बुधवार, 19 जनवरी 2011

कम्प्यूटर व हिन्दी -- विश्वहिन्दी सेक्रेटारिएट Jan 2011 issue

कम्प्यूटर व हिन्दी
स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हिन्दी को उच्चतम स्थान था। पर आज वह जैसे लुप्त हो गया है। संगणक (कम्प्यूटर) पर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओंके निरंतर पिछडते रहने पर स्थिति और भी कठिन होगी। इसे समय रहते कैसे सुधारा जाय, इसके लिये सभी की सम्मिलित सोच व प्रयास आवश्यक हैं। आधुनिक जगतमें संगणकोंने एक अभूतपूर्व क्रांति पैदा की है। ज्ञान, वैज्ञानिकता और प्रगती के हर शिखर के लिय़े प्रयुक्त हर सीढीमें संगणक-तंत्र अत्यावश्यक है। भाषाई विकास भी इसके बिना असंभव है – यह बोध भी कई चिन्तकोंमें आ गया है। तो देखते हैं इसके कुछेक पहलू।

भाग - १ तंत्र -विश्लेषण
पाँच मिनटोंमें संगणकपर हिंदी सीखें
हमारे नब्बे प्रतिशत संगणक उपभोक्ता नही जानते कि संगणक पर हिंदी (पूरी बात कहूँ तो हरेक भारतीय भाषा) सीखने के लिये एक युक्ति है जिसमें केवल आधा घंटा पर्याप्त हैं। वह भी अंग्रेजी टंकन-ज्ञान पर निर्भरता के बिना।

जब संगणकका प्रचलन काफी बढ गया तो कई बुद्धिजीवियोंने कामचलाऊ अक्षरज्ञानकी श्रेणीका अंग्रेजी टंकलेखन सीख लिया और कईयोंने इसे अपने बसके बाहर बताकर मुँह मोड लिया। हिन्दी टंकलेखन कर पानेकी बात तो किसी अजूबे जैसी थी। उन सबकी जानकारी के लिये पहले देखें कि यह युक्ति क्या हे। इस युक्तिका नाम है इनस्क्रिप्ट की-लेआउट अर्थात् संगणकके कुंजीपटलपर चलनेवाला एक विशिष्ट वर्णक्रम।

इस लेआऊटमें वर्णोंका क्रम वैसे ही चलता है जैसा हमने कक्षा एकमें पढा होता है -- अर्थात् कखगघ..., चछजझ..., य़ा अआइईउऊ... । अतः कुञ्जियां खोजनेकी दिक्कत नही है, जो अंग्रेजी सीखनेमें है या पुराने कालमें बने हिन्दी टाइपराइटर मशीनोंमें हुआ करती थी। साथही इसमें तमाम व्यंजन दायें और स्वरकी मात्राएँ बाँये हाथसे लगानेका चलन है, जिससे अपनेआप एक लयसी बँध जाती है। आपको लगता है मानों आप तबला बजा रहे हैं और थोडीही प्रॅक्टिसमें टंकनकार्य में अच्छी गति आ जाती है। क्षिप्रतासे सीख पानेका यह भी एक कारण है।

(संभव हो तो यहाँ रुककर पहले यह वीडियो देखें।)
http://www.youtube.com/watch?gl=GB&hl=en-GB&v=0YspgTEi1xI&feature=user

अब चिन्ता छोडें की आपके कुंजीपटलपर हिंदी स्टिकर तो लगे ही नही हैं -- बस निश्चिंत होकर देखें यह युक्ति।

पहले दो मिनटोंमें सीखें बीस अक्षर
सामान्य कुंजीपटलके अंग्रेजी अक्षर K-I की जोडी देखें जो एक दूसरे के पास पास ऊपर-नीचे हैं। यही कख और गघ हैं। अगली दो कुंजियाँ L-O हैं जो तथ, दध के लिये हैं, अगली चछ,जझ की और उससे अगली टठ डढ की। क के बाँई ओरपहले रह,ङ औरउसके बाँये H-Y पर पफ, बभ हैं। कुंजियोंकी ये जगहें समझकर आत्मसात् करनेको दो मिनट पर्याप्त हैं।
कठिन (भारी) अक्षरके लिये (अर्थात् खघ,थध,छझ,ठढ,फभ) शिफ्टके साथ कुंजी दबानी होगी।




अगले दो मिनटोंमें सीखें और बीस अक्षर

बाँईं ओर की पाँच कुंजी-जोडियाँ दस स्वरोंके लिये हैं। इन्हे भी हमने पहली कक्षामें रटा था -- अआइईउऊएऐओऔअंअः ।
इनका क्रम ओऔ,एऐ,अआ,इई,उऊ रखा गया है। शिफ्टकुंजी के साथ लिखनेपर स्वतः स्वर लिखा जाता है परन्तु किसी व्यंजनकी मात्रा लगाने के लिये शिप्ट कुंजी नही लगेगी।
इस प्रकार दस मात्राएँ तथा उन्हें लगाने का तरीका समझने के लिये अगले दो मिनट पर्य़ाप्त हैं।

इन कुंजियोंको समझकर यदि हम प्रॅक्टिस करें --
काकी, चाची, दादी, ताई, ताऊ, बाबा, पापा, काका, चाचा, टाटा -- तो इस कुंजी रचना की सरलता तत्काल मोह लेती है।

