इस
देवभूमि
भारत
की
करीब
50 भाषाएँ
हैं, जिनकी
प्रत्येक
की
बोलने
वालों
की
लोकसंख्या
10 लाख
से
कहीं
अधिक
है
और
करीब
7000बोली
भाषाएँ
जिनमें
से
प्रत्येक
को
बोलनेवाले
कम
से
कम
पाँच
सौ
लोग
हैं, ये
सारी
भाषाएँ
मिलकर
हमारी
अनेकता
में
एकता
का
अनूठा
और
अद्भुत
चित्र
प्रस्तुत
करती
है ।
इन
सबकी
वर्णमाला
एक
ही
है, व्याकरण
एक
ही
है
और
सबके
पीछे
सांस्कृतिक
धरोहर
भी
एक
ही
है ।
यदि
गंगोत्री
से
काँवड
भरकर
रामेश्वर
ले
जानेकी
घटना
किसी
आसामी
लोककथा
को
जन्म
देती
है, तो
वही
घटना
उतनी
ही
क्षमता
से
एक
भिन्न
परिवेश
की
मलयाली
कथा
को
भी
जन्म
देती
है ।
इनमे
से
हरेक
भाषा
ने
अपने
शब्द-भंडार
से
और
अपनी
भाव
अभिव्यक्ति
से
किसी
न किसी
अन्य
भाषा
को
भी
समृद्ध
किया
है ।
इसी
कारण
हमारी
भाषा
संबंधी
नीति
में
इस
अनेकता
और
एकता
को
एक
साथ
टिकाने
और
उससे
लाभान्वित
होने
की
सोच
हो
यह
सर्वोपरि
है, यही
सोच
हमारी
पथदर्शी
प्रेरणा
होनी
चाहिये।
लेकिन
क्या
यह
संभव
है ?
पिछले
दिनों
और
पिछले
कई
वर्षों
तक
हिन्दी-दिवसके
कार्यक्रमों
की
जो
भरमार
देखने
को
मिली
उसमें
इस
सोच
का
मैंने
अभाव
ही
पाया
। यह
बारबार
दुहाई
दी
जाती
रही
है
कि
हमें
मातृभाषा
को
नहीं
त्यजना
चाहिये, यही
बात
एक
मराठी, बंगाली,
तमिल,
भोजपुरी
या
राजस्थानी
भाषा
बोलने
वाला
भी
कहता
है
और
मुझे
मेरी
भाषाई
एकात्मता
के
सपने
चूर-चर
होते
दिखाई
पड़ते
हैं
। यह
अलगाव
हम
कब
छोड़ने
वाले
हैं
? हिन्दी
दिवस
पर
हम
अन्य
सहेली-भाषाओं
की
चिंता
कब
करनेवाले
है?
हिन्दी
मातृभाषा
का
एक
व्यक्ति
हिन्दी
की
तुलना
में
केवल
अंग्रेजी
की
बाबत
सोचता
है
और
शूरवीर
योद्धा
की
तरह
अंग्रेजी
से
जूझने
की
बातें
करता
है।
हमें
यह
भान
कब
आयेगा
कि
एक
बंगाली, मराठी,
तमिल
या
भोजपुरी
मातृभाषा
का
व्यक्ति
उन
उन
भाषाओं
की
तुलना
में
अंग्रेजी
के
साथ
हिन्दी
की
बात
भी
सोचता
है
और
अक्सर
अपने
को
अंग्रेजी
के
निकट
औऱ
हिन्दी
से
मिलों
दूर
पाता
है।
अब
यदि
हिन्दी
मातृभाषी
व्यक्ति
अंग्रेजी
के
साथ
साथ
किसी
एक
अन्य
भाषा
को
भी
सोचे
तो
वह
भी
अपने
को
अंग्रेजी
के
निकट
और
उस
दूसरी
भाषा
से
कोसों
दूर
पाता
है।
अंग्रेजी
से
जूझने
की
बात
खत्म
भले
ही न
होती
हो,लेकिन
उस
दूसरी
भाषा
के
प्रति
अपनापन
भी
नहीं
पनपता
और
उत्तरदायित्व
की
भावना
तो
बिलकुल
नहीं
। फिर
कैसे
हो
सकती
है
कोई
भाषाई
एकात्मता?
