अजिक्य भारत
डिजिटल भारत और बाल-सुलभ हिंदी लेखन
(व्यावहारिक रूपमें प्रत्यक्ष हिंदीलेखन पाँच मिनटोंमें संगणकपर सीखें)
श्री मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने दो-तीन सपने देश के सम्मुख रख्खे -- मेक इन इंडिया का, डिजीटल भारत का और स्मार्ट सिटी का। इन तीनों सपनों का आपसी जुडाव मैं इस रुप मे देखती हूँ की, ये तीनों मानो बिजली के पंख के तीन पात हैं, जो एक केंद्र से गती पाते हैं और उसका चक्कर लगाते हैं। वह एक सूत्र जो इन तीनों सपनों को साकार करने मे गती दे सकता है वह है संगणक पर बाल-सुलभ पद्धती से टंकलेखन का कौशल्य।
भारत की आधी से अधिक जनसंख्या आज भी गाँवों में बसती है और यह सच्चाई है की यह विशाल जनसंख्या आज भी देशी भाषाएँ बोलती हैं, देशी विचार करती हैं, देशी लिपियाँ लिखती हैं। इन्हें डिजिटल बनाना हो तो देशी भाषाएँ ही सर्वोत्तम हैं। दूसरी ओर संगणक आधारित व्यवसाय करने वाले अधिकांश तंत्रज्ञ संगणक के माध्यम से जल्दी से जल्दी धनिक और अतिधनिक होना चाहते हैं। परंतु इन्होंने इस तथ्य को अभीतक नही समझा है कि वे जितनी शीघ्रतासे संगणक व्यवहार के लिए भारतीय भाषाएँ व भारतीय लिपियोंको आधार बनाएँगे उतनी जल्दी वे डिजिटल भारत के सपने को आगे बढाएँगे और अपना वांछित लाभ भी ले पाएँगे।
क्यों संगणक तंत्रज्ञ देशी भाषाओं से दूर हैं? इसका एक बडा कारण है। संगणक तंत्रज्ञ की संगणक शिक्षा का आरंभ अंग्रेजी भाषा और रोमन लिपी और क्वेर्टी की बोर्ड से होता है। इनसे थोडा उचककर यदि वह देशी भाषाओं के संगणक सहभाग को देखे तो वहाँ पूरी अव्यवस्था दीखती है। कई कई प्रकार के बे-तालमेलवाले सॉफ्टवेअर, हर एक के अलग अलग फॉण्ट सेट्स और इंटरनेट पर सब के सब टाँय टाँय फिस्स्। सरकारी राज से उपलब्ध कराए फॉण्ट सेट्स का भी वही हाल। फिर सभीका सहारा अर्थात् गूगल की ओर देखो तो वहा देशी फॉण्ट तो हैं परन्तु उनका टंकलेखनभी रोमन लिपीके माध्यमसे करना पडता है । देशी भाषा तो केवल पडदेपर दीखती है। मनका चिन्तन रोमन लिपीसे ही करना पडता है।
जो पते की बात तंत्रज्ञ नही जानते वह यह कि हिंदी टंकन की एक अत्यंत सरल पद्धती हैं - बाल-सुलभ हिंदी। वही बाल-सुलभ बांग्ला भी है, वही बाल-सुलभ गुजराती भी है और वही बाल-सुलभ कन्नड, तमिल, मराठी, गुरुमुखी या ओडीसा भी।
इसे मैं बाल-सुलभ इसलिए कहती हूँ कि, स्कूलों में भारतीय भाषाएँ सीखते हुए बच्चे जिस वर्णमाला को याद करते हैं - उसी वर्णक्रम के अनुसार की-बोर्ड पर वर्णाक्षर लिखे जाते हैं। उदाहरण के लिए - कखगघङ की स्थिती की बोर्डपर एक दूसरेके पास पास है, तथदध पास पास, पफबभ पास पास हैं, अआ, इई, उऊ, एऐ, ओऔ पास पास हैं। और भला हो इसे बनाने वाले संगणक इंजिनीअरों का कि लिपी कोई भी हो, परंतु की-बोर्ड पर अक्षरों की जगह एक ही हैं। अतः जिसने मराठी में सीख लिया वह तेलगू टंकन भी कर सकता हैं और गुजराती भी।
