर्थात् युनिकोड स्वयंमें एक मानक है तो जब कहा जाता है कि युनिकोड स्क्रिप्ट सर्चेबल किया जाये तो प्रश्न उठता है कि ये युनिकोड स्क्रिप्ट क्या होता है जिसे गूगल सर्च पर सर्चेबल करनेकी बात हो रही है? इसी प्रकारका तकनीकी अनर्थ तीनों अनुशंसाओंमें है। युनिकोडका मानकीकरण - यह शब्द ही कितना हास्यास्पद है- क्योंकि युनिकोड स्वयंमेंही एक मानक है। आपको अपने कम्प्यूटर लेखनकी विधाको युनिकोडके मानकानुसार ढालना पड़ता है ताकि वह विश्वके किसी भी कम्प्यूटरपर खुले तो जंक न हो जाये। कभी एक मंत्रीने कहा था कि यदि हम क्लाउड पर अपना डाटा रखेंगे तो बादल फटनेकी या बरसनेकी स्थितिमें सारा डाटा बह जायेगा। युनिकोडका मानकीकरण करनेकी बात करना कुछ ऐसा ही है। जब ऐसी अनुशंसा विश्व हिंदी सम्मेलनके मंचसे की जाती हो तो अपने दुर्भाग्यपर रोनेके सिवा हिन्दी और क्या कर सकती है?
एक अनुशंसा है कि सरकारी वेबसाइट्स द्विभाषी हों। ये क्यों भई? आज किसी भी सरकारी वेबसाइट को देख लीजिये - वह दोनों भाषाओं में है - अंग्रेजीमें और हिन्दी या अन्य राज्यभाषामें। अर्थात् क्या हम मान लें कि अनुशंसा करनेवालोंने कभी सरकारी हिन्दी वेबसाइट्सको खोलकर देखा ही नहीं? जो वे नहीं जानते वह असल बात यह है कि सरकारी हिन्दी वेबसाइटें हैं तो जरूर, लेकिन आधी अधूरी, अंग्रेजी शब्दोंसे भरपूर और कभी अप-टू-डेट न की जानेवाली। यहां तक कि पीएमओकी वेबसाइट भी इससे अछूती नहीं है। मुंबईकी एक हिन्दी सेवी महिला इस विषयपर विभिन्न विभागोंको पत्र भेजकर पूछती रहती हैं, उनकी पत्र संख्या 500 से अधिक हो गई है पर एक भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। इसके पीछे एक विशुद्ध तकनीकी कारण है जिसका उल्लेख मैंने कतिपय अन्य लेखोंमें किया है और उससे छुटकारेका उपाय भी इनस्क्रिप्ट ही है। लेकिन शायद सरकारी समितियाँ इस बात को भी समझती हैं कि जबतक प्रश्नका समाधान न मिले तबतक समिति व कुर्सी बरकरार रहती है। तो हो न हो समितियाँ केवल अनुशंसा ही चाहती हैं परन्तु अनुपालन नहीं।
मैं कुछ ऐसी अनुशंसाओं को शब्दांकित करना चाहूंगी जहाँ हिन्दी व प्रौद्योगिकीका एकत्र संबंध है और जो जनजनको प्रभावित करती हैं।
पहली अनुशंसा है कि इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड जो भारतीय वर्णमालाके अनुसार बनाया होनेकी वजहसे अत्यंत सरलतापूर्वक सीखा जा सकता है, सरकार इसीको भारतीय भाषालेखनका मानक घोषित करे। सी-डॅकके भूतपूर्व वैज्ञानिक श्री मोहन तांबेने १९९१ में ही इसका सरलतम कैरेक्टर कोड बनाकर उसे बीआईएस द्वारा भारतीय मानक स्वीकार करवा लिया था। १९९५में युनिकोड कन्सोर्शिमने भी इसे भारतीय भाषाओंके मानक-रूपमें स्वीकार किया जिससे यह लेखन इंटरनेटपर टिकाऊ है - जंक नही होता है।
दूसरी अनुशंसा है कि यह सरलतम की-बोर्ड और उसका
सरलतम कैरेक्टर कोड बनाकर उसे ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टेण्डर्डसे मानक-मान्यता दिलवानेवाले श्री मोहन तांबेको पद्मश्रीसे सम्मानित किया जाये। साथ ही सी-डैकके लिये करीब पचीस-तीस सुंदरसे फॉण्ट-सेट बनाने वाले आर्टिस्ट व केलीग्राफर श्री र.कृ. जोशीका सम्मान किया जाये। इसी प्रकार श्रीलिपि व कृतिदेव जैसी प्राइवेट संस्थाओंके लिये सुन्दर फॉण्ट-सेट्स बनाने वाले कैलीग्राफरोंका भी सम्मान किया जाये। इन सुंदर फॉण्ट-सेटोंके कारण भारतीय प्रकाशकोंको अतीव फायदा हुआ है और प्रकाशन क्रांतिकी पहली सीढ़ी - अर्थात प्रकाशन सामग्रीको कम्प्यूटरसे तैयार करना - हमने पार कर ली है।
तीसरी अनुशंसा है कि इन सभी फॉण्ट-सेटोंके प्रोपाइटरी हक रखनेवालोंसे कहा जाय कि इन्हें इनस्क्रिप्ट की-बोर्डपर उपलब्ध करवायें। तब प्रकाशन क्रांतिकी दूसरी सीढ़ी पार होगी।
