Suggestion to MPs--
संगणक पर हिन्दी व भारतीय भाषाओंको को प्रस्थापित करने हेतूसंविधान की धारा 343 में राजभाषा के रूप में हिन्दी को प्रस्थापित करने के लिये पंद्रह वर्षका समय नियत किया गया और जनता, लोकसभा सदस्य तथा सरकार, सभी को यह जिम्मा दिया गया कि उसके लिये सफल प्रयास करें। राजभाषा हिंदी के साथ-साथ सभी भारतीय लिपियाँ व भाषाओंके लिये भी प्रायः ऐसा ही निर्देश धारा 345 में दिया गया।
आजके संगणकके युग में जो भाषा या लिपी संगणक पर प्रस्थापित नही होगी उसका प्रभाव, उपयोग एवं व्यावहारिकता क्षीण होते चलेंगे। संगणक पर हिंदीसहित सभी भाषाओंको सुदृढ स्थान मिलनेके उद्देशसे पुणे स्थित सरकारी संस्था सीडॅकने 1988 में एक अच्छा प्रयास किया जिसके फलस्वरूप संगणक पर टंकन (टायपिंग) करने के लिये एक अति-सरल व सुलभ पद्धति बनी। इसमें सरलता यह रखी कि कुंजियोंका क्रम कखगघ, चछजझ पद्धतिसे था जैसा हम पहली कक्षा में पढते हैं अतः यह स्वयम् दिमाग में बैठ जाता था। इन-स्क्रिप्ट नामक इस कुंजीपटल-पद्धति में की-बोर्डकी प्रत्येक कुंजीको कखगघ, चछजझ के क्रम में देवनागरीके एक-एक वर्णाक्षरके लिये आरक्षित किया गया । अर्थात् एक कुंजीसे संगणकको उसी एक वर्णाक्षरका निर्देश मिलेगा। इस प्रकार प्रत्येक कुंजीका इन-स्क्रिप्ट विधामें मानकीकरण हुआ। इसी मानकको 1991 में ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टॅण्डर्डने अपनाया और आगे चलकर 1998 में विश्वस्तर पर यूनीकोड ने भी यही मानक अपनाया। यूनीकोड द्वारा मानक अपनाने का अर्थ और परिणाम यह हुआ कि इस मानकके साथ जो भी सॉफ्टवेअर देवनागरी लिखनेके लिये बनेगा उसके उपयोगसे लिखे आलेख (डॉक्यूमेंट) इंटरनेट पर आलेख के रूप में ही रहेंगे, जंक नही दिखेंगे।
ऐसा सॉफ्टवेअर सन 2002 के आसपास मायक्रोसॉफ्टने सीडॅककी मददसे बनाया, परन्तु उसमें केवल एक ही फॉण्टकी सुविधा उपलब्ध कराई जो मंगल फॉण्ट है। यह फ्री (मुफ्त) उपलब्ध है और इसे संगणकपर संस्थापित करनेके बाद ई-मेल भेजने के लिये भी याहू या जीमेल पर डायरेक्ट हिंदी-टायपिंग की जा सकती है। यहाँ एक तकनीकी मुद्दा समझना आवश्यक है कि कुंजीयोंपर वर्णाक्षरोंको आरक्षित करना एक प्रकारका मानक है और कुंजीसे प्राप्त निर्देशको संगणक अपने संग्राहक (हार्ड डिस्क) पर किस फार्मूलेसे जमा करेगा यह एक अन्य मानक होता है। सामान्य भाषा में इन्हें निर्देश-तंत्र-मानक व संग्रह-तंत्र-मानक कहा जा सकता है। सीडॅकद्वारा दोनों प्रकार के मानक विकसित हुए और उनकी सरलता में ही उनका सामर्थ्य व उपयोगिता थी। इसी सरलता के कारण वह दोनों मानक पहले लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टममें और बाद में यूनीकोड मानक-प्रणाली पर अपनाये गये। लीनक्स-प्रणालीका फलसफा है कि संगणकसे संबंधित हर सॉफ्टवेअर विश्वभरमें मुफ्त उपलब्ध कराओ। अतः लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम द्वारा 1998 के आसपास इन-स्क्रिप्ट मानक (निर्देश-तंत्र-मानक व संग्रह-तंत्र-मानक, दोनों) अपनाये जानेपर अपने भारतीय मार्केटको बचाये रखने के लिये मायक्रोसॉफ्टने भी अविलंब (सन 2002 के आसपास) मंगल फॉण्ट उपलब्ध कराया।