इसमें कोई संदेह नही की यह बालसुलभ की-बोर्ड, जिसे टेक्निकली इनस्क्रिप्ट नाम दिया गया, यह डिजिटल भारत के सपने के लिए एक बहुत सशक्त माध्यम है। इसके तीन कारण हैं- पहला, यह इंटरनेट पर टिकाऊ है, सभी नये संगणकों में और नये स्मार्ट मोबाईलोंमें यह बाय-डिफाँल्ट मौजूद है। अर्थात नयेसे खरीदना या इनस्टाँल करना नही है। पुराने विन्डोज XP पर भी इसे सरलता से इनस्टाँल किया जा सकता है, क्योंकि विन्डोज इनस्टाँलेशन की सीडी में इसकी फाइल i-386 होती है। तीसरा कारण यह है कि, इसमें की-बोर्ड के लेआउट को वर्णक्रम के अनुसार अर्थात् कखगघङ के क्रमसे बनाया गया है। अतएव ग्रामीण और शहरी इलाकों में जो बच्चे छठी के बाद से स्कूल ड्राप आउट होना शुरु हो गये, उन्हें भी डिजिटल भारत और संगणक-मित्रताकी मुहिम में शामिल किया जा सकता है, चाहे वह बच्चा किसी प्रांत में क्यों न रहता हो। संगणक तंत्रज्ञों को यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि, देश में आज भी केवल ३० प्रतिशत बच्चे ही आठवीं तक पहुँचते है और केवल १५ प्रतिशत ग्यारहवीं तक । अपने व्यवसाय के लिए यदि वे बाल-सुलभ टंकलेखन पद्धती अपनाएँ तो वे एक बहुत बडे युवा समुदाय को आकर्षित कर सकते हैं।
डिजिटल भारत के सपने के लिए सबसे बडा योगदान मानव संसाधन विभाग का हो सकता है, स्कूली शिक्षा प्रणाली को यही विभाग संचालित करता है। स्कूलों में जितनी जल्दी बाल-सुलभ इनस्क्रिप्ट पद्धती से संगणक लेखन सिखाया जाएगा, उतनी जल्दी देश की जनता डिजिटल भारत की ओर उन्मुख होगी। रोजगारी का भी एक बडा अवसर निर्माण होगा।
डिजिटल भारत के हेतू एक और काम आवश्यक है और वह है ग्रामीण कनेक्टीविटी का। इसकी चर्चा मैंने पहले भी एक लेखमें की है (
दूर-संचार की दिशा में प्रभावी पहल --देशबन्धु दि 24, JUN, 2014,
http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/4557/10/0 ) कि, देश में बहुत बडी मात्रा में रेल्वे और पेट्रोलियम मंत्रालय के पास OFC (Optic Fibre Cable) के जाल बिछे हैं जो ग्रामीण इलाको से गुजरते हैं और जिनकी क्षमता पूर्णतया उपयोग मे नही लाई जा रही। यदि हम उन्हें लो कँपँसिटी (low-capacity) OFC द्वारा ग्रामीण इलाकों तक ले जायें और वहाँ आगे ग्रामपंचायत की अगुवाईमें कॉपर केबल द्वारा कनेक्शन उपलब्ध करवाएँ तो देश कई ग्रामीण इलाको को शीघ्रता से संगणक तंत्र के साथ जोडा जा सकता है। यह ऐसा ही उपयोगी है, जैसे हम गाँवोंको राष्ट्रीय महामार्गसें जोडने के लिए छोटे रास्ते बनाते हैं तो उस गाँव से शहरी गतिविधियाँ तत्काल बढ जाती हैं और गाँवके लोग शहरोमें जा बसने की जगह अपने गाँवमे रहकर शहरी व्यवहार करना पसंद करते हैं। ग्रामीण भागोंमें OFC द्वारा तीव्र गति वाली इंटरनेट सुविधा देना और उन्हें उनकी अपनी भाषा, अपनी वर्णमाला के माध्यमसे संगणक व्यवहार के लिए कौशल्य प्रदान करना, ये दो कार्यक्रम डिजिटल भारत के लिए प्राणवायू समान सहायक होंगे।