बचे अक्षरोंको एक बार ढूँढ कर समझ जा सकता है। शिफ्टके साथ ५,६,७,८, व + अंकोंकी कुंजियोंसे ज्ञ त्र क्ष श्र तथा ऋ लिखते हैं। सबसे निचली पंक्ति में तिसरी कुंजीसे आरंभ कर म (शिफ्ट के साथ ण), न, व, ल (शिफ्ट के साथ मराठी, कन्नड आदि भाषाओंका ळ), स (शिफ्ट के साथ श), ष तथा अन्तिम कुंजीपर य (शिफ्ट के साथ बंगालीका दूसरा य) हैं। ड से अगली कुंजी पर ञ है। जरासे अभ्यास से ये याद हो जाते हैं।

अनुस्वार के लिये अक्षर लिखने के बाद अंग्रेजी X की कुंजी (शिफ्ट के साथ लगानेपर चंद्रबिंदु) लगायें।

संयुक्त अक्षर
संस्कृत के नियमानुसार व्यंजन में अ लगाकर उसे पूरा किया जाता है। जब कि यहाँ केवल अक्षरकी कुंजीसे ही पूर्ण व्यंजन लिखा जाता है ताकि अ की मात्रा बारबार न लगानी पडे। अतः इस कुंजीपटलमें अ की कुंजी का उपयोग हलन्त के लिये करते हैं।
इस प्रकार क्रम लिखने के लिये क हलन्त र म
परंतु कर्म लिखने के लिये क र हलन्त म
लिखा जायगा।
कृपा ले लिये क में ऋ की मात्रा (बिना शिफ्ट के)
और विसर्ग चिह्न के लिये शिफ्टके साथ –(डॅश) की कुंजी लगती है।

बाजार के कैसे कैसे खेल
संगणक पर यह सब पढनेमें जितना समय लगता है उससे आधे समय में ही यह सीखकर आप खुश हो सकते थे बशर्ते कि इसे बनानेवाली भारत सरकार इसे लागू करने में आलस न करती। लेकिन हमारे सौभाग्यसे उससे रास्ता निकाल गया, बस आपको अपने windowsXP के माध्यमसे पहली बार ऐसी सुविधा लगानी पडेगी जो हो सकता है कि आपके संगणकमें बाय डिफॉल्ट न लगी हो। इसे लगाने या जाँचने का तरीका यों है--
Go to
start -> setting -> control panel -> Regional and Language -> click
एक खिडकी खुलेगी जिसके ड्रॉप-डाउन मेन्यू पर लिखा होगा - ENG. मेन्यूमें संसारकी बीसियों भाषाएँ मिलेंगी, और यदि हिंदी भी मिल जाय तो उसे क्लिक करें और अप्लाय तथा ओके के बटन भी दबायें। ऐसा करते ही संगणककी सबसे नीचेवाली पट्टीपर (टास्क-बार पर) EN दीखने लगेगा और क्लिक करनेपर हिंन्दी का ऑप्शन भी मिवेगा।
अब वर्ड या इंटरनेट खोलकर हिंन्दी का ऑप्शन ले आइये और हिंदी लिखना आरंभ करें।
Regional and Language के मेन्यू में हिंदी न मिले तो विण्डोज की सीडी से i-186 फाइल लोड करनी पडेगी, ताकि लॅंग्वेज बँक में हीन्दी आ जाये। इसी तरीकेसे दूसरी भारतीय भाषाओंको भी संगणक पर सामने लाया जा सकता है। यदि आप ओपन ऑफिसका प्रयोग करते हैं तब भी Regional and Language के मेन्यू से हिन्दी को सामने लाया जा सकता है।


