गुरुवार, 30 नवंबर 2017

भाषायी समाधान की साझी तकनीकि युक्ति -- गर्भनाल लेख १-४ सित से दिस. २०१७

भाषायी समाधान की साझी तकनीकि युक्ति
गर्भनाल लेख ४
गर्भनाल, दिसम्बर-2017
-- -लीना मेहेंदले

(पहले लेख --

हिंदी राग : अलगाव का या एकात्मता का?   गर्भनाल, सितम्बर-2017

वर्णमाला, भाषा, राष्ट्र और संगणक   गर्भनाल, अक्तूबर-2017

समृद्धि  संगणक का भाषाई समीकरण  गर्भनाल, नवम्बर-2017

११ दिन चले अढाई कोस - गर्भनाल, सितम्बर-२०१८--------------------------------------------------------------------------------भाषायी समाधान की साझी तकनीकि युक्ति

वर्तमान काल में विदेश में बसे भारतीय मूल के निवासियों की
संख्या दो करोड़ के आसपास लै है। प्रस्तुत लेख उनकी भाषा संबंधित
विमर्श के लिये है। खासकर लेखन के लिये भारतीय भाषाओं व लिपियों
को कम्प्यूटर के माध्यममें प्रस्थापित करने की सरल सी युक्ति
बतलाने के लिये ही यह लेखन सरोकार है। लेकिन मैं इसे उलटे तरीके
से लिखने वाली हूँ अर्थात् पहली चर्चा उस युक्ति की और बाद में
उसकी आवश्यकता या कालसंगति की। इसके पीछे यह भी मान्यता
रखती हूँ कि इस लेख के सभी विदेशी पाठक कम्प्यूटर लेखन कला से
पूर्ण परिचित हैं।

तो सरल सा उपाय है कि पहले तो गूगल सर्च आदि से भारतीय
वर्णमाला अर्थात् व्यंजनमाला कखगघङ और स्वरमाला अआइईउऊ को
डाउनलोड करके उसे दो चार बार दोहराकर पुनःपरिचित हो लें। फिर
कम्प्यूटर के सेटिंग व कण्ट्रोल पैनल में जाकर रीजन एण्ड लँग्वेज के
पर्याय पर लेंग्वेज को खोजकर क्लिक करें। तो एक आइकॉन पूछेगा कि
अॅड लेंग्वेज करना है क्या ? उसके मेनू में जहाँ हिंदी (या मपराठी या
संस्कृत) का ऑप्शन है उसे सिलेक्ट करने से वह लेंग्वेज अॅड हो जाती
है और नीचे टूलबार की पट्टी में एक नया आइकॉन दिखता है En। यह
आपको इंग्लिश या हिंदी में से चुनाव करने की सुविधा देता है।
अब कोई डॉक फाइल खोलकर फिर हिंदी का चुनाव करिये। इस
तरह आपने सीखने के पूरे साधन जुटा लिये (समय 2 से 5 मिनट)।
अब दो क्रियाएँ हैं - समझना और प्रॅक्टीस करना।
समझना अर्थात की-बोर्ड पर अक्षरों की पोजीशन को ऐसे देखना
कि उसके वर्णमाला अनुसारी होने की ... और इसी कारण उसे याद
रखने की सुविधा समझ में आ जाये।

निम्न चित्र को देखकर और की-बोर्ड पर प्रत्यक्ष प्रॅक्टीस करके हम
समझ लेते हैं कि कखगघ पास-पास हैं (ख और घ के लिये शिफ्ट-की
के साथ प्रयोग करना है)। फिर चछजझ पास-पास हैं। इसी प्रकार
टठडढ, तथदध और पफबभ भी पास-पास हैं। ये सारे अक्षर दाहिनी
उंगलियों से लिखे जाने हैं। बाईं ओर की पांच कुंजियों से मात्राएँ लगती
हैं या फिर मूल स्वर लिखे जाते हैं। सुविधा के लिये इनका क्रम
ओऔएऐअआइईउऊ रखा गया है। इतने अक्षरों की तथा उनमें मात्रा
लगाने के तरीके की पहचान दो-तीन बार की-बोर्ड पर प्रॅक्टीस से ही हो
जाती है। उसके बाद बाकी अक्षरोंकी कुञ्जियोंको (की-पोजीशनको) याद
रखना कोई बड़ी बात नहीं है। तो इस वर्णमाला-अनुसारी
की-बोर्डका बनानेवालोंने उसका नाम रखा हे इनस्क्रिप्ट । लेकिन मुझे
उसे भारती कहना अधिक सयुक्तिक लगता है, खैर।
प्रॅक्टीस के लिये लगातार 2-3 दिन 10 मिनट की प्रॅक्टीस काफी
है।

अब आते हैं इसकी आवश्यकता पर। लेकिन उससे पहले जरा
विदेश में बसे भारतीयों का स्टेट्स रिपोर्ट देखते हैं।
साठ-सत्तर के दशक में बाहर गये हुए भारतीय अस्सी-नब्बे के
दशक में गये हुए तथा 2001 के बाद गये हुए - इस प्रकार तीन
कालखण्ड बनते हैं। इनमेंसे पहले दौर वालोंकी तीसरी पीढ़ी तथा दूसरे
दौर वालों की दूसरी पीढ़ी युवावस्था में है। तीसरे दौर में अमरीका की
अपेक्षा यूरोपीय देश तथा एशियाई देशों में जाने वालों क संख्या में
वृद्धि हुई है। इस प्रकार अब भारतवासी विश्वके अलग अलग देशोंमें
अच्छे संख्याबलके साथ हैं।

पहले दौर में गये लोगों ने बाहरी व्यवहारों के लिये पूरी तरह से
पाश्चात्य रिवाजों को अपनाकर भी घर के अंदर अपनी संस्कृति, अपने
त्यौहार आदि कायम रखे थे। विदेशों के हिंदुस्तानी मंदिर, हिंदुस्तानी
संस्थाओं में प्रायः ये ही संस्थापक रहे। दूसरे दौर में वे लोग गये जो
कई मायनों में अपने आप को हर प्रकार की भारतीयता से दूर रखना
चाहते थे और वे पूरी तरह से जेंटलमैन बनने में जुट गये। तीसरी दौर
में वे जा रहे हैं जो प्रायः उच्च पदस्थ होकर गये हैं। कम्प्यूटर जैसी
आधुनिक तकनीक उनके लिये अति सरल है। इनके माँ-पिता ने इन्हें
भारतीय भाषा इत्यादि से अलग रखकर अंगरेजियत में ढाल दिया था,
क्योंकि विदेशी अच्छी कमाई का वही गणित था। इनकी दूसरी पीढ़ी
अभी बाल्यावस्था में है। लेकिन उसका भी तेजी से अंगरेजीकरण हो ही
रहा है।
तो अब कुल मिलाकर इन विदेशी भारतीयों की संख्या में,
प्रतिष्ठा में, और समृद्धि में वह वृद्धि हुई है जहाँ उन्हें सामाजिक
मनोदशा की अभिव्यक्ति में पहचान मिल रही है। उनका एक प्रेशर ग्रुप
सा बन सकता है, बन चुका है। ये आज भी व्यक्तिगत समृद्धि के
लिये पश्चिमी भाषा, संस्कृति, रीतिरिवाज आदि को ही आवश्यक मानते