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भाषावैज्ञानिक दृष्टि से
देवनागरी लिपि की वर्णमाला विश्व की सभी वर्णमाला लिपियों की अपेक्षा निश्चय ही पूर्णतर है। देवनागरी की वर्णमाला (वास्तव में,
ब्राह्मी से उत्पन्न सभी लिपियों की वर्णमालाएँ) एक अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम (phonetic order) में व्यवस्थित है। यह क्रम इतना तर्कपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ (IPA) ने
अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये मामूली परिवर्तनों के साथ इसी क्रम को अंगीकार कर लिया।
जिस प्रकार
भारतीय अंकों को उनकी वैज्ञानिकता के कारण विश्व ने सहर्ष स्वीकार कर लिया वैसे ही देवनागरी भी अपनी वैज्ञानिकता के कारण ही एक दिन विश्वनागरी बनेगी।
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से देवनागरी लिपि को
अक्षरात्मक (सिलेबिक) लिपि कहते हैं। लिपि के विकाससोपानों की दृष्टि से
चित्रात्मक,
भावात्मक और
भावचित्रात्मक लिपियों के अनंतर "अक्षरात्मक" स्तर की लिपियों का विकास माना जाता है। पाश्चात्य और अनेक भारतीय भाषाविज्ञानविज्ञों के मत से लिपि की अक्षरात्मक अवस्था के बाद अल्फाबेटिक (
वर्णात्मक) अवस्था का विकास हुआ।
ध्वन्यात्मक (फोनेटिक) लिपि, लिपि की सबसे विकसित अवस्था मानी गई है।
"देवनागरी" को अक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि इसके वर्ण वस्तुत:
अक्षर (सिलेबिल) हैं अर्थात स्वर भी और व्यंजन भी। "क", "ख" आदि व्यंजन सस्वर हैं- अकारयुक्त हैं। वे केवल ध्वनियाँ नहीं हैं अपितु सस्वर अक्षर हैं। परंतु यहाँ यह ध्यान रखनेकी बात है कि भारत की "ब्राह्मी" या "भारती" वर्णमाला की ध्वनियों में व्यंजनों का "
पाणिनि" ने वर्णसमाम्नाय के 14 सूत्रों में जो स्वरूप परिचय दिया है- उसके विषय में "
पतंजलि" (द्वितीय शती ई.पू.) ने यह स्पष्ट बता दिया है कि व्यंजनों में संनियोजित "अकार" स्वर का उपयोग केवल उच्चारण के उद्देश्य से है। वह तत्वत: वर्ण का अंग नहीं है। इस दृष्टि से विचार करते हुए कहा जा सकता है कि
देवनागरी लिपि की वर्णमाला तत्वत: ध्वन्यात्मक है, अक्षरात्मक नहीं।
ग्रीक,
रोमन आदि वर्णमालाएँ हैं। आज
रोमन वर्णमाला को अनेक सांकेतिक चिह्नों (डायक्रिटिकल मार्क्स) और नवलिपिसंकेतों के अनुयोग द्वारा, सर्वभाषालेखन के उद्देश्य से पूर्णतम बनाने की चेष्टा की गई/जाती है। उसमें विश्व की सभी भाषाओं को- उनके शुद्धोच्चारणानुसार लिखने की क्षमता बताई जाती है, फिर भी वहाँ भाषा की एक उच्चार्य ध्वनियों के लिए अनेक लिपिसंकेतों का प्रयोग (यथा "ख्", के लिए) आवश्यक होता है।