यह बात और इन पृष्ठों पर लिखी हर बात सभी भारतीय भाषाओंपर लागू है क्योंकि सबकी वर्णमाला एक है। अतः इन-स्क्रिप्ट कुंजीपटल प्रत्येक भारतीय भाषा के लिये समान रूपसे लागू है। मायक्रोसॉफ्टने हर भारतीय भाषा के लिये एक-एक मुफ्त फॉण्ट उपलब्ध कराया है।
संगणकपर भाषा लिखने-पढने हेतू एक तीसरे मानककी भी आवश्यकता होती है जो फॉण्टकी अर्थात् वर्णाकृतिकी सुघडता व सुंदरता को (अर्थात स्क्रीन पर कैसा दिखे ) सुनिश्चित करता है। इसे हम दृश्य-निर्देश-तंत्र कह सकते हैं। सीडॅकने वह मानक भी बनाये और आज उनके पास एक विशाल फॉण्ट-भंडार है जिसमें सौ के लगभग विभिन्न आकृतियोंवाले फॉण्ट उपलब्ध हैं। इनकी आवश्यकता प्रिंटिंग के लिये भी है और इसलिये भी कि आपके आलेख में यदि सर्वदा एक ही एक फॉण्ट दिखेगा तो उससे एक प्रकार का फॉण्ट-फटीग अर्थात वितृष्णा उत्पन्न होती है। अंगरेजी में भी कई फॉण्ट हैं जैसे एरियल, बुकमॅन या टाइम्स न्यू रोमन । यह मूलतः कॅलीग्राफी का काम है जिससे अक्षर की सुंदरता तय होती है।
प्रश्न है कि संगणकपर हिंदी-विकास के इस लम्बे अंतराल में सीडॅकने क्या किया। सीडॅकने अपने खुदके हिंदी-सॉफ्टवेअरोंमें कुंजीपटलके हेतु इन-स्क्रिप्ट का निर्देश-तंत्र-मानक और फॉण्टों के लिये बने दृश्य-तंत्र-मानक अपनाये किन्तु संग्रह-तंत्र-मानक नही अपनाया अतः आजभी उनके सॉफ्टवेअर के मार्फत लिखे आलेख इंटरनेटमें जंक हो जाते हैं। सीडॅक-प्रणीत इन-स्क्रिप्ट व यूनीकोड-प्रणीत इन-स्क्रिप्ट में यह अन्तर है, हालाँकि इनस्क्रिप्ट वर्णक्रमकी मूल संकल्पना सीडॅककी थी । सीडॅक-प्रणीत इन-स्क्रिप्टकी भारी-भरकम कीमत भी है। अतः केवल सरकारी कार्यालय ही उन्हे खरीद सकते हैं, सामान्य जन नही। परन्तु मायक्रोसॉफ्टके लिये यूनीकोड-मानक-आधारित मंगल फॉण्ट बना देने के बाद अब जाकर 2005-09 के अंतराल में सीडॅकने करीब नये 20 फॉण्ट बनाये हैं जो बी.आय.एस. व यूनीकोडके संग्रह-तंत्र-मानक के अनुरूप हैं अतएव इंटरनेटमें जंक नही होंगे। सीडॅक व डी.आई.टी. के अधिकारी-गण जिस-तिस सेमिनारमें हाजिरी लगाकर जादूगरके जम्हूरेकी तर्जमें जेबसे एक सीडी निकालकर दिखाते हैं कि लो, इसमें इंटरनेट-कम्पॅटिबल (इंटरनेटपर टिकनेवाले) और फिर भी मुफ्त बीसियों फॉण्ट हैं, सीडॅकको पत्र लिखकर इसे मंगवा लीजिये। परन्तु वे नही जानते कि इस सीडीकी उपयोगिता क्यों व कितनी सीमित है।
पाँच माँगें --
इस पृष्ठभूमि में हमारी पहली माँग है कि राजभाषा व डीआयटी के वरिष्ठ अधिकारी इन-स्क्रिप्ट कुंजीपटलकी सरलता को स्वयं देखें और हॅण्डस-ऑन ट्रेनिंग करें। हमारा दावा है कि यह कुंजीपटल समझने हेतू पाँच मिनट, हॅण्डस-ऑन ट्रेनिंग हेतू दस मिनट व कामचलाऊ स्पीड के लिये दो दिन पर्याप्त हैं, पर इस ट्रेनिंगके बिना वे संगणकपर हिंदी को प्रतिष्ठित करने हेतू किसी भी स्कीम को समझने और कार्यान्वित करने में अक्षम हैं।