हैं लेकिन इनकी कुल संख्या का दस प्रतिशत हिस्सा अब यह भी
चाहता है कि वह दुबारा अपनी भारतीयता को पहचाने, उससे जुडे।
इसके दो-तीन सरल उपाय बन गये हैं। एक तो भारत के विदेश
मंत्रालय से आयोजित प्रवासी भारतीय दिवस तथा उनकी अपनी अपनी
भाषाओं में निकाली जाने वाली पत्र-पत्रिकाएं हैं। दूसरा है भारतीय
संगीत व संस्कृति। चाहे वह शास्त्रीय संगीत हो या फिर बॉलीवुड-
ट्रॉलीवुड से सीखी जाये। तीसरा सरल तरीका है कि जिन विदेशी गुरुओं
ने तीस-चालीस वर्ष पूर्व भारतीय अध्यात्म को सीखा और अपनी नई
शब्दावली में ढालकर अपने नाम से प्रस्तुत किया उनसे अध्यात्म-दर्शन
सीखें।
ये सारे सरल तरीके हैं जिनके लिये उन्हें अपने कम्फर्ट जोन से
बाहर निकलने की आवश्यकता नहीं है। वह कम्फर्ट जोन है अंगरेजी
भाषा। इसीलिये भारतीय संस्कृति, परम्परा और सनातन शास्त्रों की
महत्ता जानकर या उनकी ओर आकृष्ट होकर भी उसकी अभिव्यक्ति के
लिये अब भी अंगरेजी का आश्रय लिया जाता है। घर में बच्चों के साथ
बोलचाल में भले ही कहीं कहीं अपनी अपनी भारतीय भाषा में बोला
जाता हो, परन्तु लेखन में अपनी भाषा का पूरा ही अभाव है। एक दृश्य

जो बहुतायत से देखा जाता है वह ये कि वहां बसे युवाओं के माता-
पिता जब मिलने जाते हैं तब वे माता-पिता अपने बेटे-बेटियों से तो
अपनी भाषा में बात करते हैं, लेकिन नाती-पोतों के साथ अंगरेजी से
छुटकारा नहीं है।
यह स्थिति है विदेशों में बसे लगभग दो करोड़ भारतीयों की।
इनमें से यदि बीस हजार भी मानते हों कि हमें वापस अपनी
भारतीयता से जुड़ना चाहिये, तो भी अपनी भाषा से वापस जुड़ने की
इच्छा रखने वाले दो हजार ही निकलेंगे। और उनके मन में भी एक
शंका अवश्य होगा कि जब गूगल-इंडिका- इनपुट जैसे टूल्स की सहायता
से रोमन में स्पेलिंग करते हुए भी कम्प्यूटर उनकी लिखावट को
भारतीय लिपि में दिखा सकता है तो फिर अलग से यह वर्णमाला
अनुसारी की-बोर्ड क्यों सीखा जाय ?
तो इसका उत्तर है भारतीय भाषाओं में फोनेटिक्स का सही
उपयोग। छोटे बच्चे को इंग्लिश स्पेलिंग सीखते हुए यह समझना बड़ा
मुश्किल होता है कि CUT को कट क्यों पढ़ा जाता है और कलर का
स्पेलिंग Calar क्यों नहीं है? Mar Gaya को आप क्या पढ़ेंगे - मर गया या

मार गया ? लेकिन भारतीय भाषा-लेखन में यह समस्या नहीं है। वह उच्चारण
पर, फोनेटिक्स पर आधारित है।
इसी उच्चारण सुविधा के कारण भारतीय पद्धति से भाषा
लिखना सरल है, विश्वकी किसी भी अन्य भाषा की अपेक्षा।
इस भारतीय तरीके की विशेषता यह है कि आप लिखने के लिये
कोई भी भारतीय भाषा चुनें - हिंदी, मराठी, बंगाली, तेलुगु, कन्नड़,
तमिल, गुजराती। हर बार की-बोर्डके अक्षरोंका स्थान वही है जो इस चित्रमें
है। इसलिये आपको अपनी हिंदी बात किसी बंगाली मित्र को लिखकर
दिखानी है तो एड लँग्वेज में बंगाली को एड कर लें और हिंदी की तरह
लिखते चले जायें - चाहे आपको बंगाली लिपि लिखनी-पढ़नी आती हो
या न आती हो। और अब तो एक अच्छा कन्वर्जन टूल उपलब्ध है।
http://www.virtualvinodh.com/aksharamukha
इसकी सहायतासे आप कोई भी हिंदी पन्ना तेलुगु, गुरुमुखी,
मलयालम में बदल सकते हैं या उन लिपियों से हिंदी में। विदेश में बसे
भारतीयों को भावना के स्तर पर एकत्रित लानेका ये भी एक अच्छा उपाय
हैं कि एक दूसरेकी भाषाको अपनी लिपीमें पढा जाय।

वर्तमानमें विण्डोज व लीनक्स दोनों ऑपरेटिंग सिस्टममें एड
लँग्वेजकी सहायतासे सारी भारतीय भाषाओंको एड कर अपनी मनचाही
लिपीमें कोई भी भारतीय लेखन सरलतासे किया जा सकता है। अगली
पीढीको भारतकी वर्णमाला और लिपी सिखाना भी एक कर्तव्य, या मैं
कहूँ तो भारत-धर्म है। विदेशोंमें बसे जो भी भारतीय मानते हैं कि
भारतीय संस्कृति, भाषा, लिपी इत्यादीका संरक्षण होना चाहिये उन्हें इस
यज्ञमें अपनी कर्माहुती देनेके लिये यह सरलसा तरीका अवश्य अपनाना
चाहिये। और यदि किसीको इसमें कोई तकनीकी परेशानी आये तो
निःसंकोच मुझे ईमेल कर सकते हैं।

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हिंदी राग : अलगाव का या एकात्मता का? 