वैज्ञानिक लिपि की कसौटी[संपादित करें]
वैज्ञानिक लिपि की तुला के अनुसार किसी भी भाषा की लिपि के लिए मुख्यत: तीन बातें आवश्यक हैं :
- (क) भाषा में जितनी उच्चारण-ध्वनियाँ हो उन सबके लिए अलग-अलग लिपिचिह्न हों;
- (ख) प्रत्येक लिपिचिह्न द्वारा केवल एक उच्चारणध्वनि का बोध हो; और
- (ग) एक उच्चारणध्वनि का बोध करानेवाला केवल एक ही लिपिचिह्न होना चाहिए।
देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता के प्रमाण[संपादित करें]
विश्व की अनेक प्रमुख लिपियों में ध्वनियों के नाम भिन्न हैं और उनके उच्चारणात्मक ध्वनिमूल्य भिन्न हैं। (जैसे 'h' का नाम 'एच' है और प्रायः इसका उच्चारण 'ह' होता है।)
नागरी में दोनों में कोई अंतर नहीं है। इसकी वर्णमाला का वर्णक्रम अत्यंत वैज्ञानिक है। ध्वनियों का वर्गीकरण क्रम भी बड़ा वैज्ञानिक है। 1. आरंभ में स्वरध्वनियाँ- (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) हैं।
2. तदनंतर स्थानानुसारी वर्गक्रम से 27 स्पर्श व्यंजन हैं:- (कवर्ग- क्, ख्, ग्, घ्, ङ्, चवर्ग- च्, छ्, ज्, झ्, ञ् टवर्ग- ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्; तवर्ग- त्, थ्, द्, ध्, न्; पवर्ग- प्, फ्, ब्, भ्, म्)
3. तत्पश्चात् अंतस्थ- (य् र् ल् व्)
4. तदनंतर ऊष्मध्वनियाँ (श्, ष्, स् और "ह्") हैं।
निम्नलिखित गुणों के कारण देवनागरी वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी उतरती है:
- एक ध्वनि को निरूपित करने के लिये केवल एक सांकेतिक चिह्न प्रयोग किया जाता है।
- एक सांकेतिक चिह्न के संगत केवल एक ध्वनि निकलती है।
- स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास - देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसके अतिरिक्त वर्ण-क्रम के निर्धारण में भाषा-विज्ञान के कई अन्य पहलुओ का भी ध्यान रखा गया है।
- भारतीय भाषाओं के लिये वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता (५२ वर्ण, न बहुत अधिक न बहुत कम)।
- उच्चारण और लेखन में एकरुपता
- लेखन और मुद्रण मे एकरूपता (रोमन, अरबी और फ़ारसी मे हस्तलिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं)
- लिपि चिह्नों के नाम और ध्वनि मे कोई अन्तर नहीं (जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” है)
- अर्ध-अक्षर के रूप की सुगमता (खड़ी पाई को हटाकर - दायें से बायें क्रम में लिखकर तथा अर्द्ध अक्षर को ऊपर तथा उसके नीचे पूर्ण अक्षर को लिखकर - ऊपर नीचे क्रम में संयुक्ताक्षर बनाने की दो प्रकार की रीति प्रचलित है।)
- देवनागरी, "स्माल लेटर" और "कैपिटल लेटर", "प्रिन्ट रूप" "कर्सिव रूप" आदि की अवैज्ञानिक व्यवस्था से मुक्त है।
उपरोक्त कसौटी के अनुसार देवनागरी की वर्तमान वर्णमाला में कुछ मामूली कमियाँ दिखतीं हैं-