भाग -२ समाज-शास्त्रीय विश्लेषण
एक सांस्कृतिक संकट


आप पूछ सकते हैं कि क्या संगणक पर हिन्दी लिखने का मात्र यही तरीका है। वाकई और भी तरीके हैं लेकिन मैंने इसे सबसे सरल पाया है। दूसरे तरीकेमें कुंजीपटल पर ठीक उसी प्रकारका वर्णक्रम सजाया गया है जैसा टाइपराइटरोंमें रखा गया था और इसे टाइपराइटर तरीका कहते हैं। 1985 में जब बडे पैमाने पर संगणक के लिये हिन्दी सॉफ्टवेअर बनने लगे तब यही तरीका अपनाया गया अतः पहले से ही टाइपराइटरी सीखकर टाइपिस्टकी नौकरी करनेवाले लाखों-करोडों क्लर्कों के लिये टाइपराइटर को हटाकर संगणकपर काम करना तत्काल सुलभ हो गया। लेकिन इसे सीखने के लिये किसी टाइपिंग ट्रेनिंग संस्थामें कमसे कम छः महीनेकी ट्रेनिंग आवश्यक है। साधारण व्यक्ति बडा मनोधैर्य जुटाकर किसी तरह अंग्रेजीका उल्टापुल्टा कुंजीपटल तो धीरे धीरे सीख लेता है, लेकिन हिन्दी टाइपराइटरोंवाला कुंजीपटल उससे भी गहन है। जिसे नये सिरेसे टाइपिंग सीखनी हो वह इतना अधिक समय लगाकर उसे क्यों सीखे। नये व्यक्तिके लिये इनस्क्रिप्ट का तरीका ही सबसे अच्छा एक जमाना ऐसा था जब टाइपराइटर और इनस्क्रिप्ट, दोनों तरीकों से लिखा गया आलेख महाजाल पर नही यिकता था लेकिन भला हो युनीकोड और गूगलवालोंका कि अब इनस्क्रिप्ट तरीकेसे लिखनेपर वह आलेख महाजाल पर टिक जाता है। यह भी एक कारण है कि हमें जल्द से जल्द टाइपिंग ट्रेनिंग संस्थावाला तरीका छोडकर उन संस्थाओं में इनस्क्रिप्ट तरीकेसे सिखाना पडेगा। लेकिन अभी तक उन संस्थाओं में यह प्रगतिशील सोच नही पहुँची है।
संगणक पर हिन्दी लिखने का तीसरा तरीका भी है जो किसी जादूगर के ट्रॅप जैसा है – लुभावना, आकर्षक, कम कठिन, और भारतीय भाषाई-संस्कृति की जड काटनेवाला। यह है युनीकोड, और गूगल प्रणीत रोमन-फोनेटीक तरीका, जिसमें आप किसी शब्दको अंग्रेजी स्पेलिंग के साथ लिखेंगे ते संगणकके पडदेपर वह देवनागरी में उभरेगा। और उसका प्रिंट भी देवनागरी में ही होगा। यह तरीका भी इस लिये सरल लगता है कि क्योंकि इसका अंग्रेजी कुंजीपटल हमेशा हमारे सामने होता है और एक बार अंग्रेजी सीख लेने के बाद हम धीरे धीरे यह कबूल कर लेते हैं कि चलो, हिन्दी की सुविधा अंग्रेजीके माध्यम से लेने में कोई हर्ज नही है।
लेकिन जरा झाँककर देखनेसे ही इसका खतरा देखा जा सकता है। आज हम ‘भाषा‘ शब्द लिखने के लिये यह नही सोचते कि इसे लिखने के लिये भ में आ लगाकर फिर ष में आ लिखा जाना है। हम सोचते हैं कि हमें पहले bha लिखकर फिर sha लिखना है। अर्थात् हमारी सोच अंग्रेजीयत की ओर झुकती चली जाती है। दस वर्षें के बाद यह कहा जा सकता है कि तुम्हें ‘भाषा‘ शब्द पढने के लिये देवनागरी में दीखना क्या जरूरी है, तुम तो bhasha लिखा होनेपर भी इसे पढ ही लोगी।
एक सामाजिक संकट
लेकिन मैं दस वर्ष बाद के नही बल्कि आज के ही एक बडे संकट की चर्चा यहाँ उठा रही हूँ। भारत के आँकडे बताते हैं कि हमारे अस्सी प्रतिशतसे अधिक बच्चे आठवींसे ऊपर पढाई नही करते और उनके लिये अंग्रेजी पढना-लिखना कठिन होता है। चाहे हम उनसे कहें कि रोमन फोनेटिक विधि से हिंदी टाइपिंग करो या कहें कि अंग्रेजी न जानने के कारण तुम्हें संगणक की दुनिया में प्रवेश नही है – दोनों बातें एक ही हैं।
परन्तु यदि हम उन्हें अंग्रेजी का आग्रह किये बिना इनस्क्रिप्ट के तरीके से पढायें तो वे पंद्रह दिनों में अच्छी स्पीडसे टाइपिंग करने लगते हैं, इस प्रकार स्कूल ड्रॉप आउट की बेरोजगारी मिटाने का एक सशक्त माध्यम भी हमारे हाथों में है जो रोमन फोनेटिक के तरीके में संभव नही है। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकती कि मेरे घर में काम के सिलसिलेमें आनेवाले कम शिक्षित लोग जैसे काम करनेवाली महरी, उसके बच्चे, अखबार डालनेवाले, धोबी, ड्राइवर, इत्यादि को मैं मेरे ही कम्प्यूटर पर इनस्क्रिप्ट पद्धतिसे टाइपिंग करना सिखाती हूँ फिर उनसे टाइपिंग का काम करवाकर अलग से उसका मेहनताना देती हूँ। एक बार एक घर में कुछ फर्निचर का काम निकला। पाँच-छः लोग बीस-पच्चीस दिन काम करते रहे। उनमें एक बेगारी भी था जिसे बहुत काम नही था। उसे मैंने यह तरीका सिखाया और उसने मेरे करीब तीस पन्ने टाइप कर दिये। मैंने मेहनताना दिया तो बोला मुझे एक चीज और चाहिये – सारे पन्नोंका एक एक प्रिंट आउट – मैं उन्हे अपने घर में दीवारोंपर सजा कर रखूँगा कि यह मैंने किया हे। मुझे लगा कि दुनिया के किसी मेहनतानेसे अधिक उसके लिये गर्व और अभिमान की बात थी कि अब उसे कम्प्यूटर की दुनिया में प्रवेश मिल गया है।