Sept 2017
इस देवभूमि भारत की करीब 50 भाषाएँ हैं, जिनकी प्रत्येक की बोलने वालों की लोकसंख्या 10 लाख से कहीं अधिक है और करीब 7000 बोली भाषाएँ, जिनमें से प्रत्येक को बोलनेवाले कम से कम पाँच सौ लोग हैं, ये सारी भाषाएँ मिलकर हमारी अनेकता में एकता का अनूठा और अद्भुत चित्र प्रस्तुत करती हैं। इन सबकी वर्णमाला एक ही है, व्याकरण एक ही है और सबके पीछे सांस्कृतिक धरोहर भी एक ही है। यदि गंगोत्री से काँवड भरकर रामेश्वर ले जाने की घटना किसी आसामी लोककथा को जन्म देती है, तो वही घटना उतनी ही क्षमता से एक भिन्न परिवेश की मलयाली कथा को भी जन्म देती है। इनमें से हरेक भाषा ने अपने शब्द-भंडार से और अपनी भाव अभिव्यक्ति से किसी न किसी अन्य भाषा को भी समृद्ध किया है। इसी कारण हमारी भाषा संबंधी नीति में इस अनेकता और एकता को एक साथ टिकाने और उससे लाभान्वित होने की सोच हो यह सर्वोपरि है, यही सोच हमारी पथदर्शी प्रेरणा होनी चाहिये। लेकिन क्या यह संभव है?
पिछले दिनों और पिछले कई वर्षों तक हिन्दी-दिवस के कार्यक्रमों की जो भरमार देखने को मिली उसमें इस सोच का मैंने अभाव ही पाया। यह बार-बार दुहाई दी जाती रही है कि हमें मातृभाषा को नहीं त्यजना चाहिये, यही बात एक मराठी, बंगाली, तमिल, तेलुगु या कन्नड़ भाषा बोलने वाला भी कहता है और मुझे मेरी भाषाई एकात्मता के सपने चूर-चूर होते दिखाई पड़ते हैं। यह अलगाव हम कब छोड़ने वाले हैं? हिन्दी दिवस पर हम अन्य सहेली-भाषाओं की चिंता कब करने वाले है? 
हिन्दी मातृभाषा का एक व्यक्ति हिन्दी की तुलना में केवल अंग्रेजी की बाबत सोचता है और शूरवीर योद्धा की तरह अंग्रेजी से जूझने की बातें करता है। हमें यह भान कब आयेगा कि एक बंगाली, मराठी, तमिल या कन्नड़ मातृभाषा का व्यक्ति उन भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी के साथ हिन्दी की बात भी सोचता है और अक्सर अपने को अंग्रेजी के निकट औऱ हिन्दी से मीलों दूर पाता है। अब यदि हिन्दी मातृभाषी अंग्रेजी के साथ साथ किसी एक अन्य भाषा को भी सोचे तो वह भी अपने को अंग्रेजी के निकट और उस दूसरी भाषा से कोसों दूर पाता है। अंग्रेजी से जूझने की बात खत्म भले ही न होती हो, लेकिन उस दूसरी भाषा के प्रति अपनापन भी नहीं पनपता और उत्तरदायित्व की भावना तो बिलकुल नहीं। फिर कैसे हो सकती है कोई भाषाई एकात्मता?
कोई कह सकता है कि हम तो हिन्दी दिवस मना रहे थे, जब मराठी या बंगाली दिवस आयेगा तब वे लोग अपनी-अपनी सोच लेंगे। लेकिन यही तो है अलगाव का खतरा। जोर-शोर से हिन्दी दिवस मनानेवाले हिन्दीभाषी जब तक उतने ही उत्साह से अन्य भाषाओं के समारोह में शामिल होते नहीं दिखाई देंगे, तब तक यह खतरा बढ़ता ही चलेगा।
 एक दूसरा उदाहरण देखते हैं- हमारे देश में केन्द्र-राज्य के संबंध संविधान के दायरे में तय होते हैं। केन्द्र सरकार का कृषि-विभाग हो या शिक्षा-विभाग, उद्योग-विभाग हो या गृह विभाग, हर विभाग के नीतिगत विषय एकसाथ बैठकर तय होते हैं। परन्तु राजभाषा की नीति पर केन्द्र में राजभाषा-विभाग किसी अन्य भाषा के प्रति अपना उत्तरदायित्व ही नहीं मानता तो बाकी राजभाषाएँ बोलने वालों को भी हिन्दी के प्रति उत्तरदायित्व रखने की कोई इच्छा नहीं जागती। बल्कि सच कहा जाए तो घोर अनास्था, प्रतिस्पर्धा, यहाँ तक कि वैर-भाव का प्रकटीकरण भी हम कई बार सुनते हैं। उनमें से कुछ को राजकीय महत्वाकांक्षा बताकर अनुल्लेखित रखा जा सकता है, पर सभी अभिव्यक्तियों को नहीं। किसी को तो ध्यान से भी सुनना पड़ेगा, अन्यथा कोई हल नहीं निकलेगा।
इस विषय पर सुधारों का प्रारंभ तत्काल होना आवश्यक है। हमारी भाषाई अनेकता में एकता का विश्वपटल पर लाभ लेने हेतु ऐसा चित्र संवर्द्धित करना होगा जिसमें सारी भाषाओं की एकजुटता स्पष्ट हो और विश्वपटल पर लाभ उठाने की अन्य क्षमताएँ भी विकसित करनी होंगी। आज का चित्र तो यही है कि हर भाषा की हिन्दी के साथ और हिन्दी की अन्य सभी भाषाओं के साथ प्रतिस्पर्धा है जबकि उस तुलना में सारी भाषाएँ बोलने वाले अंग्रेजी के साथ दोस्ताना ही बनाकर चलते हैं। इसे बदलना हो तो पहले जनगणना में पूछा जाने वाला अलगाववादी प्रश्न हटाया जाये कि आपकी मातृभाषा कौन-सी है? उसके बदले यह एकात्मतावादी प्रश्न पूछा जाये कि आपको कितनी भारतीय भाषाएँ आती हैं? आज विश्वपटल पर जहाँ-जहाँ जनसंख्या गिनती का लाभ उठाया जाता है, वहाँ-वहाँ हिन्दी को पीछे खींचने की चाल चली जा रही है क्योंकि संख्या-बल में हिन्दी की टक्कर में केवल अंग्रेजी और मंडारिन (चीनी भाषा) है- बाकी तो कोसों पीछे हैं। संख्या बल का लाभ सबसे पहले मिलता है रोजगार के स्तर पर। अलग-अलग युनिवर्सिटियों में भारतीय भाषाएँ सिखाने की बात चलती है, संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) में अपनी भाषाएँ आती हैं, तो रोजगार के नये द्वार खुलते हैं।
भारतीय भाषाओं को विश्वपटल पर चमकते हुए सितारों की तरह उभारना हम सबका कर्तव्य है। यदि मेरी मातृभाषा मराठी है और मुझे हिन्दी व मराठी दोनों ही प्रिय हों तो मेरा मराठी-मातृभाषिक होना हिन्दी के संख्याबल को कम करे यह मैं कैसे सहन कर सकती हूँ और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के संख्या बल के कारण भारतीयों को जो लाभ मिल सकता है उसे क्यों गवाऊँ? क्या केवल इसलिए कि मेरी सरकार मुझे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की महत्ता का लाभ नहीं उठाने देती? और मेरे मराठी ज्ञान के कारण मराठी का संख्याबल बढ़े यह भी उतना ही आवश्यक है। अतएव सर्वप्रथम हमारी अपनी राष्ट्रनीति सुधरे और मेरे भाषा-ज्ञान का लाभ मेरी दोनों माताओं को मिले ऐसी कार्य-प्रणाली भी बनायें यह अत्यावश्यक है।