दूसरी माँग है कि इस ट्रेनिंगके पश्चात वे मोबाइल कंपनियों के साथ बैठक कर यह नितान्त सरल पद्धति मोबाइल पर उपलब्ध कराने हेतू उन्हें प्रेरित करें।
तीसरी माँग - सीडॅक की वेब-साइटसे उन उपरोक्त बीसियों फॉण्टोंको फ्री-डाउनलोड के लिये उपलब्ध कराया जाय ताकि जब भी-जिसे भी इसकी आवश्यकता हो वह तत्काल डाउनलोड कर इनका उपयोग शुरु कर दे। जब ऐसा होगा तभी विश्वके सुदूर कोनोंतक बैठे भारतीय इनका लाभ उठा सकेंगे। इस उपलब्धता की जानकारी व लिंक सीडॅकके मुख्य-पृष्ठ पर दी जाय।
साथ ही यह शर्त यदि सीडॅकने लगाई हो तो हटाई जाये कि इन सॉफ्टवेअरको आधार बनाकर किसी प्राइवेट व्यक्ति द्वारा किया गया अगला आविष्कार बेचा नही जा सकता। हमारे देशको संगणकके क्षेत्रमें अगले आविष्कारोंकी नितांत आवश्यकता है जिसके लिये नये प्राइवेट आविष्कारकों को प्रोत्साहन देनेपर ही हिंदी का विकास हो सकेगा।
हालाँकि मंगल फॉण्ट फ्री (मुफ्त) उपलब्ध है लेकिन संगणकपर विण्डोज ऑपरेटिंग सिस्टम लोड करते समय इसकी फाईल i-386 बाय-डिफॉल्ट लोड नही होती, उसे अलगसे निर्देश देना पडता है। अतः संगणक-विक्रेताओंपर यह कानूनन जिम्मेवारी डाली जाय की ग्राहक को वे यह फाइल लोड करके और दिखाकर ही बिक्री करेंगे। साथ ही राजभाषा विभाग इस बाबत विज्ञापन बनाकर टीवी पर चलाय़े।
पाँचवीं माँग -- यूनीकोडमें संग्रह-तंत्र-मानकके लिये सीडॅकके मानकके साथ-साथ रोमन-फोनेटिकका मानक भी रखा है अतः गूगल-ट्रान्सलिटरेशन या बरहा जैसे सॉफ्टवेअर हिंदी-लेखन के लिये रोमन लिपीमें लिखकर हिंदी लिपीमें पढे जानेवाली सुविधा देते हैं, दुर्भाग्यसे सरकार व सीडॅकभी इनस्क्रिप्टकी बजाय इसी तंत्रको प्रमोट करते हैं। लेकिन इसमें हिंदी व अन्य सभी भारतीय लिपियाँ धीरे-धीरे लुप्त होने की संभावना बन रही है। साथही देशके पचास प्रतिशत बच्चे जो आठवीं कक्षातक आते आते स्कूल छोड देते हैं, उन्हे कभी भी संगणकका उपयोग नही सिखाया जा सकता। अतः हमारी सरकार रोमन-आधारित सॉफ्टवेअरोंको बढावा देनेकी जगह इनस्क्रिप्टको बढावा दे। इसके लिये सर्वशिक्षा विभाग निश्चित व्यवस्था करे।
एक खतरा -- तमाम अच्छाइयोंके बावजूद युनीकोड मानकने इनस्क्रिप्टके मूल रूपमें एक गंभीर त्रुटि निर्माण की है। इनस्क्रिप्टके मूल रूपमें एक ही वर्णमाला और एक ही कुंजीपटल होने के कारण एक आदेशमात्रसे लिप्यंतरण हो जाता था। युनीकोड-मानक कन्सोर्शियममें यह बात प्रभावी रूपसे न रखनेके कारण जहाँ एक ओर इंटरनेटकी सुविधा मिली तो दूसरी ओर लिप्यात्मक एकता को खतरा हो गया है। इस बाबत शीघ्र उपाय आवश्यक हैं जो प्रभावी विदेशनीतिसे ही किये जा सकेंगे।
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4 टिप्पणियां:
मराठी साठी सरकारी पातऴीवर सुद्धा एक की - बोर्ड नाही. त्यामुळे फार अडचणी येतात. लेख अभ्यासपुर्ण आहे. आवडला.