कोई
कह
सकता
है
कि
हम
तो
हिन्दी
-दिवस
मना
रहे
थे,- जब
मराठी
या
बंगाली
दिवस
आयेगा
तब
वे
लोग
अपनी
अपनी
सोच
लेंगे. लेकिन
यही
तो
है
अलगाव
का
खतरा।
जोर-शोर
से
हिन्दी
दिवस
मनानेवाले
हिन्दीभाषी
जब
तक
उतने
ही
उत्साह
से
अन्य
भाषाओं
के
समारोह
में
शामिल
होते
नहीं
दिखाई
देंगे, तब
तक
यह
खतरा
बढ़ता
ही
चलेगा।
एक
दूसरा
उदाहरण
देखते
हैं- हमारे
देश
में
केन्द्र-राज्य
के
संबंध
संविधान
के
दायरे
में
तय
होते
हैं।
केन्द्र
सरकार
का
कृषि-विभाग
हो
या
शिक्षा-विभाग,
उद्योग-विभाग
हो
या
गृह
विभाग, हर
विभाग
के
नीतिगत
विषय
एकसाथ
बैठकर
तय
होते
हैं।
परन्तु
राजभाषा
की
नीति
पर
केन्द्र
में
राजभाषा-विभाग
किसी
अन्य
भाषा
के
प्रति
अपना
उत्तरदायित्व
ही
नहीं
मानता
तो
बाकी
राजभाषाएँ
बोलने
वालों
को
भी
हिन्दी
के
प्रति
उत्तरदायित्व
रखने
की
कोई
इच्छा
नहीं
जागती
।
बल्कि
सच
कहा
जाए
तो
घोर
अनास्था, प्रतिस्पर्धा,
यहाँ
तक
कि
वैर-भाव
का
प्रकटीकरण
भी
हम
कई
बार
सुनते
हैं।
उनमें
से
कुछ
को
राजकीय
महत्वाकांक्षा
बताकर
अनुल्लेखित
रखा
जा
सकता
है, पर
सभी
अभिव्यक्तियों
को
नहीं
। किसी
को
तो
ध्यान
से
भी
सुनना
पडेगा, अन्यथा
कोई
हल
नहीं
निकलेगा।
इस
विषय
पर
सुधारों
का
प्रारंभ
तत्काल
होना
आवश्यक
है।
हमारी
भाषाई
अनेकता
में
एकता
का
विश्वपटल
पर
लाभ
लेने
हेतु
ऐसा
चित्र
संवर्द्धित
करना
होगा
जिसमें
सारी
भाषाओं
की
एकजुटता
स्पष्ट
हो
और
विश्वपटल
पर
लाभ
उठाने
की
अन्य
क्षमताएँ
भी
विकसित
करनी
होंगी।
आज
का
चित्र
तो
यही
है
कि
हर
भाषा
की
हिन्दी
के
साथ
और
हिन्दी
की
अन्य
सभी
भाषाओं
के
साथ
प्रतिस्पर्धा
है
जबकि
उस
तुलना
में
सारी
भाषाएँ
बोलने
वाले
अंग्रेजी
के
साथ
दोस्ताना
ही
बनाकर
चलते
हैं।
इसे
बदलना
हो
तो
पहले
जनगणना
में
पूछा
जाने
वाला
अलगाववादी
प्रश्न
हटाया
जाये
कि
आपकी
मातृभाषा
कौन-सी
है? उसके
बदले
यह
एकात्मतावादी
प्रश्न
पूछा
जाये
कि
आपको
कितनी
भारतीय
भाषाएँ
आती
हैं? आज
विश्वपटल
पर
जहाँ-जहाँ
जनसंख्या
गिनती
का
लाभ
उठाया
जाता
है –
वहाँ-वहाँ
हिन्दी
को
पीछे
खींचने
की
चाल
चली
जा
रही
है
क्योंकि
संख्या-बल
में
हिन्दी
की
टक्कर
में
केवल
अंग्रेजी
और
मंडारिन
(चीनी
भाषा) है-
बाकी