और बात केवल मराठी या हिन्दी की नहीं है। विश्वस्तर पर जहाँ मैथिली, कन्नड़ या बंगाली लोक-संस्कृति की महत्ता उस उस भाषा को बोलने वालों के संख्याबल के आधार पर निश्चित की जाती है, वहाँ वहाँ मेरी उस भाषा की प्रवीणता का लाभ अवश्य मिले- तभी मेरे भाषाज्ञान की सार्थकता होगी। आज हमारे लिये गर्व का विषय होना चाहिये कि संसार की सर्वाधिक संख्याबल वाली पहली बीस भाषाओं में तेलुगु भी है, मराठी भी है, बंगाली भी है और तमिल भी। तो क्यों न हमारी राष्ट्रभाषा नीति ऐसी हो जिसमें मेरे भाषाज्ञान का अंतर्राष्ट्रीय लाभ उन सारी भाषाओं को मिले और उनके संख्याबल का लाभ सभी भारतीयों को मिले। यदि ऐसा हो, तो मेरी भी भारतीय भाषाएँ सीखने की प्रेरणा अधिक दृढ़ होगी।
आज विश्व के 700 करोड़ लोगों में से करीब 100 करोड़ हिन्दी को समझ लेते हैं और भारत के सवा सौ करोड़ में करीब 90 करोड़; फिर भी हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। इसका एक हल यह भी है कि हिन्दी-भोजपुरी-मैथिली-राजस्थानी-मारवाडी बोलने वाले करीब 50 करोड़ लोग देश की कम से कम एक अन्य भाषा को अभिमान और अपनेपन के साथ सीखने-बोलने लगें तो संपर्कभाषा के रूप में अंग्रेजी ने जो विकराल सामथ्र्य पाया है उससे बचाव हो सके।
देश में 6000 से अधिक और हिन्दी की 2000 से अधिक बोली-भाषाएँ हैं। सोचिये कि यदि हिन्दी की सारी बोली भाषाएँ हिन्दी से अलग अपने अस्तित्व की माँग करेंगी तो हिन्दी के संख्याबल का क्या होगा, क्या वह बचेगा? और यदि नहीं करेंगी तो हम क्या नीतियाँ बनाने वाले हैं ताकि हिन्दी के साथ-साथ उनका अस्तित्व भी समृद्ध हो और उन्हें विश्वस्तर पर पहुँचाया जाये। यही समस्या मराठी को कोकणी, अहिराणी या भिल-पावरी भाषा के साथ हो सकती है और कन्नड-तेलुगु को तुलू के साथ। इन सबका एकत्रित हल यही है कि हम अपनी भाषाओं की भिन्नता को नहीं बल्कि उनके मूल-स्वरूप की एकता को रेखित करें। यह तभी होगा जब हम उन्हें सीखें, समझें और उनके साथ अपनापा बढ़ायें। यदि हम हिन्दी दिवस पर भी रुककर इस सोच की ओर नहीं देखेंगे तो फिर कब देखेंगे? 
जब भी सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी लाने की बात चलती है, तो वे सारे विरोध करते हैं जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। फिर वहाँ अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहता है। उसी दलील को आगे बढ़ाते हुए कई उच्च न्यायालयों में उस उस प्रान्त की भाषा नहीं लागू हो पाई है। उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भारत के किसी भी कोने से नियुक्त किये जा सकते हैं, उनके भाषाई अज्ञान का हवाला देकर अंग्रेजी का वर्चस्व और मजबूत बनता रहता है। यही कारण है कि हमें ऐसा वातावरण फैलाना होगा जिससे अन्य भारतीय भाषाएँ सीखने में लोग अभिमान का भी अनुभव करें और सुगमता का भी।
हमारे सुधारों में सबसे पहले तो सर्वोच्च न्यायालय, राज्यों के उच्च न्यायालय, गृह व वित्त मंत्रालय, केंद्रीय लोकराज्य संघ की परीक्षाएँ, इंजीनियरिंग, मेडिकल तथा विज्ञान एवं समाजशास्त्रीय विषयों की स्नातक स्तरीय पढ़ाई में भारतीय भाषाओं को महत्व दिया जाये। सुधारों का दूसरा छोर हो प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की पढ़ाई में भाषाई एकात्मता लाने की बात जो गीत, नाटक, खेल आदि द्वारा हो सकती है। आधुनिक मल्टीमीडिया संसाधनों का प्रभावी उपयोग हिन्दी और खासकर बाल साहित्य के लिये तथा भाषाई बाल साहित्यों को एकत्र करने के लिये किया जाना चाहिये। भाषाई अनुवाद भी एकात्मता के लिये एक सशक्त संग्रह बन सकता है लेकिन देश की सभी सरकारी संस्थाओं में अनुवाद की दुर्दशा देखिये कि अनुवादकों का मानधन उनके भाषाई कौशल्य से नहीं बल्कि शब्द संख्या गिनकर तय किया जाता है जैसे किसी ईंट ढोने वाले से कहा जाये कि हजार ईंट ढोने के इतने पैसे।
अनेकता में एकता को बनाये रखने के लिये दो अच्छे साधन हैं - कंप्यूटर एवं संस्कृत। उनके उपयोग हेतु विस्तृत चर्चा हो। मान लो मुझे कन्नड़ लिपि पढ़नी नहीं आती परन्तु भाषा समझ में आती है। अब यदि कंप्यूटर पर कन्नड़ में लिखे आलेख का लिप्यन्तर करने की सुविधा होती तो मैं धडल्ले से कन्नड़ साहित्य के सैकड़ों पन्ने पढ़ना पसंद करती। इसी प्रकार कोई कन्नड़ व्यक्ति भी देवनागरी में लिखे तुलसी-रामायण को कन्नड़ लिपि में पाकर उसका आनंद ले पाता। लेकिन क्या हम कभी रुककर दूसरे भाषाइयों के आनंद की बात सोचेंगे? क्या हम माँग करेंगे कि मोटी तनखा लेने वाले और कुशाग्र वैज्ञानिक बुद्धि रखने वाले हमारे देश के कंप्यूटर-विशेषज्ञ हमें यह सुविधा मुहैया करवायें। सरकार को भी चाहिये कि जितनी हद तक यह सुविधा किसी-किसी ने विकसित की है उसकी जानकारी लोगों तक पहुँचाये।
लेकिन सरकार तो यह भी नहीं जानती कि उसके कौन-कौन अधिकारी हिन्दी व अन्य राजभाषाओं के प्रति समर्पण भाव से काम करने का माद्दा और तकनीकी क्षमता रखते हैं। सरकार समझती है कि एक कुआँ खोद दिया है जिसका नाम है राजभाषा विभाग। वहाँ के अधिकारी उसी कुएँ में उछल-कूदकर जो भी राजभाषा(ओं) का काम करना चाहे कर लें (हमारी बला से) ।
सरकार के कितने विभाग अपने अधिकारियों के हिन्दी-समर्पण का लेखा-जोखा रखते हैं और उनकी क्षमता से लाभ उठाने की सोच रख पाते हैं? हाल में जनसूचना अधिकार के अंतर्गत गृह-विभाग से यह सवाल पूछा गया कि आपके विभाग के निदेशक स्तर से उँचे अधिकारियों में से कितनों को मौके-बेमौके की जरूरत भर हिन्दी टाइपिंग आती है। उत्तर मिला कि ऐसी कोई जानकारी हम संकलित नहीं करते। तो जो सरकार अपने अधिकारियों की क्षमता की सूची भी नहीं बना सकती वह उसका लाभ लोगों तक कैसे पहुँचा सकती है?