मराठी साठी सरकारी पातऴीवर सुद्धा एक की - बोर्ड नाही. त्यामुळे फार अडचणी येतात. लेख अभ्यासपुर्ण आहे. आवडला.
आपने काफी अच्छे मुद्दे उठाये हैं लीना जी।
जहाँ तक बात विण्डोज़ ऍक्सपी में हिन्दी भाषा समर्थन सक्रिय करने की है तो यह काम स्वचालित रुप से करने के लिये मैंने एक टूल बनाया है।
IndicXP
विण्डोज़ ७ में हिन्दी समर्थन पहले से होता है, बस हिन्दी कीबोर्ड जोड़ना पड़ता है। इस काम को स्वचालित रुप से करने के लिये टूल बनाया है।
Indic Control Panel
इन्स्क्रिप्ट फोबिया वालों के लिये इन्स्क्रिप्ट लेआउट के स्टीकर भी हमने तैयार किये हैं।
InScript Stickers
उपर्युक्त सभी औजार मुफ्त हैं। यदि सरकार इन्हें अपनी सीडी में शामिल करना चाहे तो सहर्ष कर सकती है। इससे बहुत लोगों को आसानी रहेगी। यदि यह बात आप सक्षम लोगों तक पहुँचा सकें तो बहुत अच्छा।
परमस्नेही लीनाजी,
आपके प्रस्तुत आलेख और ब्लौग में जनजागृति हेतु सार्थक सुझाव और समस्याओं को दर्शाया है, आपको साधुवाद........
अपने एक आलेख में भाषा की समस्या के विषय में कुछ विचार प्रकट किये थे, उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं........
भारत में 'देश की भाषा की समस्या' जनता जनित नहीं है अपितु यह जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा जनित है। स्वतंत्र भारत के जनप्रतिनिधियों ने सन १९४७ में ही यह स्वीकार कर लिया था कि देश में एक संपर्क भाषा हो और वह भारत की ही भाषा हो और कोई विदेशी भाषा न हो। भारतीय संविधान लागू होने के बाद पंद्रह साल का समय भाषा परिवर्तन के लिए रखा गया था और वह समय केवल केंद्र सरकार की भाषा के लिए ही नहीं बल्कि भारत संघ के सभी राज्यों के लिए भी रखा गया था कि उस दौरान सभी राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों में अपनी राजभाषा निर्धारित कर लेंगी एवं उन्हें ऐसी सशक्त बना लेंगी कि उनके माध्यम से समस्त सरकरी काम काज किए जाएंगे तथा राज्य में स्थित शिक्षा संस्थाएं उनके माध्यम से ही शिक्षा देंगी। यह निर्णय सन १९४९ में ही किया गया था | राज्यों ने अपनी-अपनी राजभाषा नीति घोषित कर दी थी। यद्यपि वहां भी पूरी मुस्तैदी से काम नहीं हुआ क्योंकि राज्यों के सामने शिक्षा से ज़्यादा महत्वपूर्ण अन्य आवश्यक समस्याएं थीं जिनपर अविलंब ध्यान देना था। उस चक्कर में राज्य सरकारों ने राजभाषाओं की समस्या को टाल दिया था परंतु किसी भी सरकार ने अंग्रेज़ी को राजभाषा के रूप में अनंत काल तक बनाए रखने की मंशा नहीं व्यक्त की। अतः राज्यों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपनी राजभाषाओं को प्रचलित करने के लिए अपने यहां भाषा विभागों की स्थापना की और कार्यालयी भाषा की शिक्षा देना प्रारंभ किया, भाषा प्रयोग की समीक्षा करने लगे तथा प्रशासनिक शब्दावली बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की। राज्य सरकारों ने उसी निर्धारित समय में अपनी भाषाओं को संवर्धित किया और आज नागालैंड के सिवाय सभी राज्यों ने अपनी राज्य भाषाओं में काम करना प्रारंभ कर दिया है। ऐसे में यह और भी आवश्यक हो गया है कि देश में राज्यों के बीच संपर्क भाषा के रूप में हिंदी को स्थापित किया जाए।