मैंने ऐसे कितने ही बच्चे देखे हैं कि संगणक देखकर उनकी आँखों में एक चमक आ जाती है कि उन्हें भी यह सीखना है। फिर उनसे कहा जाता है कि तुम अंग्रेजी जाननेवाले नही हो इसलिये संगणककी दुनिया में तुम्हारे लिये जगह नही है। जब मैं उनसे कह पाती हूँ कि केवल हिन्दी के ज्ञानपर ही तुम संगणक सीख सकते हो, तो उन आँखों की चमक फिरसे आ जाती है। लेकिन मैं अकेली कितने बच्चों तक पहुँच सकती हूँ। यदि इनस्क्रिप्ट के तरीके की पढाई हमारी पाँचवी-छठी कक्षामें शामिल की जाय तो संगणक के कारण पैदा होने वाली इस ज्ञान की खाई को हम पाट सकते हैं।
यह समस्या केवल हिन्दी की नही बल्कि हर भारतीय भाषा की है और हरेक का उत्तर यही है क्योंकि ऊपर जो कुंजीपटल का चित्र मैंने दिखाया है वही मल्याळी, गुजराती से लेकर बंगाली, ओरिया अर्थात् हर भारतीय भाषा के लिये प्रयुक्त होता है। यही समस्या और यही उत्तर नेपाल, श्रीलंका, तिब्बत थाइलैंड, आदि उन सभी देशोंके लिये भी है जहाँ की व्रर्णमाला संस्कृत से उत्पन्न है और जहां बच्चे अभी भी पहली कक्षामें अआइईउऊ... व कखगघचछजझ पढते हैं। अपने और उन देशोंके स्कूल-ड्राप-आउट्स को न्याय दिलाना है तो बिना अंग्रेजी जाने इनस्क्रिप्ट कुंजीपटल के माध्यम से संगणक का रास्ता उनके लिये प्रशस्त करना होगा।
भाग– 3 फिर एक बार तंत्र – विश्लेषण
आज भी कई जानकार सबसे बडा प्रश्न उठाएंगे कि क्या हिन्दीमें लिखे गये आलेख महाजाल (इंटरनेट) पर टिक जायेंगे। 1985 से आरंभ कर कइयों ने हिन्दी सॉफ्टवेअर बनाये। शब्दरत्न, अक्षर, श्री दैसे कई नाम गिनाये द सकते हैं। अपार लगन, वैज्ञानिक श्रेष्ठता, और संसाधनोंकी बहुलताके संबलपर यह काम हुआ और निश्चय ही वह बधाई के पात्र था। इनमें से इनस्क्रिप्ट सॉफ्टवेअर को सरकारी कंपनी सीडॅक ने बनाया था। इस उपलब्धि के बावजूद संगणक-लेखन में प्रमाणीकरण एवं समन्वय दोनोंके अभावमें, साथही सरकार के भी बाजार में उतर जानेके कारण, हर नई उपलब्धीको टॉप बिझिनेस सीक्रेट रखा गया। यही कारण था कि हमारे हिन्दी प्रमाणित नही थे और इसी कारण महाजाल पर भी नही टिकते थे। जैसा श्रेष्ठ और सरल सॉफ्टवेअर सरकारी होते हुए भी इसके अत्यधिक दाम (रु 15000) के कारण इसे खरीदना मुश्किल था। इसीसे भारतीय भाषाएँ संगणक पर पिछडने लगीं। जिसने वह जमाना देखा है वह आज भी आश्वस्त नही है कि इनस्क्रिप्ट से लिखा आलेख संगणक पर टिकेगा। जहाँ तक सरकारी इनस्क्रिप्ट सॉफ्टवेअर का प्रश्न है, वह आज भी अप्रमाणित और महाजाल पर न टिकनेवाला है। प्रायः सभी सरकारी कार्यालयों में वही लगा है अतः वहाँ से उसे चलानेवालोंको भी गूगल, युनीकोड और माइक्रोसॉफ्टकी पहल का पता नही है।
इस अधूरेपनको विस्तारसे समझना
पहले हम समझें कि लेखन-प्रक्रिया के तीन मीलके पत्थर अर्थात् कागज-कलम, टाईप-रायटर और संगणक में क्या अंतर हैं। जब हम कलमसे कगजपर लिखते हैं, तो मनमें जैसेही एक शब्द उभरता है, उसी समय अपनी सीखी हुई वर्णमाला के अनुरूप, मनके पटलपर उसका एक दृश्य-स्वरूप भी उभरता है और वही दृश्य-स्वरूप हाथसे कागजपर लिखा जाता है। इस प्रकार कागज-कलम पर लिखने के लिये एक ही प्रमाणीकरण आवश्यक है कि किसी शब्दका दृश्यस्वरूप कैसे दिखे। अर्थात् लेखनके विकासके इतिहासमें हजारों वर्ष पूर्व दृश्य-स्वरूपका एवं वर्णक्रमका प्रमाणीकरण हुआ। जब प्रिंटिंग तकनीकका विकास हुआ तब वर्णविन्यास अर्थात् फॉण्टसेटोंका प्रमाणीकरण हुआ, यथा अंग्रेजी के एरियल, टाइम्स न्यू रोमन, कूरियर इत्यादी फॉण्ट, जिनसे दृश्य-लेखनकी सुंदरता एवं विविधता बढती है और फॉण्टफटीग नही पैदा होता।
जब टाइपरायटर बने तो हमने दो बातोंको अलग-अलग पहचानना सीखा – कि दृश्य-स्वरूप क्या होगा और निर्दश-तंत्र (अर्थात् किस अक्षरके लिये किस कुंजीको दबाना है) क्या होगा। इस प्रकार निर्दश-तंत्रकी उपयोगिताके लिये कुंजीपटलके प्रमाणीकरणकी आवश्यकता भी अनिवार्य हुई। कई वर्षों बाद जब संगणक आया तो उसमें निर्देश-तंत्र और दृश्य-स्वरूप के बीचमें एक और कडी जुड गई जो संग्रह-व्यवस्था की कडी है। अतः यह जरूरी हो जाता है कि हम इस संग्रह-व्यवस्थाको समझें और उसका भी प्रमाणीकरण करें।