तो
कोसों
पीछे
हैं।
संख्या
बल
का
लाभ
सबसे
पहले
मिलता
है
रोजगारके
स्तर
पर ।
अलग
अलग
युनिवर्सिटियों
में
भारतीय
भाषाएँ
सिखाने
की
बात
चलती
है, संयुक्त
राष्ट्र
संघ
(यूएनओ)
में
अपनी
भाषाएँ
आती
हैं, तो
रोजगार
के
नये
द्वार
खुलते
हैं।
भारतीय
भाषाओं
को
विश्वपटल
पर
चमकते
हुए
सितारों
की
तरह
उभारना
हम
सबका
कर्तव्य
है ।
यदि
मेरी
मातृभाषा
मराठी
है
और
मुझे
हिन्दी
व
मराठी
दोनों
ही
प्रिय
हों
तो
मेरा
मराठी-मातृभाषिक
होना
हिन्दी
के
संख्याबल
को
कम
करें
यह
मैं
कैसे
सहन
कर
सकती
हूँ
और
अंतर्राष्ट्रीय
स्तर
पर
हिन्दी
के
संख्या
बलके
कारण
भारतीयों
को
जो
लाभ
मिल
सकता
है
उसे
क्यों
गवाऊँ? क्या
केवल
इसलिए
कि
मेरी
सरकार
मुझे
अंतर्राष्ट्रीय
स्तर
पर
हिन्दी
की
महत्ता
का
लाभ
नहीं
उठाने
देती? और
मेरे
मराठी
ज्ञान
के
कारण
मराठी
का
संख्याबल
बढ़े
यह
भी
उतना
ही
आवश्यक
है।
अतएव
सर्वप्रथम
हमारी
अपनी
राष्ट्रनीति
सुधरे
और
मेरे
भाषा-ज्ञान
का
लाभ
मेरी
दोनों
माताओं
को
मिले
ऐसी
कार्य-प्रणाली
भी
बनायें
यह
अत्यावश्यक
है।
और
बात
केवल
मराठी
या
हिन्दी
की
नहीं
है।
विश्वस्तरपर
जहाँ
मैथिली, कन्नड
या
बंगाली
लोक-संस्कृति
की
महत्ता
उस
उस
भाषा
को
बोलने
वालों
के
संख्याबल
के
आधार
पर
निश्चित
की
जाती
है, वहाँ
वहाँ
मेरी
उस
भाषा
की
प्रवीणता
का
लाभ
अवश्य
मिले- तभी
मेरे
भाषाज्ञान
की
सार्थकता
होगी।
आज
हमारे
लिये
गर्व
का
विषय
होना
चाहिये
कि
संसार
की
सर्वाधिक
संख्याबल
वाली
पहली
बीस
भाषाओं
में
तेलगू
भी
है, मराठी
भी
है, बंगाली
भी
है
और
तमिल
भी।
तो
क्यों
न
हमारी
राष्ट्रभाषा
नीति
ऐसी
हो
जिसमें
मेरे
भाषाज्ञानका
अंतर्राष्ट्रीय
लाभ
उन
सारी
भाषाओंको
मिले
और
उनके
संख्याबल
का
लाभ
सभी
भारतीयों
को
मिले।
यदि
ऐसा
हो, तो
मेरी
भी
भारतीय
भाषाएँ
सीखने
की
प्रेरणा
अधिक
दृढ़
होगी।
आज
विश्व
के
700 करोड़
लोगों
में
से
करीब
100 करोड़
हिन्दी
को
समझ
लेते
हैं, और
भारत
के
सवा
सौ
करोड़
में
करीब
90 करोड़;
फिर
भी
हिन्दी
राष्ट्रभाषा
नहीं
बन
पाई।
इसका
एक
हल
यह
भी
है
कि
हिन्दी-भोजपुरी-मैथिली-राजस्थानी-मारवाडी
बोलने
वाले
करीब
50 करोड़
लोग
देश
की
कम
से
कम
एक
अन्य
भाषा
को
अभिमान
और
अपनेपन