अनेक समितियां और आयोग बने परंतु किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा से परे रखने की सिफ़ारिश नहीं की है। राजभाषा आयोग, विश्व विद्यालय अनुदान आयोग, केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड,सभी ने हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं में ही शिक्षा दीक्षा देने की सिफ़ारिश की है। तब संविधान में हिंदी को अनिश्चित काल के लिए टालने की बात कहां से आई? यह निश्चित रूप से कोई सोची समझी चाल तथा प्रच्छन्न विद्वेष की भावना लगती है। इसे समझने और ग्रासरूट स्तर पर चेतना जागृत करने की आवश्यकता है।
हिंदी को वास्तविक रूप में कामकाज की भाषा बनाना हो तो देश में त्रिभाषा सूत्र सच्चे मन से तथा कड़ाई से लागू करना होगा। त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन की कठिनाइयों पर शिक्षा आयोग (सन १९६४-१९६६) ने विस्तार से विचार किया है। व्यावहारिक रूप से त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन की कठिनाइयों में मुख्य है स्कूल पाठ्यक्रम में भाषा में भारी बोझ का सामान्य विरोध, हिंदी क्षेत्रों में अतिरिक्त आधुनिक भारतीय भाषा के अध्ययन के लिए अभिप्रेरण (मोटिवेशन) का अभाव, कुछ हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी के अध्ययन का विरोध तथा पांच से छह साल तक, कक्षा छठी से दसवीं तक दूसरी और तीसरी भाषा के लिए होने वाला भारी खर्च और प्रयत्न। शिक्षा आयोग ने कार्यान्वयन की कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए कहा है कि गलत योजना बनाने और आधे दिल से सूत्र को कार्यान्वित करने से स्थिति और बिगड़ गई है। अब वह समय आ गया है कि सारी स्थिति पर पुनर्विचार कर स्कूल स्तर पर भाषाओं के अध्ययन के संबंध में नई नीति निर्धारित की जाए। अंग्रज़ी को अनिश्चित काल तक, भारत की सहचरी राजभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने के कारण यह बात और भी आवश्यक हो गई है।
अतः ऐसी परिस्थिति में कार्यालयों में हिंदी को प्रचलित करने तथा स्टाफ़ सदस्यों को सक्षम बनाने के लिए सतत और सत्यनिष्ठा के साथ शिक्षण प्रशिक्षण का हर संभव प्रयास करना होगा एवं हिंदी की सेवा से जुड़े हर व्यक्ति को अपने अहम् को दूर रखकर प्रयास करना होगा। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की यह चार पंक्तियां इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं –
"सांध्य रवि बोला कि लेगा काम अब यह कौन,
सुन निरुत्तर छबि लिखित सा रह गया जग मौन,
मृत्तिका दीप बोला तब झुकाकर माथ,
शक्ति मुझमें है जहां तक मैं करूंगा नाथ।।"
आपका स्नेह सदैव मिलता रहेगा, इस कामना के साथ....
सादर,
'जय हिन्द,जय हिन्दी'
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