इसे हम यों समझ सकते हैं कि विश्वमें भाषाएँ और लिपियाँ कई हैं लेकिन वर्णमालाएँ केवल चार है -
(1) ब्राह्मी – जिससे देवनागरी (संस्कृत), अन्य सारी भारतीय लिपियाँ, साथही सिंहली, थाई, तिब्बती, इंडोनेशियन और मलेशियन लिपियाँ बनीं।
(2) चीनी – जिससे चीनी, जपानी एवं कोरियाई लिपियाँ बनीं।
(3) फारसी – जिससे फारसी, अरेबिक एवं ऊर्दू लिपियाँ बनीं।
(4) ग्रीक, लैटिन रोमन व सिरिलीक – जिनमें आपसमें थोडासा अन्तर है और जिनसे तमाम पश्चिमी एवं पूर्वी युरोपीय लिपियाँ बनीं।

प्रत्येक वर्णमालामें अक्षरोंका वर्णक्रम सुनिश्चित है। भारतकी सभी भाषाओंका वर्णक्रम एक ही है जिसका ढाँचा ध्वन्यात्मक है। यदि इस विशेषताको टिकाये रखकर तथा उसका लाभ उठाते हुए हमने संगणकीय लिपी-प्रमाणक बनाये हैं। लेकिन जब हम उन्हें अनिवार्य घोषित कर पायेंगे तभी हमारी सांस्कृतिक एकात्मताकी अंतर्निहित शक्ति एवं वैज्ञानिकताके कारण हम लम्बी छलाँग लगा सकेंगे। अन्यथा इसको नजरअंदाज कर हम अपनी एकात्मिक सांस्कृतिक धरोहरको एक झटकेसे गँवा भी सकते हैं। आज हम दूसरे खतरेके बगलमें खडे हैं जिसके प्रति हमें शीघ्रतासे चेतना होगा।

विश्वकी सर्वाधिक बोली जानेवाली बीस भाषाओंकी गिनतीमें पाँच भारतीय भाषाएँ हैं -- हिन्दी, बंगाली, मराठी, तेलगू और तमिल। और यदि भारतकी सारी भाषाओंकी गिनती करें और ब्राह्मी वर्णमाला से उपजी भाषाओंकी भी गिनती करें तो वह विश्वकी सर्वाधिक लोकसंख्या होगी।इसी लिये इनकी ध्वन्यात्मक एकात्मता को टिकाना आवश्यक है। इस विषय पर दो दिशाओं में प्रयत्न हुए जो आजतक अधूरे हैं, अतः इसे समझना होगा।

पहले हम समझ लें कि संगणककी प्रोसेसर चिप उसके लिये एक मस्तिष्क का काम करती है , जो कि मानवी मस्तिष्कसे हजारोंगुना अविकसित है पर है तो मस्तिष्क ही। अब संगणकके कामको समझना सरल है। उसकी संग्रह-व्यवस्थामें एक भारी मर्यादा है क्योंकि उसका मस्तिष्क अविकसित है। वह हमारी तरह शून्यसे नौ तककी दस इकाइयाँ नही समझता – केवल दो इकाइयाँ समझता है – शून्य एवं एक। तो उसे मानवी भाषा समझानेके लिये हम प्रत्येक अक्षरके लिये आठ-आठ इकाइयोंकी शृंखला बनाते हैं। ऐसे 256 पॅटर्न या अक्षर-शृंखला बन सकते हैं और संगणक अपने अपार क्षमतावाले स्मृति-संग्राहक यानी हार्ड-डिस्कमें उन्हे आठ-आठ इकाइयोंकी शृंखलाके रूपमेंही संग्रहित कर लेता है। अतः इन शृंखलाओंका भी प्रमाणीकरण अवश्यक है।

जब टाइपरायटरोंका आविष्कार हुआ तब निर्देश-तंत्रका अर्थात् कुंजीपटलका प्रमाणीकरण हुआ। हमारा परिचित अंग्रेजी कुंजीपटल क्वर्टी नामसे जाना जाता है क्योंकि उसकी पहली पंक्तिके पहले अक्षर q,w,e,r,t,y (क्वर्टी) क्रमसे आते हैं। इस निर्देश-तंत्रमें रोमन वर्णमाला के परिचित क्रम से भिन्न क्रम रखना पडा ताकि कुंजीकी कडियाँ एकदूसरे में ना फँसे। इस प्रकार मशीनकी सीमा के कारण नया क्रम बनानेकी आवश्यकता आन पडी। इसी प्रकार संगणकके आनेपर आरंभमें कई कंपनियोंने अंग्रेजी वर्णाक्षरोंके लिये अलग अलग निर्देश-समूह बनाये। लेकिन जब यह समझमें आया कि इस कारण लेखन-तंत्रकी एकवाक्यता एवं आदान-प्रदान को खतरा है तो अपने अपने निर्देश-समूहोंको भुलाकर सबने अंग्रेजीके लिये एक स्टॅण्डर्ड अपनाया जिसका नाम था ASCII ।

जब भारतीय लिपियोंके लिये संगणकपर सॉफ्टवेअर बनने लगे तो एक ओर प्राइवेट कंपनियाँ अलग-अलग प्रकारसे सुंदर फॉण्ट, निर्देश-तंत्र और संग्रह-तंत्र बनाने लगीं तो दूसरी ओर भारत सरकारने इनके प्रमाणीकरणके लिये कदम उठाने चाहे। 1991 में ISCII नामसे एक प्रमाणक (मानक - स्टॅण्डर्ड) बन भी गया जिसे बनानेमें सरकारी संगणक-कंपनी सी-डॅकका योगदान रहा। इसमें मानकमें कई अच्छाइयाँ थीं क्योंकि यह इनस्क्रिप्ट आधारित था।