के
साथ
सीखने-बोलने
लगें
तो
संपर्कभाषा
के
रूपमें
अंग्रेजी
ने
जो
विकराल
सामर्थ्य
पाया
है
उससे
बचाव
हो
सके।
देश
में
6000 से
अधिक
और
हिन्दी
की
2000 से
अधिक
बोली
भाषाएँ
हैं।
सोचिये
कि
यदि
हिन्दी
की
सारी
बोली
भाषाएँ
हिन्दी
से
अलग
अपने
अस्तित्व
की
माँग
करेंगी
तो
हिन्दी
के
संख्याबल
का
क्या
होगा, क्या
वह
बचेगा
? और
यदि
नहीं
करेंगी
तो
हम
क्या
नीतियाँ
बनाने
वाले
हैं
ताकि
हिन्दी
के
साथ
साथ
उनका
अस्तित्व
भी
समृद्ध
हो
और
उन्हें
विश्वस्तर
पर
पहुँचाया
जाये।
यही
समस्या
मराठी
को
कोकणी, अहिराणी
या
भिल-पावरी
भाषा
के
साथ
हो
सकती
है
और
कन्नड-तेलगू
को
तुलू
के
साथ।
इन
सबका
एकत्रित
हल
यही
है
कि
हम
अपनी
भाषाओं
की
भिन्नता
को
नहीं
बल्कि
उनके
मूल-स्वरूपकी
एकता
को
रेखित
करें।
यह
तभी
होगा
जब
हम
उन्हें
सीखें, समझें
और
उनके
साथ
अपनापा
बढायें।
यदि
हम
हिन्दी
–दिवस
पर
भी
रुककर
इस
सोच
की
ओर
नहीं
देखेंगे
तो
फिर
कब
देखेंगे
?
जब
भी
सर्वोच्च
न्यायालय
में
अंग्रेजी
को
हटाकर
हिन्दी
लाने
की
बात
चलती
है, तो
वे
सारे
विरोध
करते
हैं
जिनकी
मातृभाषा
हिन्दी
नहीं
है।
फिर
वहाँ
अंग्रेजी
का
वर्चस्व
बना
रहता
है।
उसी
दलील
को
आगे
बढाते
हुए
कई
उच्च
न्यायालयों
में
उस
उस
प्रान्त
की
भाषा
नहीं
लागू
हो
पाई
है।
उच्च
न्यायालयों
के
न्यायाधीश
भारत
के
किसी
भी
कोनेसे
नियुक्त
किये
जा
सकते
हैं, उनके
भाषाई
अज्ञान
का
हवाला
देकर
अंग्रेजी
का
वर्चस्व
और
मजबूत
बनता
रहता
है।
यही
कारण
है
कि
हमें
ऐसा
वातावरण
फैलाना
होगा
जिससे
अन्य
भारतीय
भाषाएँ
सीखने
में
लोग
अभिमान
का
भी
अनुभव
करें
और
सुगमता
का
भी।
हमारे
सुधारों
में
सबसे
पहले
तो
सर्वोच्च
न्यायालय, राज्यों
के
उच्च
न्यायालय, गृह
व
वित्त
मंत्रालय, केंद्रीय
लोकराज्य
संघ
की
परीक्षाएँ,इंजीनियरिंग,
मेडिकल
तथा
विज्ञान
एवं
समाजशास्त्रीय
विषयों
की
स्नातकस्तरीय
पढाई
में
भारतीय
भाषाओं
को
महत्व
दिया
जाये।
सुधारोंका
दूसरा
छोर
हो
प्रथमिक
और
माध्यमिक
स्तर
की
पढाई
में
भाषाई
एकात्मता
लाने
की
बात
जो
गीत, नाटक,
खेल
आदि
द्वारा
हो
सकती
है।
आधुनिक
मल्टिमीडिया
संसाधनों
का
प्रभावी
उपयोग
हिन्दी
और
खासकर
बालसाहित्यके
लिये
तथा
भाषाई