प्रकाशन क्रांतिकी तीसरी सीढ़ी पार करना भी अत्यावश्यक है। हमारे प्रायः सभी प्रकाशक पेजमेकर नामक सॉफ्टवेयरका एक पुराना पायरेटेड संस्करण प्रयोगमें लाते हैं जो युनिकोड मानांकनके साथ कम्पटेबल न होनेसे इनस्क्रिप्टकी लिखावटमें परेशानी उत्पन्न करता है। उनके नये संस्करणमें यह दोष नहीं है। परन्तु उसे पायरेट नहीं किया जा सकता, वरन खरीदना पड़ता है या फिर उनके क्लाउडसे रियल टाइम पेमेंट पद्धतिसे प्रयोग किया जा सकता है। यह खर्चा अगर प्रकाशकों पर भारी पड़ता हो तो सरकारको इसमें कुछ कन्सेशन करवानेका प्रयास करना पड़ेगा।
कम्प्यूटर व आईटीके क्षेत्रमें दुनियाभरमें फैले तमाम कम्प्यूटर इंजीनियरोंका आवाहन कर उनके द्वारा एडोब पेजमेकर जैसा कोई सॉफ्टवेयर भारतीय भाषाओंमें बनवाना आवश्यक है। यह भी सरकारी नीतिमें होना चाहिये। जैसा मैं पहले भी लिख चुकी हूं कि प्रतिभावान वैज्ञानिकोंकी भर्ती करानेके बावजूद सी-डैक इस काममें असफल ही रहा है और रहेगा क्योंकि वे देशहितकी नीतिसे काम नहीं करते।
सरकारी हिन्दी वेबसाइटोंकी दुर्दशाके सही कारण दो हैं। पहला यह कि सरकारी टंकण अभी भी पूरी तरहसे इनस्क्रिप्ट आधारित नहीं है। हिन्दी टाइपिस्टोंकी परेशानी है कि उन्हें गूगल इनपुटका सहारा लेना हो तो पहले हर शब्दका स्पेलिंग रोमनमें सोचना पड़ता हैजिस कारण टंकणका वेग कम हो जाता है। पुरानी पद्धतिसे टंकण करनेपर वह इंटरनेट-टिकाऊ नही रहता। इसीलिये सरकारी टंकणमें इनस्क्रिप्ट की-बोर्डका प्रयोग अनिवार्य कर देना चाहिये गूगल इनपुटकी तुलनामें इनस्क्रिप्टके प्रयोगमें की-स्ट्रोक्सकी संख्या बीस प्रतिशत कम हो जाती है दुर्भाग्यवश गृह मंत्रालय या राजभाषा विभागने अभी तक इनस्क्रिप्टके लिये कोई प्रबंध नहीं किया है।
दूसरा कारण -- सरकारी हिन्दी वेबसाइटें यथाशीघ्र अपडेट हों इसके लिये यह भी आवश्यक है कि वेब-पेजोंमें जो तत्काल शुद्धियाँ करनी हों, उनका उत्तरदायित्व व अधिकार उस-उस विभागके ही एक नोडल अधिकारीको दिया जाये क्योंकि सद्यस्थितिमें ऐसी शुद्धियोंके पीडीएफ पेज बनवाने पडते हैं जिसका अपलोडिंग क्लिष्ट होनेसे केवल एनआईसीके पास भेजकर ही हो सकता है। तो प्रतीक्षा की जाती है कि उनकी कतारमें जब नंबर आयेगा तब शुद्धि होगी।
इसके आगे हमें लिप्यंतरण ओसीआर व अनुवादके मुद्दोंपर ध्यान देना होगा। भारतीय भाषाओंके तत्काल आपसी लिप्यंतरणके लिये अपना समय व परिश्रम लगाकर अक्षरमुख सॉफ्टवेयर बनाने वाले व उसे फ्री डाउनलोडके लिये उपलब्ध करनेवाले लंदन स्थित वैज्ञानिक विनोदको सम्मानित किया जाना चाहिये।
भारतीय भाषाओंके आपसी अनुवादके लिये अंग्रेजीको माध्यम बनानेकी बड़ी भूल सी-डैक व गूगल दोनों करते हैं। इसलिये अभी तक वे सफल नहीं हो पाये। इसकी बजाय संस्कृतको माध्यम बनाना आवश्यक है। इस दिशामें भी कुछ युवा इंजीनियर प्रयास कर रहे हैं, उन्हें प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये।
कुल मिलाकर बात वहीं आ जाती है कि सरकार यदि प्रश्नोंको समझकर नीति बनाये तब तो इस प्रकारके सम्मेलनोंका बहुत बड़ा उपयोग उन नीतियों को पूरा करनेके लिये हो सकेगा, लेकिन घोषित नीतिके बिना ये सम्मेलन विफल ही रहेंगे।
वैसे सम्मेलनमें सहभागियोंके उत्साहमें कोई कमी नहीं थी। कभी कभारकी कठिनाई छोड़ दें तो संयोजनमें हर कोई मनोयोगसे काम कर रहा था। मॉरीशसकी जनताकी सहभागिता मुझे कम दिखी जो बहुतसे लोग थे वे वहांके सरकारी कर्मचारी होनेके नाते ड्यूटीपर तैनात व्यक्ति थे। कुछ भावनात्मक उपलब्धियाँ भी रहीं - मसलन मॉरीशसके सायबर टॉवरका नाम अटलजीपर रखा। मॉरीशसके प्रधानमंत्रीने घोषणा की कि यूएनमें हिन्दीको प्रस्थापित करनेका मुद्दा वे पूरी शक्तिसे उठायेंगे इत्यादि। लेकिन हिन्दीकी गति ऐसी ही रही कि किसीने उसकी नावको समुद्रमें बिना पतवार उतार दिया हो, कि जाओ अब लहरेंही तुम्हारा भविष्य तय करेंगी।
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