एक तो इसमें सभी भारतीय भाषाओंको एक सूत्रमें पिरोया गया था। भाषा मल्याली हो या बंगाली – एक अक्षऱका संग्रह-तंत्र एक ही हो और निर्देश-तंत्र भी एक ही हो ऐसी व्यवस्था रखी गई। दूसरी अच्छाई यह थी कि निर्देश-तंत्र अर्थात कुंजीपटलके लिये इन्स्क्रिप्ट नामसे एक क्रम लागू किया जो वर्णाक्षरोंके क्रमानुसार था ताकि स्कूलकी पहली कक्षामें पढाये गये वर्णक्रमसे काम हो सके। तीसरी अच्छाई यह थी कि एक लिपीमें कुछ भी लिखो तो उसे मात्र एक इशारेसे अन्य लिपीमें लिप्यंतरित किया जा सकता था। यह तीनों अच्छाईयाँ अलीबाबा के खुल जा सिमसिमकी तरह थी क्योंकि इसी एकात्मताके कारण आनेवाले कालमें इस बातकी संभावना बन सकती थी कि एक भाषामें महाजालपर डाली गई सामग्रीकी जानकारी दूसरी भाषा में सर्च करनेपर भी मिल जाय। यहाँ यह याद दिला दूँ कि यद्यपि सामान्यजनके काम लायक महाजाल-सुविधा 1995 में आई फिर भी सीमित रूपमें यह पहले भी उपलब्ध थी और इसकी संभावनाओंको हमारे मानक-शास्त्रज्ञ जानते थे। इसी कारण उन्होंने एकात्म सर्च सुविधाका विचार कर मानक बनाया था।

लेकिन इस एक अच्छे कामके बाद हमारी नीति पिछड गई क्यों कि हम यह प्रमाणक लागू करने में पिछड गये। जब कोई सॉफ्टवेअर स्टॅण्डर्डके हिसाबसे बनता है तब वह अगले आविष्कार व सॉफ्टवेअरोंके लिये उपयोगी सिद्ध होता है – फिर अलग-अलग प्रतिभावाले लोग उससे और भी अगला काम करते हैं और भाषा-विकासमें बडी सहायता मिलती है। इसके बजाय सरकारी कंपनी सी-डॅकने अपनी उपलब्धिसे आर्थिक कमाईकी नीति अपनाई। स्टॅण्डर्डकी अवधारणाको धता बताकर गोपनीय संग्रह-तंत्र बनाया और दूसरी सॉफ्टवेअर कंपनियोंके साथ स्पर्धा बनाने में जुट गई। फिर सरकारभी किसीपर सख्तीसे स्टॅण्डर्ड नही लागू कर पाई। सभीने अपने भाषाई सॉफ्टवेअर ऊँचे दामोंमें बेचे। 1990-95 में जब अंग्रेजी गद्य-लेखनका सॉफ्टवेअर 500 रुपयेमें दिया जाता वहीं भाषाई सॉफ्टवेअरकी कीमत 15000 रुपये होती थी (आज भी है)। इस प्रकार बाजारके गणितने भाषा-विकासको पीछे धकेल दिया। राजभाषाकी हमारी सारी दुहाइयाँ नाकाम रहीं क्योंकि दुहाई देनेवालोंने कभी तंत्रको समझनेमें कोई रुचि नही दिखाई।

यह मानना पडेगा कि भाषाई सॉफ्टवेअरोंका विकास कोई सरल काम नही था और भाषाई सॉफ्टवेअर बनानेवालोंके कारण ही देशमें संगणक-साक्षरता ऐसी बढी कि यूरोप-अमरीकाका काम आउटसोर्स होकर देशमें आने लगा औऱ IT industry ने अपना सुदृढ स्थान बना लिया। यह ऐसा मामला था कि जैसे कोई हमेशा झीरो अंक पानेवाला बच्चा पंद्रह अंक ले आये। खुशियाँ मनने लगीं और हम भूल गये कि कामकी जो अच्छी शुरुआत हुई उससे तो हमारी सौ अंक लानेकी क्षमता बनती थी।

स्टॅण्डर्ड लागू न करनेके तीन दूरगामी विपरीत परिणाम हुए। पहला --- दो संगणकोंके बीच आदान-प्रदान नही रहा। एकके कामसे दूसरे कई लाभान्वित होते रहें तो शीघ्रतासे तरक्की होती है। वह मौका चूक गया। दूसरा – भाषाप्रेम चाहे लाख हो, फिर भी इतना महँगा सॉफ्टवेअर खरीदना सबके लिये संभव न था, खासकर जब उसका काम दूसरे संगणकपर चल ही न सके। तीसरा – जब 1995 में ईमेल व्यवहार जनसामान्यके स्तर पर आ गया तो पता चला कि गोपनीय सोर्सकोड के कारण भारतीय भाषाकी कोई फाइल चित्ररूपमें ढाले बगैर महाजालपर (इंटरनेटपर) नही डाली जा सकती।
थोडे शब्दों में पहले खतरेको हमने यों समझें कि यद्यपि सीडॅकने एक अच्छा सॉफ्टवेअर विकसित किया फिर भी उसे प्रमाणकके अनुरूप नही रखा और सोर्सकोड ओपन करनेकी बजाए गोपनीय रखा, बाजारकी स्पर्धामें कूद पडे, अतएव उनके पास भाषाई एकात्मता सँजोनेवाला सॉफ्टवेअर होते हुए भी न वह महाजाल-व्यवहार के लिये उपयुक्त रहा और न अन्य भारतियोंकी प्रतिभाको बढावा देनेके लिये उसका कोई उपयोग हो पाया।


भारतीय भाषाई सॉफ्टवेअर कंपनियोंकी स्पर्धा, स्वार्थके लिये समन्वयको ताकपर रखनेकी सोच और सरकारी कंपनीका भी उसी स्वार्थमें लिपटना, इन तीनोंके सम्मुख बाकी देश और प्रशासन इस कदर हतबल है कि 1995 के बाद आजतक स्थितिमें कोई अंतर नही। इसी कारण यह भ्रम भी खूब फैला और बरकरार रहा कि संगणकपर काम करनेके लिये अंग्रेजी अनिवार्य है। महाराष्ट्र जैसे प्रगत और मराठी-अस्मिताकी दुहाईवाले प्रांतमें सरकारने कॉलेजोंमें मराठी के विरुद्ध IT का ऑप्शन मुहैया कराया, अंग्रेजी की अनिवार्यता पहली कक्षासे ही लागू हो गई और मराठीका नुकसान आरंभ हुआ जो अब भी चल रहा है, और अब सरकारके ज्ञान आयोगने यही नीति देशभरमें लागू करानेकी शिफारिस की है तो हिन्दीका नुकसान भी अवश्यंभावी है।