बालसाहित्योंको
एकत्र
करने
के
लिये
किया
जाना
चाहिये।
भाषाई
अनुवाद
भी
एकात्मता
के
लिये
एक
सशक्त
संग्रह
बन
सकता
है
लेकिन
देश
की
सभी
सरकारी
संस्थाओं
में
अनुवादकी
दुर्दशा
देखिये
कि
अनुवादकों
का
मानधन
उनके
भाषाई
कौशल्य
से
नहीं
बल्कि
शब्दसंख्या
गिनकर
तय
किया
जाता
है
जैसे
किसी
ईंट
ढोने
वाले
से
कहा
जाये
कि
हजार
ईंट
ढोने
के
इतने
पैसे।
अनेकता
में
एकताको
बनाये
रखने
के
लिये
दो
अच्छे
साधन
हैं
- संगणक
एवं
संस्कृत।
उनके
उपयोग
हेतु
विस्तृत
चर्चा
हो।
मान
लो
मुझे
कन्नड
लिपि
पढ़नी
नहीं
आती
परन्तु
भाषा
समझ
में
आती
है।
अब
यदि
संगणक
पर
कन्नड
में
लिखे
आलेख
का
लिप्यन्तर
करने
की
सुविधा
होती
तो
मैं
धडल्लेसे
कन्नड
साहित्यके
सैकड़ों
पन्ने
पढ़ना
पसंद
करती।
इसी
प्रकार
कोई
कन्नड
व्यक्ति
भी
देवनागरी
में
लिखे
तुलसी-रामायण
को
कन्नड
लिपि
में
पाकर
उसका
आनंद
ले
पाता।
लेकिन
क्या
हम
कभी
रुककर
दूसरे
भाषाइयों
के
आनंद
की
बात
सोचेंगे? क्या
हम
माँग
करेंगे
कि
मोटी
तनखा
लेने
वाले
और
कुशाग्र
वैज्ञानिक
बुद्धि
रखने
वाले
हमारे
देश
के
संगणक-विशेषज्ञ
हमें
यह
सुविधा
मुहैया
करवायें।
सरकार
को
भी
चाहिये
कि
जितनी
हद
तक
यह
सुविधा
किसी-किसी
ने
विकसित
की
है
उसकी
जानकारी
लोगों
तक
पहुँचाये।
लेकिन
सरकार
तो
यह
भी
नहीं
जानती
कि
उसके
कौन
कौन
अधिकारी
हिन्दी
व अन्य
राजभाषाओं
के
प्रति
समर्पण
भाव
से
काम
करनेका
माद्दा
और
तकनीकी
क्षमता
रखते
हैं।
सरकार
समझती
है
कि
एक
कुआँ
खोद
दिया
है
जिसका
नाम
है
राजभाषा
विभाग
। वहाँ
के
अधिकारी
उसी
कुएँ
में
उछल-कूदकर
जो
भी
राजभाषा(ओं)
का
काम
करना
चाहे
कर
लें
(हमारी
बला
से) ।
सरकार
के
कितने
विभाग
अपने
अधिकारियों
के
हिन्दी-समर्पण
का
लेखा-जोखा
रखते
हैं
और
उनकी
क्षमता
से
लाभ
उठानेकी
सोच
रख
पाते
हैं
?हाल
में
जनसूचना
अधिकार
के
अंतर्गत
गृह-विभागसे
यह
सवाल
पूछा
गया
कि
आपके
विभागके
निदेशक
स्तर
से
उँचे
अधिकारियों
में
से
कितनों
को
मौके-बेमौके
की
जरूरतभर
हिन्दी
टाइपिंग
आती
है।
उत्तर
मिला
कि
ऐसी
कोई
जानकारी
हम
संकलित
नहीं
करते।
तो
जो
सरकार
अपने
अधिकारियों
की
क्षमताकी
सूची
भी
नहीं
बना
सकती
वह
उसका
लाभ
लोगों
तक
कैसे
पहुँचा
सकती
है ?