मेरे विचार से हिन्दी के सम्मुख आये मुख्य सवालों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है :
वर्ग-1 : आधुनिक उपकरणों में हिन्दी
1. हिन्दी लिपि को सर्वाधिक खतरा और अगले 10 वर्षों में मृतप्राय होने का डर, क्योंकि आज हमें ट्रान्सलिटरेशन की सुविधा का लालच देकर सिखाया जाता है कि राम शब्द लिखने के लिये हमारे विचारों में भारतीय वर्णमाला का "र" फिर "आ" फिर "म" नहीं लाना है, बल्कि हमारे विचारों में रोमन वर्णमाला का "आर" आना चाहिये, फिर "ए" आये, फिर "एम" आये। तो दिमागी सोच से तो हमारी वर्णमाला निकल ही जायेगी। (राम को ङठ्ठथ्र् लिखते रहेंगे तो एक दिन ऐसे ही पढ़ना पड़ेगा।) आज जब मैं अपनी अल्पशिक्षित सहायक से मोबाइल नंबर पूछती हूँ तो वह नौ, सात, दो, चार इस प्रकार हिन्दी अंक ना तो बता पाती है औऱ न समझती है, वह नाइन, सेवन, टू... इस प्रकार कह सकती है।
2. प्रकाशन के लिये हमें ऐसी वर्णाकृतियाँ (फॉण्टसेट्स) आवश्यक हैं, जो दिखने में सुंदर हों, एक-दूसरे से अलग-थलग हों और साथ ही इंटरनेट कम्पॅटिबल हों। सी-डॅक सहित ऐसी कोई भी व्यापारी संस्था जो 1991 में भारतीय मानक-संस्था द्वारा और 1996 में यूनिकोड द्वारा मान्य कोडिंग स्टैण्डर्ड को नहीं अपनाती हो, उसे प्रतिबंधित करना होगा। विदित हो कि यह मानक स्वयं भारत सरकार की चलाई संस्था सी-डॅक ने तैयार कर भारतीय मानक-संस्था से मनवाया था, पर स्वयं ही उसे छोड़कर कमर्शियल होने के चक्कर में नया अप्रमाणित कोडिंग लगाकर वर्णाकृतियाँ बनाती है जिस कारण दूसरी संस्थाएँ भी शह पाती हैं और प्रकाशन-संस्थाओं का काम वह गति नहीं ले पाता जो आज के तेज युग में भारतीय भाषाओं को चाहिये।
3. विकिपीडिया जो धीरे-धीरे विश्व ज्ञानकोष का रूप ले रहा है, उस पर कहाँ है हिन्दी? कहाँ है संस्कृत और कहाँ हैं अन्य भारतीय भाषाएँ?
वर्ग-2 : जनमानस में हिन्दी -
4. कैसे बने राष्ट्रभाषा, लोकभाषाएँ सहेलियाँ बनें या दुर्बल करें यह गंभीरता से सोचना होगा।
5. अंग्रेजी की तुलना में तेजी से घटता लोक विश्वास और लुप्त होते शब्द-भण्डार।
6. एक समीकरण बन गया है कि अंग्रेजी है संपत्ति, वैभव, ग्लैमर, करियर, विकास और अभिमान, जबकि हिन्दी या मातृभाषा है गरीबी, वंचित रहना, बेरोजगारी, अभाव और पिछड़ापन। इसे कैसे गलत सिद्ध करेंगे?
वर्ग-3 : सरकार में हिन्दी -
7. हिन्दी के प्रति सरकारी विजन (दृष्टिकोण) क्या है? क्या किसी भी सरकार ने इस मुद्दे पर विजन-डॉक्यूमेंट बनाया है?
8. सरकार में कौन-कौन विभाग हैं जिम्मेदार, उनमें क्या है समन्वय, वे कैसे तय करते हैं उद्देश्य और कैसे नापते हैं सफलता को? उनमें से कितने विभाग अपने अधिकारियों के हिन्दी-समर्पण का लेखा-जोखा रखते हैं और उनकी क्षमता से लाभ उठाने की सोच रख पाते हैं?
9. विभिन्न सरकारी समितियों की सिफारिशों का आगे क्या होता है, उनका अनुपालन कौन और कैसे करवाता है?
वर्ग-4 : साहित्य जगत में हिन्दी -
10. ललित साहित्य के अलावा बाकी कहाँ है हिन्दी साहित्य- विज्ञान, भूगोल, वाणिज्य, कानून/विधि, बैंक और व्यापार का व्यवहार, डॉक्टर और इंजीनियरों की पढ़ाई का स्कोप क्या है?
11. ललित साहित्य में भी वह सर्वस्पर्शी लेखन कहाँ है जो एक्सोडस जैसे नॉवेल या रिचर्ड बाख के लेखन में है।
12. भाषा बचाने से ही संस्कृति बचती है, क्या हमें अपनी संस्कृति चाहिये? हमारी संस्कृति अभ्युदय को तो मानती है पर रॅट-रेस और भोग-विलास को नहीं। आर्थिक विषमता और पर्यावरण के ह्रास से बढ़ने वाले जीडीपी को हमारी संस्कृति विकास नहीं मानती, तो हमें विकास को फिर से परिभाषित करना होगा या फिर विकास एवं संस्कृति में से एक को चुनना होगा ।
13. दूसरी ओर क्या हमारी आज की भाषा हमारी संस्कृति को व्यक्त कर रही है?
14. अनुवाद, पढ़ाकू-संस्कृति, सभाएँ को प्रोत्साहन देने की योजना हो।
15. हमारे बाल-साहित्य, किशोर-साहित्य और दृश्य-श्रव्य माध्यमों में, टीवी एवं रेडियो चॅनेलों पर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को कैसे आगे लाया जाय?
16. युवा पीढ़ी क्या कहती है भाषा के मुद्दे पर, कौन सुन रहा है युवा पीढ़ी को? कौन कर रहा है उनकी भाषा समृद्धि का प्रयास?
इन मुद्दों पर जब तक हम में से हर व्यक्ति ठोस कदम नहीं बढ़ाएगा, तब तक हिन्दी दिवस-पखवाड़े-माह केवल बेमन से पार लगाये जाने वाले उत्सव ही बने रहेंगे।
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वर्णमाला, भाषा, राष्ट्र और संगणक
Oct 2017
भारतीय भाषा, भारतीय लिपियाँ, जैसे शब्दप्रयोग हम कई बार सुनते हैं, सामान्य व्यवहार में भी इनका प्रयोग करते हैं। फिर भी भारतीय वर्णमाला की संकल्पना से हम प्रायः अपरिचित ही होते हैं। पाठशाला की पहली कक्षा में अक्षर परिचय के लिये जो तख्ती टाँगी होती है, उस पर वर्णमाला शब्द लिखा होता है। पहली की पाठ्यपुस्तक में भी यह शब्द होता है। लेकिन जैसे ही पहली कक्षा से हमारा संबंध छूट जाता है, तो उसके बाद यह शब्द भी विस्मृत हो जाता है। फिर हमारी वर्णमाला की संकल्पना पर चिन्तन तो बहुत दूर की बात है।