यदि सभी कंपनियोंके सॉफ्टवेअरमें संग्रह-तंत्रका कॅरॅक्टर-कोड एकही प्रमाणकके अनुसार रखा जाता तो सामान्य व्यक्तिको लाभ होता। साथही मायक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियाँ जो भारतियोंकी आपसी फूट पर चटखारे ले-लेकर पलती हैं, उनपर दबाब बनाया जा सकता था कि वे इसी प्रमाणकको अपनी ऑपरेटिंग सिस्टम का हिस्सा बनायें। ऐसा कुछ भी नही हुआ। जागतिक स्तरपर भारतियोंकी छवि उभरी कि ना ही इनमें दूरगामी चिंतन है, ना एकता, ना अपनी भाषाओंके लिये अड जानेकी दृढता। एक चित्र और भी उभरा – कि भारतीय जनताके करोडों रुपयोंपर पलनेवाली सरकारी कंपनी सी-डॅक भारतीय भाषाओंके लिये कुछ नही कर रही थी बल्कि अंग्रेजी की तुलनामें उन्हे पीछे धकेल रही थी। इसका उदाहरण यह है कि तमाम भाषाओंकी एकता और प्रगति बढानेकी क्षमतावाला लीप-ऑफिस सॉफ्टवेअर– जिसका वर्णक्रम इन्स्क्रिप्ट था - उसका सोर्सकोड मानकके मुताबिक खुला (ओपन) करनेके बजाए उसे मोनोपोलीवाला, गोपनीय और अतीव महँगा रखा। फिर 1998 में रोमन फोनेटिकपर चलनेवाले सॉफ्टवेअरकी लाखों सीडी मुफ्त बाँटी जिसका फलसफा था कि आप अंग्रेजीमें लिखो और अपनी भाषामें देखो। अर्थात् मुझे अपना नाम लीना लिखने के लिये उसका अंग्रेजी हिज्जे जानना होगा और अंग्रेजी टायपिंग भी सीखनी होगी। फिर मैं लिखूँगी Leena और संगणकपटल पर लीना देखकर धन्य हो जाऊगी। अब उनके साथ कई दिग्गज भी कहने लगे कि जब आप अंग्रेजीके माध्यमसे लिख सकते हैं तो अपनी लिपीका दुराग्रह क्यों? साथही लीप ऑफिसमें जो तत्काल लिप्यंतरणकी सुविधा थी वह गायब हो गई। पहले मेरे कई आसामी मित्रोंने ऐसा किया है कि मैं कोई संस्कृत श्लोक और उसका विवेचन हिंदीमें लिखूँ तो उसका आसामी लिप्यंतरण विद्यार्थियोंको देंगे जिससे वे संस्कृत भी सीखेंगे और हिंदी भी। मैंने स्वयं भी इसी पद्धतीसे सारी लिपियाँ सीखीं और कइयोंको हिंदी व मराठी सिखाई। अब वह एकात्मता और अपनापन बढानेवाला दौर समाप्त हो जायगा। यह मैं एक बडा खतरा मानती हूँ।

थोडे शब्दों में पहले खतरेको हमने यों समझें कि यद्यपि सीडॅकने एक अच्छा सॉफ्टवेअर विकसित किया फिर भी उसे प्रमाणकके अनुरूप नही रखा और सोर्सकोड ओपन करनेकी बजाए गोपनीय रखा, बाजारकी स्पर्धामें कूद पडे, अतएव उनके पास भाषाई एकात्मता सँजोनेवाला सॉफ्टवेअर होते हुए भी न वह महाजाल-व्यवहार के लिये उपयुक्त रहा और न अन्य भारतियोंकी प्रतिभाको बढावा देनेके लिये उसका कोई उपयोग हो पाया।

अब समझने चलते हैं दूसरे खतरेको
संगणककी प्रोसेसर चिपोंमें अधिक क्षमता निर्माण हुई तो उनपर आठ इकाइयोंवाली अक्षरशृंखला की जगह सोलह इकाइयोंवाली अक्षरशृंखला बनाना संभव हुआ । इससे बडी वर्णमालाओंको सम्मिलित करने के लिये कई गुना अधिक जगह बन गई। चीनी और फारसी लिपियोंके अच्छे मानक बने और उनकी भाषाएँ धडल्लेसे संगणक व महाजालपर स्थान बनाने लगीं। भारतीय भाषाओंकी एकात्मता को भी और मजबूत करने की संभावना बढ गई।