- र के कई रूप प्रयुक्त होते हैं; जैसे इन शब्दों में - राम, प्रथम, राष्ट्र, धर्म आदि।
- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र आदि संयुक्ताक्षरों को वर्णमाला से हटाया जा सकता है क्योंकि अन्य संयुक्ताक्षरों के लिये स्वतंत्र प्रतीक नहीं हैं।
- " ं " की मात्रा से अनुस्वार के साथ-साथ पंचमाक्षरों का भी काम लिया जाता है; जैसे गङ्गा के स्थान पर गंगा, चञ्चल के स्थान पर चंचल, खण्डन के बजाय खंडन, पन्थ के जगह पर पंथ, कम्पन के स्थान पर कंपन, आदि।
- कुछ संयुक्ताक्षरों को लिखने के कई रूप प्रचलित हैं।
फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि परंपरागत सभी अन्य लिपियों की अपेक्षा देवनागरी लिपि अधिक पूर्ण और अधिक वैज्ञानिक है।
लिपि की किलष्टता बहुत कुछ व्यक्ति एवं अभ्यास सापेक्ष होती है। अनभिज्ञ एवं अनभ्यस्त व्यक्ति को सरल लिपि भी क्लिष्ट प्रतीत होती है। प्रत्येक लिपि में कुछ तीव्र गतिशील और कुछ मन्द गतिशील लिखने वाले होते ही हैं। अत: लेखन की त्वरा भी लिपि से अधिक लिखने वाले की क्षमता पर निर्भर करती है। वर्णो की अधिकता तो
संस्कृत में भी है। लेकिन यह संस्कृत का दोष नहीं, सम्पन्नता मानी जाती है। लिपि की वैज्ञानिकता की पहली शर्त है कि उसमें भाषा की प्रत्येक ध्वनि के लिए स्वतंत्र वर्ण हो। नागरी में शिरोरेखा का प्रयोग मात्रा अलंकरण के उद्देश्य से नहीं होता बल्कि उसके और भी उद्देश्य हैं। जैसे शिरोरेखा से घ, ध, भ, म आदि वर्णो की अलग पहचान स्थापित होती है। इससे प्रत्येक शब्द का अलग अलग अस्तित्व बनता है जैसे महादेव शब्द को अलग-अलग शिरोरेखा में लिखा जाये तो अर्थ भी बदल जायेगा। अलग शिरोखा से "महा" शब्द "देव" शब्द का विशेषण बन जायेगा जबकि एक शिरोरेखा में "महादेव" शब्द संज्ञा है।
नागरी में ट्ट, Æ, मूर्धन्य, ष, आदि का संबंध वैदिक संस्कृत आदि प्राचीन भारतीय भाषाओं से है जिनमें इन वर्णो से संबंध ध्वनियां विद्यमान थीं। अत: उन भाषाओं के सभी ग्रंथों में इन ध्वनियों का प्रयोग मिलता है। अस्तु आधुनिक आर्य भाषाओं में भी इन ध्वनियों को हटाया नहीं जा सकता क्योंकि प्राचीन भारतीय भाषा और साहित्य आधुनिक भाषा एवं साहित्य का उपजीव्य है। यह कहा जाता है कि नागरी में ख, घ, ध, म, भ आदि वर्णों में संदिग्ध्ता बनी रहती है, जैसे ख से "रव" का भ्रम होता है। लेकिन इस प्रकार का भ्रम तो रोमन में भी कैपिटल आई और स्माल एल, मए बए न अ आदि वर्णों में होता है। अरबी-फारसी में भी इस प्रकार के संदिग्ध वर्णों की अधिकता है। नागरी में शिरोरेखा के माध्यम से इन वर्णों की पृथक पहचान भली प्रकार हो जाती है। यह सतत् अभयास और ध्वनि ज्ञान पर आधरित है।