इसीलिये सर्वप्रथम वर्णमाला शब्द की संकल्पना की चर्चा आवश्यक है। भारतीय वर्णमाला सुदूर दक्षिण की सिंहली भाषा से लेकर सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ तिब्बती, नेपाली, ब्रह्मदेशी, थाय भाषा, इंडोनेशिया, मलेशिया तक सभी भाषाओं की वर्णमाला है। यद्यपि उनकी लिपियाँ भिन्न दिखती हैं, लेकिन सभी के लिये एक वर्णन देवनागरी लागू है। बस, हर लिपी में आकृतियाँ अलग हैं। अतिपूर्व देश चीन, जापान व कोरिया तीनों में चीनी वर्णमाला प्रयुक्त है। तमाम मुस्लिम देशों मे फारसी-अरेबिक वर्णमाला है जबकि युरोप व अमेरीकन भाषाएँ ग्रीको-रोमन-लॅटीन वर्णमाला का उपयोग करती हैं जिसमें उस भाषानुरूप वर्णाक्षरों की संख्या कहीं 26 (अंग्रेजी भाषा में), तो कहीं 29 (ग्रीक के लिये) इस प्रकार कम-बेसी है।
मानव की उत्क्रांती के महत्वपूर्ण पडावों में एक वह है जब उसने बोलना सीखा और शब्द की उत्पत्ति हुई। वैसे देखा जाय तो चिरैया, कौए, गाय, बकरी, भ्रमर, मख्खी आदि प्राणी भी ध्वनि का उच्चारण करते ही हैं, लेकिन मानव के मन में शब्द की परिकल्पना उपजी तो उससे नादब्रह्म अर्थात् ॐकार और फिर शब्दब्रह्म का प्रकटन हुआ। आगे मनुष्य ने चित्रलिपी सीखी व गुहाओं में चित्र उकेर कर उनकी मार्फत संवाद व ज्ञान को स्थायी स्वरूप देने लगा। वहाँ से अक्षरों की परिकल्पना का उदय हुआ। अक्षर चिह्नों का निर्माण हुआ और वर्णक्रम या वर्णमाला अवतरित हुई।
भारतीय मनीषियों ने पहचाना की वर्णमाला में विज्ञान है। ध्वनि के उच्चारण में शरीर के विभिन्न अवयवों का व्यवहार होता है। इस बात को पहचानकर शरीर-विज्ञान के अनुरूप भारतीय वर्णमाला बनी और उसकी वर्गवारी भी तय हुई। सर्वप्रथम स्वर और व्यंजन इस प्रकार दो वर्ग बने। फिर दीर्घ परीक्षण और प्रयोगों के बाद व्यंजनों में कंठ वर्ग के पाँच व्यंजन, फिर तालव्य वर्ग के व्यंजन, फिर मूर्धन्य व्यंजन, फिर दंत और फिर ओष्ठ इस प्रकार वर्णमाला का एक क्रम सिद्ध हुआ। क ख ग घ ङ, इन अक्षरों को एक क्रम से उच्चारण करते हुए शरीर की ऊर्जा कम खर्च होती है, इस बात को हमारे मनीषियों ने समझा। विश्व की अन्य तीनों वर्णमालाओं का शरीर शास्त्र अथवा उच्चारण शास्त्र से कोई भी संबंध नहीं है। परंतु भारत में यह प्रयोग होते गए। व्यंजनों में महाप्राण तथा अल्पप्राण इस प्रकार और भी दो भेद हुए। इससे भी आगे चलकर यह खोज हुई कि ध्वनि के उच्चारण में मंत्र शक्ति है। तो इस मंत्र शक्ति को साधने के लिये अलग प्रकार का शोध व अध्ययन आरंभ हुआ। उच्चारण में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित जैसी व्याख्या हुई। शरीर शास्त्र की पढ़ाई और चिंतन से कुंडलिनी, षट्चक्र, ब्रह्मरंध्र, समाधि में विश्व से एकात्मता, सर्वज्ञता इत्यादि संकल्पनाएँ बनीं। आणिमा, गरिमा, लघिमा, इत्यादी सिद्धियों की प्राप्ति हो सकती है, इस अनुभव व ज्ञान तक भारतीय मनीषी पहुँचे। भारतीय कुंडलिनी विज्ञान के अनुसार षट्चक्रों में पँखुडियाँ हैं और प्रत्येक पँखुडी पर एकेक अक्षर (स्वर अथवा व्यंजन) विराजमान हैं। उस उस अक्षर पर ध्यान केंद्रित करने से एकेक पँखुडी व एकेक चक्र सिद्ध किया जा सकता है। इसी कारण हमें सिखाया जाता है -- अमंत्रं अक्षरम् नास्ति- जिसमें मंत्रशक्ति न हो, ऐसा कोई भी अक्षर नहीं।
इस प्रकार हमारी वर्णमाला में वैज्ञानिकता समाई हुई है, विज्ञान का विचार यहां हुआ है और यह विरासत हमारे लिए निश्चित ही अभिमान की बात है। 
मुख्य मुद्दा है वर्णमाला और उससे परिभाषित राष्ट्र, जो कि श्रीलंका से कोरिया की सीमा तक पसरा हुआ है। भारत देश में हजारो वर्षों की परिपाटी के कारण वर्णमाला के विभिन्न आयाम प्रकट हुए। वह लोककलाओं का भी एक विषय बनी। वर्ण शब्द का दूसरा अर्थ है - रंगछटा। तो शरीर के अंदर षट्चक्रों में जो-जो वर्णाक्षर का स्थान है वहाँ-वहाँ उस चक्र का रंग भी वर्णित है। सारांश में हमारी वर्णमाला की उपयोगिता केवल लेखन तक मर्यादित नही अपितु जीवन के कई अन्य अंगों में इस ज्ञान के अगले आयाम प्रकट हुए हैं।
वर्णमाला के विषय में इतना प्रदीर्घ विवेचन इसलिये आवश्यक है कि नये युग में अवतरित संगणक (कम्प्यूटर) शीर्षक तंत्र ज्ञान और वर्णमाला का अन्योन्य संबंध है। यह नया तंत्र ज्ञान सर्वदूर व्यवहार में होने के कारण उसका अतिप्रभावी संख्या बल है जिसकी भेदक शक्ति भी प्रचंड है। जीवन की प्रत्येक सुविधाएँ व ज्ञान प्रसार दोनों के बाबत इस तंत्रज्ञान से कई मूलगामी परिवर्तन हुए हैं।
एक तरफ हमारी हजारों वर्षों की परंपरा का अभिमान रखने वाली और उसे विविध आयामों में प्रकट करने वाली हमारी वर्णमाला है और दूसरी ओर अगली कई सदियों पर राज करने वाला एक सशक्त तंत्र ज्ञान। अब यह भारतीयों को तय करना है कि इस नये तंत्र और पुरातन वर्णमाला का संयोग किस प्रकार हो। यदि वह सकारात्मक हुआ तो हमारी वर्णमाला अक्षुण्ण टिकी रहेगी। इतना ही नहीं वरन् इस नये तंत्र को समृद्ध भी करेगी। यदि दोनों का मेल नहीं हुआ तो इस संगणक तंत्र में वह सामथ्र्य है कि वह हमारी वर्णमाला, हमारी लिपियाँ, हमारी बोलियाँ, भाषाएँ और हमारी संस्कृति को विनष्ट कर दे। संगणक तंत्र की इस शक्ति को हमें समझना होगा, स्वीकारना भी होगा कि यह तंत्र हमारा विनाशक भी बन सकता है और सकारात्मक ढंग से व्यवहार में लाया गया तो हमारी वर्णमाला, भाषा व संस्कृति को समृद्धि के शिखर पर भी बैठा सकता है।
इस सकारात्मक संयोग की संभावना कैसे बनती है इसे जानने के लिये थोड़ा-सा संगणक के इतिहास को समझना होगा।