इसी दौरान एक नई ऑपरेटिंग सिस्टम लीनक्स सर्वमान्य होने लगी जिसका फलसफा यह था कि संगणकसे संबंधित सभी बुनियादी और सरल सॉफ्टवेअर सबको अनिर्बंध उपल्ब्ध कराओ ताकि सबका सम्मिलित लाभ हो सके। इसी कडीमें उन्होंने अंग्रेजीके लिये ASCII की जगह एक नया मानक युनीकोड स्टॅण्डर्ड अपनाया और भारतीय भाषाओंके कुंजीपटलके लिये इन्स्क्रिप्ट कुंजीपटल भी। इसी कारण इन्स्क्रिप्ट कुंजीपटल तो महाजाल पर टिकने की संभावना हो गई पर पूरा लेकिन जो जागतिक युनीकोड कन्सॉर्शियम युनीकोड मानक बना रहा था और जिसमें कुछ भारतीय भी थे, कुछ राजभाषा विभाग और सी-डॅकके अफसर भी, वहां चूक हो गई। जो मानक उन्होंने स्वीकार किया वह जागतिक होनेके कारण महाजालकी सुविधा तो आ गई और इन्स्क्रिप्ट की-लेआउट अपनानेसे टायपिंगमें सरलता भी आ गई गई पर इनके साथ एक परन्तु भी बीचमें आ गया। सोलह इकाइयोंवाली श्रृंखला के कारण जो कई गुना अधिक जगह मिल रही थी उसका उपयोग भाषाई एकात्मता बढानेके लिये करनेकी बजाए उन्होंने उस जगहका बँटवारा कर दिया और कहा कि लो अब हर भाषाको दूसरीके साथ तालमेल बनाये रखने की कोई जरूरत नही प्रत्येकका अपना अपना अलग अस्तित्व होगा। इसका परिणाम एक वाक्यमें यों है कि अब संगणकके लिये मल्याली क बंगाली क से अलग होगा। इस कारण अब शबरी पर मल्याली लिपिमें लिखी गई लोककथा भी महाजालपर होगी और बंगालीमें लिखी लोककथा भी होगी लेकिन बंगालीमें सर्चकमांड देनेपर संगणक मल्याली लोककथा को नही खोज सकेगा। इस तरह हमारी सांस्कृतिक विरासतकी एकात्मता धीरे धीरे समाप्त होती चली जायगी।
हमारी अपनी लापरवाहीसे भारतीय भाषाओंकी समग्र एकात्मता और सांस्कृतिक एकतापर जो बडा संकट मंडरा रहा है उसकी ओर अभीतक किसीने ध्यान नही दिया है।

इस खतरेको दो हिस्सोंमें समझना होगा। पहलेका कारण यह था कि अपार लगन, वैज्ञानिक श्रेष्ठता, और संसाधनोंकी बहुलताके संबलपर जिन्होंने भारतीय भाषाओंके लिये सॉफ्टवेअर बनाये उन्होंने दो आवश्यक कामोंमेंसे एक किया और दूसरेको स्वार्थवश अधूरा छोड रखा। अब भारतीय बाजारका लाभ लेनेके लिये जागतिक युनीकोड कन्सॉर्शियमने ने दूसरा काम तो कर दिया पर पहले कामकी कुछ अच्छाइयोंको बिगाडकर। दोनोंही तरफसे नुकसान है हमारी भाषाका, सांस्कृतिक विरासतका और एकात्मताका।

पर पहले देखें कि आज संगणक पर भारतीय भाषाएँ कहाँ हैं। अपने संगणकपर जाकरयह सिक्वेन्स टिकटिकाएँ – स्टार्ट  सेटिंग  कण्ट्रोल पॅनल  रिजनल ऍण्ड लॅन्गवेज 
तो आपको एक ड्रॉप-डाउन मेनू दिखेगा जिसपर बाय डिफॉल्ट लिखा होगा EN अर्थात् इंग्लिश. उसके पूरे मेनूमें देखनेपर आपको भारतीय भाषाओंके सिवा हर भाषाका ऑप्शन दिखेगा – फ्रेंच, अरेबिक, चायनीज, स्वाहिली, थाई, रशियन, सिरीलिक, कोरियाई,....। यह हालत तब है जब विश्वकी सर्वाधिक बोली जानेवाली बीस भाषाओंकी गिनतीमें पाँच भारतीय भाषाएँ हैं -- हिन्दी, बंगाली, मराठी, तेलगू और तमिल। फिर भी भारत की किसी भाषा को वहाँ स्थान न मिलने का कारण क्या हो सकता है ? जरा सोचें – यह कारण है हमारी अकर्मण्यता, अदूरदर्शिता, स्वार्थ, अहंकार और न जाने क्या क्या। तो उन्हें परे ठेलकर भारतीय भाषाओंको वहाँ प्रस्थापित करनेका बीडा उठा सके ऐसा कौन होगा?

मैं यह आरोप नही लगा रही कि इन बातोंके पीछे कोई सोची समझी चाल है। लेकिन मेरा यह मानना है कि हमारे अंदर एक किस्मकी लापरवाही है और अदूरदर्शिताभी। यही जागतिक युनीकोड कन्सॉर्शियम है कि जब उसने चीनी-जपानी-कोरियाई लिपियोंकी एकात्मता बरकरार रखनेके प्रयास नही किये तो उन देशोंने अपने राजकीय मतभेद और स्पर्धा भुलाकर आपसी समझौतेसे एक मानक बनाया और युनीकोड कन्सॉर्शियमको खबरदार किया कि तुम्हे यही मानक अपनाना होगा जो हमने अपने लिया चुना है। यही तेवर और ललक यदि भारतीयोंने नही दिखाई है तो इसका एक ही अर्थ है कि हम कभी अपनी एकात्मताके प्रति सजग और अभिमानी थे ही नही। और आज उसे बिखेरनेमें सहायक बने रहेंगे।
क्या अब भी हम सजग नही होंगे ?
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--Leena Mehendale
521/40, HSR Layout,
CPWD Quarters,
Banglore, India
PIN 560105

1 टिप्पणी:

Vidyarathi ने कहा…

samasya ka vivechan bahut achha hai. samdhan kisne karna hai aur use kaise manaya jae yah batane ka kasht karen.