क्ष, त्र, ज्ञ को भी संयुक्त व्यंजन की दृष्टि से अनावश्यक बताया जाता है किन्तु संयुक्त व्यंजन होते हुए भी आवश्यक है, जैसे क्षत्रिय, लक्षण, पक्ष, त्रिशूल, त्रिदेव, ज्ञान, विज्ञ आदि। अत: इन ध्वनियों को ट्ट, झ, ण आदि ऐसे द्विववधि वर्ण हैं जो भ्रम उत्पन्न करते हैं, ऐसा कहा जाता है। ऐसे द्विवविध् रूप तो रोमन लिपि में लगभग सभी वर्णों में पाये जाते हैं, जैसे A (ए), a (स्माल ए), B (बी), b (स्माल बी), R (आर), r (स्माल आर), F (एफ), f (स्माल एफ) आदि लेकिन नागरी का प्रयोग इसके उद्भव काल से ही एकाधिक भाषाओं के लिए अत्यंत विस्तृत क्षेत्र में होता रहा है। इसी के परिणामस्वरूप कुछ वर्णों में किंचित भिन्नता आ गई है, ऐसा होना स्वाभाविक है। इसलिए भारत सरकार ने एक एक रूप को मानक मानकर उसका प्रयोग स्वीकार किया है।
अनुनासिकता संबंधी नियम भी नागरी में सुनिश्चित हैं। किन्तु सुविधा और प्रयोग की एकरूपता की दृष्टि से लेखन में कुछ भिन्नता आ गई है लेकिन उसके उच्चारण, अर्थ और व्यावहारिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। जो जानकार हैं वे अनुनासिकता का शुद्ध प्रयोग करते ही हैं, जैसे हंसी, भैंस, हिंसा, निन्दा, पम्प आदि। अनुनासिकता के प्रयोग में कुछ अवैज्ञानिकता का प्रचलन हो गया किन्तु प्रयोग में आते-जाते जो रूप प्रचलित हो जाता है, वही भाषा का एक अंग बनकर अपना स्थान बना लेता है। यह भाषा के विकास का नियम भी है। फिर भी इस अवैज्ञानिकता को स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए। यद्यपि इसका निराकरण संभव नहीं प्रतीत होता।
देवनागरी में "र" के पांच रूप (प्रकार, कृतज्ञ, वर्ष, रकम, ड्रम) प्रचलित हैं किन्तु ये पांचों रूप अलग-अलग अस्तित्व एवं प्रयोग में वर्तमान हैं। अत: हिन्दी भाषा का एक आवश्यक अंग बन गए हैं। इन्हें अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। नागरी पूर्णत: ध्वनि वैज्ञानिक है। इसमे ध्वनियों के उच्चारण क्रम के अनुसार ही वर्णों का सयोजन होता है - ध्वनियां जिस क्रम में उच्चारित होती हैं, उसी क्रम में लिखी जाती हैं। जैसे खट्टा, गड्डा, प्रेम, त्राण आदि। एक स्वर के साथ चार-चार व्यंजन तक संयुक्त होकर एक अक्षर बनाते हैं जैसे वर्त्स्य।
मात्राओं का विधान नागरी लिपि की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता है। इसी के कारण वह वर्णात्मक लिपियों से अधिक विकसित दशा की वैज्ञानिक लिपि बन सकी है। टंकण, मुद्रण आदि प्रावधिक उपयोगों में यदि मात्राओं के कारण कुछ कठिनाई होती भी है तो केवल इसलिए कि नागरी के उपयुक्त यंत्रों के निर्माण का अभी तक समुचित प्रयास नहीं किया गया। इसमें लिपि का कोई दोष नहीं। मात्रा चिन्ह स्वतंत्र वर्ण नहीं बल्कि स्वर वर्णों के ऐसे कल्पित चिन्ह हैं जो व्यंजन वर्णों के साथ युक्त होकर उनमें अपने से संबद्ध स्वर की उपस्थिति की सूचना देते हैं। अत: मात्रा विधान अवैज्ञानिक नहीं है। नागरी लिपि में ध्वनि विश्लेषण की क्षमता भी प्रयाप्त है, जैसे 'चन्द्रिका' शब्द का ध्वनि विश्लेषण करें तो उसे च + अ + न् + द् + र + ि + क +आ के रूप में समझ जा सकता है।