बीसवीं सदी की विज्ञान प्रगति में क्ष-किरण मेडिकल शास्त्र की छलांग, अणु विच्छेदन व उससे अणु-ऊर्जा-निर्माण, खगोलीय दूरबीनें, अॅटम बम आदि कई घटनाएँ गिनाई जा सकती हैं। उनसे पहले एक मस्तिष्क युक्त यंत्र की परिकल्पना की गई। इसकी पहल थी वे सरल से गुणा-भाग करने वाला कॅलक्युलेटर्स! मुझे याद आता है कि 1967-68 में प्रयोगशालाओं में ये कॅलक्युलेटर्स रखे होते थे। हम विद्यार्थी मजाक करते थे कि इससे अधिक वेग तो हमारा गुणा-भाग हो जाता है। लेकिन हाँ तब संख्याएँ बड़ी-बड़ी होती थीं तो इनका वेग और अचूक गणित हमारे वश की बात नहीं थी। परन्तु उन्हीं दिनों यूरोप में यह संकल्पना काफी आगे निकल चुकी थी कि गणित के जोड़, घटाव, गुणा, भाग चिह्नों से परे पहुँचकर मानवी भाषा को सीख ले ऐसे यंत्र चाहिये। इसके लिये अंग्रेजी भाषा चुनी गई। संगणक तंत्र की पूरी इमारत अंग्रेजी की नींव पर रखी जाने लगी और सभी पंडितों ने पहचाना की उनकी भाषा को नामशेष करने का सामथ्र्य इस तंत्र में है। इसे पहचान कर सबसे पहले जापान ने और फिर कई यूरोपीय देशों ने तय किया कि उनका संगणक उनकी भाषा की नींव पर बनेगा। 
संगणकीय व्यवहार दो प्रकार के होते हैं- परदे पर दृश्य व्यवहार जिनकी सहायता से मनुष्य उनसे संवाद कर सके और परदे के पीछे (अर्थात् प्रोसेसर के अंदर) चलने वाले व्यवहार। तो सभी प्रगत राष्ट्रों ने आग्रहपूर्वक अपनी-अपनी भाषा को ही परदे पर रखा। यूरोपीय देशों को यह सुविधा थी कि उनकी वर्णमाला के वर्णाक्षर और अंग्रेजी के अक्षरों में काफी समानता थी। इसके विपरीत जापानी भाषा नितान्त भिन्न थी। फिर भी जापानियों ने अपनी जिद निभाई। पीछे-पीछे चीन और अरेबिक-फारसी लिखने वाले देशों ने भी यही किया। पिछड़ा रहा केवल भारत व भारतीय भाषाएँ क्योंकि हमारे लिये अंग्रेजी ही महानता थी, स्वर्ग थी और हमें गर्व था कि चूँकि हमारी 20 प्रतिशत जनता अंग्रेजी जानती है (इसकी तुलना में 1990 में केवल 3 प्रतिशत चीनी जनता अंग्रेजी जानती थी) तो इसी आधार पर हम पूरी दुनिया का संगणक-बिजनेस अपनी मुट्ठी में कर लेंगे। इस सोच के कारण आज हम किस प्रकार चीन से पिछड़ रहे हैं, इसकी चर्चा थोड़ा रुककर करते हैं।
गलत सोच का एक घाटा परदे के पीछे के व्यवहारों में भी हुआ। इसे समझते हैं। संगणक के मूलगामी व्यवहार के लिये उसे केवल दो बातें समझ में आती हैं- हाँ और ना। अर्थात् उसके विशिष्ट सर्किट में बिजली प्रवाह है या नहीं है। लेकिन कई दशकों पहले मोर्स ने जब मोर्स कोड बनाया था तो उसके पास भी दो ही मूल नाद थे- लम्बी ध्वनि डा और छोटी ध्वनि डिड्। ऐसे दो, चार, पाँच या छह नादों को अलग क्रम से एकत्रित करने से अंग्रेजी के एक-एक वर्णाक्षर को सूचित किया जा सकता था। मसलन च् के लिये डिड्-डिड्-डिड् या ॠ के लिये डिड्-डा। इसी तरह हाँ-ना के आठ संकेतों से अलग-अलग संकेत श्रृंखलाएँ बनाकर उनसे अंग्रेजी अक्षर सूचित हों इस प्रकार से एक सारणी बनाई गई। तो की-बोर्ड पर ॠ की कुंजी दबाने से ॠ की संकेत-श्रृंखला के अनुरूप संगणकीय प्रोसेसर के आठ सर्किटों में विद्युत-धारा या तो बहेगी या नहीं बहेगी। उसे देखकर प्रोसेसर उसे पढ़ेगा कि यह श्रंृंखला मुझे ॠ कह रही है। फिर प्रोसेसर के द्वारा पिं्रटर को आदेश दिया जायेगा कि ॠ पिं्रट करना है।
इस प्रकार की-बोर्ड पर प्रत्येक अक्षर की कुंजी का स्थान, उससे उत्पन्न होने वाली संकेत-श्रृंखला और उसे पिं्रट करने पर दिखने वाला वही अक्षर ये बातें तो आरंभिक काल में ही तय हो गई थीं। गड़बड़ ये रही कि यदि संगणक को यह मानवी संदेश अपनी हार्ड-डिस्क में स्टोअर कर रखना हो तो क्या होगा?
तब आवश्यकता हुई प्रोग्रामर की। उसे एक अलग मॅपिंग-चार्ट बनाना था कि हार्ड-डिस्क में इन अक्षरों को कहाँ रखा जायेगा। आरंभिक काल में हर संस्था का प्रोग्रामर अपना-अपना चार्ट बनाता था। तो एक संगणक पर स्टोअर किया गया संदेश दूसरे संगणक पर नहीं पढ़ा जा सकता था। फिर सबने इकट्ठे बैठकर तय किया कि इसे भी स्टॅण्डर्डाइज किया जायेगा ताकि दुनिया के किसी भी संगणक पर स्टोअर किया गया संदेश दूसरे किसी भी संगणक पर पढ़ा जा सके।
1990 तक ऐसा स्टॅण्डर्डडायजेशन दुनिया की हर भाषा के वर्णाक्षरों के लिये सर्वमान्य हो गया - सिवाय भारतीय भाषाओं के। क्योंकि हमारे सॉफ्टवेयर बनाने वाले प्रोग्रामर अपना कोडिंग गुप्त रखकर पैसा बटोरना चाहते हैं और इनकी जमात में सबसे आगे हैं सरकारी सॉफ्टवेयर कंपनी सी-डॅक के कर्ता-धर्ता। यह परिस्थिति आज भी बरकरार है और शायद आगे कई वर्षों तक चले।
लेकिन इस कथाक्रम में एक टिविस्ट आया 1988-1991 के काल में। उसी सरकारी सी-डॅक के एक वैज्ञानिक गुट ने भारतीय वर्णमाला के अनुक्रम का अनुसरण करने वाला की-बोर्ड बनाया। उससे लिखे जाने वाले अक्षर हार्ड-डिस्क में स्टोअर करने के लिये एक बेहद सरल तरीके वाला कोड तैयार किया और 1991 में इसे ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टॅण्डर्ड्स के ऑफिस में इनस्क्रिप्ट नाम से रजिस्टर करवा लिया। इसका अर्थ हुआ कि इस की-बोर्ड और इस कोड का कोई कॉपीराइट नहीं रहेगा। इसका उपयोग कोई भी कर सकता है और अगले बड़े-बड़े सॉफ्टवेयर भी लिखे जा सकते हैं।
लेकिन सी-डॅक के बाकी लोगों को यह बात रास नहीं आई। की-बोर्ड का डिजाइन तो गुप्त नहीं रखा जा सकता। लेकिन स्टोरेज कोड को बदला जा सकता है सो बदला गया और उसे मार्केट में भारी दाम पर बेचने के लिये उतारा गया। नतीजा यह रहा कि जो भारतीय भाषाई सॉफ्टवेयर 1991 में करीब 2 हजार रुपयों में बेचा जा सकता था उसे कोल्ड स्टोरेज में रखकर नये स्टोरेज कोड के साथ बाजार में उतारा गया जिसकी कीमत 14 हजार थी। बाकी कंपनियों के भी सीक्रेट कोड थे और उनके भाषाई सॉफ्टवेयर भी इसी दाम पर थे। जैसे "श्री" या "कृतिदेव"। उनकी मार्केटिंग और ऑफ्टर सेल सर्विस भी अच्छे थे सो सी-डॅक को टिकना भारी पड़ने लगा। फिर सरकार ने आदेश निकालकर सभी सरकारी कार्यालयों में केवल सी-डॅक का सॉफ्टवेयर "इजम" ही खरीदा जाने की व्यवस्था की। साथ ही सी-डॅक ने उस गुट के वैज्ञानिकों को बाहर कर दिया जो मेरी समझ से कम से कम पद्मश्री के हकदार थे। खैर!