मेरे
विचार
से
हिन्दी
के
सम्मुख
आये
मुख्य
सवालों
को
इस
प्रकार
वर्गीकृत
किया
जा
सकता
है:
वर्ग
1:आधुनिक
उपकरणोंमें
हिन्दी
1.
हिन्दी
लिपि
को
सर्वाधिक
खतरा
और
अगले
10 वर्षों
में
मृतप्राय
होने
का
डर
क्योंकि
आज
हमें
ट्रान्सलिटरेशन
की
सुविधाका
लालच
देकर
सिखाया
जाता
है
कि
राम
शब्द
लिखने
के
लिये
हमारे
विचारों
में
भारतीय
वर्णमाला
का र
फिर
आ फिर
म नहीं
लाना
है
बल्कि
हमारे
विचारों
में
रोमन
वर्णमाला
का
आर
आना
चाहिये, फिर
ए आये,
फिर
एम
आये।
तो
दिमागी
सोच
से
तो
हमारी
वर्णमाला
निकल
ही
जायेगी।
आज
जब
मैं
अपनी
अल्पशिक्षित
सहायक
से
मोबाइल
नंबर
पूछती
हूँ
तो
वह
नौ, सात,
दो,
चार
इस
प्रकार
हिन्दी
अंक
ना
तो
बता
पाती
है
औऱ न
समझती
है,वह
नाइन, सेवन,
टू.....
इस
प्रकार
कह
सकती
है।
2.
प्रकाशन
के
लिये
हमें
ऐसी
वर्णाकृतियाँ
(फॉण्टसेट्स)
आवश्यक
हैं, जो
दिखनेमें
सुंदर
हों, एक
दूसरे
से
अलग-थलग
हों
और
साथ
ही
इंटरनेट
कम्पॅटिबल
हों।
सी-डॅक
सहित
ऐसी
कोई
भी
व्यापारी
संस्था
जो
1991 में
भारतीय
मानक-संस्था
द्वारा
और
1996 में
यूनिकोड
द्वारा
मान्य
कोडिंग
स्टैण्डर्ड
को
नहीं
अपनाती
हो, उसे
प्रतिबंधित
करना
होगा।
विदित
हो
कि
यह
मानक
स्वयं
भारत
सरकार
की
चलाई
संस्था
सी-डॅक
ने
तैयार
कर
भारतीय
मानक-संस्थासे
मनवाया
था
पर
स्वयं
ही
उसे
छोडकर
कमर्शियल
होनेके
चक्करमें
नया
अप्रमाणित
कोडिंग
लगाकर
वर्णाकृतियाँ
बनाती
है
जिस
कारण
दूसरी
संस्थाएँ
भी
शह
पाती
हैं
और
प्रकाशन-संस्थाओं
का
काम
वह
गति
नहीं
ले
पाता
जो
आज
के
तेज
युगमें
भारतीय
भाषाओंको
चाहिये।
3.
विकिपीडिया
जो
धीरे
धीरे
विश्वज्ञानकोष
का
रूप
ले
रहा
है, उस
पर
कहाँ
है
हिन्दी? कहाँ
है
संस्कृत
और
कहाँ
हैं
अन्य
भारतीय
भाषाएँ
?
वर्ग2:
जनमानस
में
हिन्दी
4.
कैसे
बने
राष्ट्रभाषा
–
लोकभाषाएँ
सहेलियाँ
बनें
या
दुर्बल
करें
यह
गंभीरता
से
सोचना
होगा
।
5.
अंग्रेजीकी
तुलनामें
तेजीसे
घटता
लोकविश्वास
और
लुप्त
होते
शब्द-भण्डार
।
6.