संसार में ऐसी कोई लिपि नहीं है जिसमें लिखते समय हाथ न उठाना पड़ता हो। रोमन में जे, टी आदि वर्णों को लिखने में बिंदु लगाने, टी काटने आदि के लिए हाथ उठाना पड़ता है। अत: नागरी पर यह आरोप निराधर हैं। यह किसी भी लिपि के लिए संभव नहीं है कि उसमें संसार की सभी भाषाओं की ध्वनियों के लिए वर्ण हो। फिर भी सबसे अधिक वर्ण देवनागरी में ही हैं देवनागरी में जितना एक वर्ण के स्थान में लिखा जाता है उतने के लिए रोमन में कभी-कभी सात वर्णों का स्थान लगता है जैसे अंग्रेजी में 'थ्रू' व 'नॉलेज' आदि लिखने में अधिक समय, स्थान व श्रम लगता है। देवनागरी में ऐसा नहीं है। अस्तु
आइजक पिटमैन और
मोनियर विलियम्स जैसे विश्व के अधिकांश विद्वानों की यही मान्यता है कि "संसार की कोई लिपि यदि सर्वाधिक पूर्ण है तो, वह एकमात्र देवनागरी ही है"।
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sent to parasharas@gmail.com, Ravishankar Shrivastava on 13-06-2016
पराशरजी, वैसे भी हमने एक देश के नाते बहुत समय खो दिया है और धन्य हैं हम कि आगे भी समय खोते जा रहे हैं -- हमें तुरंत इनस्क्रिप्टको ही सर्वथा अपनाकर यह सारी मिसमॅचवाली खिचखिच समाप्त करनी चाहिये। अब बात है टाइपिंग संस्थाओंकी --वे इनस्क्रिप्ट पर शिफ्ट नही होना चाहते इसके ३ कारण हैं -- १) इनस्क्रिप्ट काकोर्स १ महीनेमें पूरा हो सकता है अतः यदि वे बेइमान हैं तो अपने ग्राहकोंको बहकाकर ८ महीने वाले रेमिंग्टन कोर्सके लिये कहेंगे।
(चलो मान लिया कि ऐसे केवल १० % हैं।)
२) उनके पास पुराने रेमिंग्टनके लिये बने-बनाये पाठ हैं और उनके पास इनस्किप््््््टके पाठ नही हैं । मुझे बहुत पहले एक सिद्धहस्त स्टेनो-टाइपिस्टने यह समझाया था कि ऐसे पाठोंके बिना स्पीडकी गॅरंटी नही और नौकरीके लिये स्पीडका सर्टिफिकेट देखा जायगा। फिर मैंने उसीको प्रोत्साहित करके उसीसे कुछ पाठ (मराठी) बनवाये थे और उसमें कुछ सुधार मैंने किये थे। ये पाठ लेकर हम रत्नागिरी जिलेमें एक ट्रेेनिंग कार्यक्रम चलाते हैं और १ महीनेमें २५ शब्द प्रति मिनट की स्पीड आती है केवल आधा घंंटा प्रति व्यक्ति प्रतिदिनसे।
कहनेका मतलब ये कि पाठ बनानेके लिये हमें ही प्रयास करने होंगे। थोडेसे हिंदी पाठ आपको भेज रही हूँ।
३) आज भी कई शासकीय संस्थाएँ टाइपिंगकी परीक्षा टाइपराइटरपर करवाती हैं। अतः संस्थाओंको भी मजबूरी में रेमिंग्टन की बोर्ड ही सिखाना पडता है। आपके इलाके में ऐसा हो रहा हो तो थोडा सरकारी अधिकारियोंको समझाइये।
फिलहाल आप निम्न ३ लिंक देख सकते हैं। और यदि इनस्क्रिप्टके पक्षधर हैं तो इसका प्रचार जरा अधिक जोोोरसे करें क्योंकि हम बहुत बडी उपयोगिता खो रहे हैं अन्य सुनीकोोड-नॉन-कम्पॅटिबल कीबोर्ड अपनाकर।