एक
समीकरण
बन
गया
है
कि
अंग्रेजी
है
संपत्ति, वैभव,
ग्लॅंमर,
करियर,
विकास
और
अभिमान
जबकि
हिन्दी
या
मातृभाषा
है
गरीबी, वंचित
रहना,बेरोजगारी,
अभाव
और
पिछडापन।
इसे
कैसे
गलत
सिद्ध
करेंगे
?
वर्ग
3: सरकार
में
हिन्दी
7.
हिन्दी
के
प्रति
सरकारी
विजन
(दृष्टिकोण)
क्या
है ?
क्या
किसी
भी
सरकार
ने
इस
मुद्दे
पर
विजन-डॉक्यूमेंट
बनाया
है ?
8.
सरकार
में
कौन-कौन
विभाग
हैं
जिम्मेदार, उनमें
क्या
है
समन्वय, वे
कैसे
तय
करते
हैं
उद्देश्य
और
कैसे
नापते
हैं
सफलताको
? उनमें
से
कितने
विभाग
अपने
अधिकारियों
के
हिन्दी-समर्पण
का
लेखा-जोखा
रखते
हैं
और
उनकी
क्षमता
से
लाभ
उठाने
की
सोच
रख
पाते
हैं
?
9.
विभिन्न
सरकारी
समितियोंकी
सिफारिशों
का
आगे
क्या
होता
है, उनका
अनुपालन
कौन
और
कैसे
करवाता
है?
वर्ग
4 :साहित्य
जगतमें
हिन्दी
10.
ललित
साहित्य
के
अलावा
बाकी
कहाँ
है
हिन्दी
साहित्य- विज्ञान,
भूगोल,
वाणिज्य,
कानून/विधि,
बैंक
और
व्यापार
का
व्यवहार, डॉक्टर
और
इंजीनियरों
की
पढ़ाई
का
स्कोप
क्या
है
?
11.
ललित
साहित्यमें
भी
वह
सर्वस्पर्शी
लेखन
कहाँ
है
जो
एक्सोडस
जैसे
नॉवेल
या
रिचर्ड
बाख
के
लेखन
में
है।
12.
भाषा
बचाने
से
ही
संस्कृति
बचती
है, क्या
हमें
अपनी
संस्कृति
चाहिये? हमारी
संस्कृति
अभ्युदय
को
तो
मानती
है
पर
रॅट-रेस
और
भोग-विलास
को
नहीं।
आर्थिक
विषमता
और
पर्यावरण
के
ह्रास
से
बढ़ने
वाले
जीडीपी
को
हमारी
संस्कृति
विकास
नहीं
मानती,तो
हमें
विकास
को
फिर
से
परिभाषित
करना
होगा
या
फिर
विकास
एवं
संस्कृति
में
से
एक
को
चुनना
होगा
।
13.
दूसरी
ओर
क्या
हमारी
आज
की
भाषा
हमारी
संस्कृति
को
व्यक्त
कर
रही
है ?
14.
अनुवाद,
पढ़ाकू-संस्कृति,
सभाएँ
को
प्रोत्साहन
देने
की
योजना
हो।
15.
हमारे
बाल-साहित्य,
किशोर-साहित्य
और
दृश्य-श्रव्य
माध्यमोंमें, टीवी
एवं
रेडियो
चॅनेलों
पर
हिन्दी
व अन्य
भारतीय
भाषा
ओं
को
कैसे
आगे
लाया
जाय
?
16.
युवा
पीढ़ी
क्या
कहती
है
भाषा
के
मुद्दे
पर, कौन
सुन
रहा
है
युवा
पीढ़ी
को? कौन
कर
रहा
है
उनकी
भाषा
समृद्धि
का
प्रयास
?
इन
मुद्दों
पर
जब
तक
हम
में
से
हर
व्यक्ति
ठोस
कदम
नहीं
बढ़ाएगा, तब
तक
हिन्दी
दिवस-पखवाड़े
–माह
केवल
बेमन
से
पार
लगाये
जाने
वाले
उत्सव
ही
बने
रहेंगे।
1 टिप्पणी:
Nice post thanks for share This valuble content
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