सभी भारतीय भाषाई सॉफ्टवेयरों के की-बोर्ड का डिजाइन वही था जो रेमिंग्टन टाइप राइटरों का था। तर्क यह था कि जो हजारों टाइपिस्ट काम कर रहे हैं उनकी सुविधा हो। कुछ कंपनियों ने भारतीय वर्णमाला को ही धता बताते हुये अंग्रेजी स्पेलिंग से लिखने वाले सॉफ्टवेयर बनाये जैसे- बरहा। सी-डॅक का सॉफ्टवेयर ये दोनों सुविधाएँ दे रहा था- पर एक तीसरा ऑप्शन भी दे रहा था वर्णमाला अनुसारी की-बोर्ड का जिसमें अआईईउऊ एऐओऔ एक क्रम से थे। इसी प्रकार कखगघङ पास-पास। चछजझञ पास-पास। टठडढण, तथदधन, पफबभम भी पास-पास। इसलिये नये सीखने वालों के लिये यह निहायत आसान था। इसके अक्षर-क्रम को समझने के लिये दस मिनट पर्याप्त हैं और स्पीड के लिये पंद्रह से बीस दिन। फिर भी यह की-बोर्ड लोगों तक नहीं पहुँच पाया। क्योंकि सामान्य ग्राहक के लिये पूरे सॉफ्टवेयर की कीमत बहुत अधिक थी। सरकारी कार्यालयों के पुराने टाइपिस्टों के लिये टाइपराइटर वाला ऑफ्शन था और वरिष्ठ अधिकारियों के लिये अंग्रेजी स्पेलिंग से हिन्दी लिखने का। फिर भी जिन अत्यल्प प्रतिशत लोगों ने यह वर्णमाला-अनुसारी इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड सीखा उन्हें इससे प्रेम हो गया। इसमें एक खूबी और थी। हिन्दी में एक परिच्छेद लिखकर केवल सिलेक्ट ऑल और चैज टू मलयाली कह देने से सारी लिखावट मलयाली या किसी भी अन्य भारतीय लिपि में बदल सकती थी।
1991 से 1998 तक भारतीय भाषाओं के अलग-अलग कंपनियों के अन-स्टण्डर्डाइज्ड सॉफ्टवेयरों के चलते भारतीय भाषाओं का संगणक लेखन बिखरा रहा, जहाँ एक सॉफ्टवेयर से लिखा लेखन दूसरे के द्वारा नहीं पढ़ा जा सकता था। इस बीच 1995 में इंटरनेट का प्रवेश हुआ और दुनिया में संगणक के जरिये संदेश-आवागमन आरंभ हुआ। लेकिन नॉन स्टॅण्डर्डाइजेशन के कारण इस इंटरनेट रिवोल्यूशन पर सारा भारतीय लेखन फेल रहा।
एक रिवोल्यूशन और आया जिसका नाम था युनीकोड। संगणकों के चिप्स में हर वर्ष सुधार होते गये जिससे उनकी स्पीड बढ़ी, क्षमता बढ़ी और वे कॉम्प्लेक्स वर्णमाला के लायक बनते गये। संसार की चार वर्णमालाओं में तीन कॉम्प्लेक्स हैं- भारतीय, चीनी और अरेबिक। फिर भी भारतीय वैज्ञानिकों ने कम क्षमता वाले पुराने संगणकों पर भी अपनी वर्णमाला को अॅडजस्ट कर लिया था। इसलिये रोमन वर्णमाला की भाषाओं की तुलना में कम ही सही पर कंप्यूटर पर भारतीय भाषाओं का चलन बढ़ रहा था। लेकिन सॉफ्टवेयरों की आपसी नॉन-कम्पटेबिलिटी उनकी प्रगति को पीछे खींच रही थी। अरेबिक या चीनी वर्णमालाएँ कम स्टोरेज वाले संगणकों पर नहीं आ सकती थीं। जैसे ही स्टोअरेज क्षमता बढ़ी, जैसे ही मेगा-बाइट वाले हार्ड डिस्क की जगह गेगा बाइट और टेरा बाइट वाले हार्ड डिस्क आये तो अरेबिक और चीनी भाषाई सॉफ्टवेयर भी उन पर समाने लगे। इस पूरे बढ़े हुये व्यवहार के लिये पुराने स्टोरेज-स्टॅण्डर्ड को बदलकर यूनीकोड नामक नया स्टॅण्डर्ड दुनिया ने अपनाया जो इंटरनेट व्यवहारों को भी समाहित कर सके। इस स्टॅण्डर्ड को तय करने वाली जो विश्वभर के संगणक-तंत्रज्ञों की कमेटी बनी वे किसी नॉन-स्टॅण्डर्ड सॉफ्टवेयर को नहीं अपना सकते थे। चीनी और अरेबिक सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर्स तो अपनी-अपनी वर्णमाला के लिये एक स्टॅण्डर्ड लागू करने के लिये तैयार हुये। उन्होंने अपने-अपने देश में उस तरह का कानून लाकर उन-उन भाषाओं के संगणकीकरण की पद्धति को स्टॅण्डर्ड कर दिया। लेकिन भारतीय भाषाओं के सॉफ्टवेयर डेवलपर्स अब भी एकवाक्यता के लिये तैयार नहीं थे। सी-डॅक भी नहीं।
ऐसे में भारत देश में सौभाग्य से यूनीकोड कमेटी को एक उपाय मिल गया। वर्षों पुराना ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टॅण्डर्ड्स (एक्ष्च्) द्वारा मान्य किया जा चुका इनस्क्रिप्ट का स्टॅण्डर्ड यूनीकोड ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार एक प्रश्न हल हुआ। लेकिन मायक्रोसॉफ्ट कंपनी ने इस स्टॅण्डर्ड के सॉफ्टवेयर को अपनी सिस्टम में लेने से इंकार कर दिया।
ज्ञातव्य है कि यह इंकार की भाषा वे ना तो किसी चीनी वर्णमाला की भाषाओं के लिये कर सके (अर्थात् चीनी, जापानी व कोरियाई) और न अरेबिक वर्णमाला की भाषाओं के लिये। लेकिन भारतीयों की आपसी फूट और लालच के कारण वे भारत में यह सीनाजोरी करने लग गये थे।
लेकिन इस देश का एक आंशिक सौभाग्य और रहा। मायक्रोसॉफ्ट को टक्कर देने के लिये बनी एक नई ऑपरेटिंग सिस्टम लीनक्स के कर्ताधर्ताओं ने घोषणा कर दी कि वे भारतीय भाषाओं के लिये एक्ष्च् तथा यूनीकोड द्वारा स्वीकृत स्टॅण्डर्ड को अपनायेंगे। ज्ञातव्य है कि लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम फ्री डाउनलोड वाली सिस्टम है। इस कारण 1998 से 2002 तक यह नजारा रहा कि जिसने लीनक्स को अपनाया उसके भाषाई लेखन इंटरनेट पर टिकने लगे। अत: सर्च इंजिनों में खोजने लायक हुये। जिसने इसे नहीं अपनाया उन्हें अपना भाषाई लेखन इंटरनेट पर डालने के लिये पीडीएफ या जीपेग अर्थात् चित्र बनाकर ही डालना पड़ता था। वह लेखन गूगल सर्च में पकड़ में नहीं आता है।
हालांकि लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम अधिक प्रगत होने के कारण सामान्य उपयोगकर्ता के लिये काफी भारी पड़ती थी, फिर भी भाषाई लेखन को इंटरनेट पर रखने के लिये लोग उसे अपनाने लगे। अब मायक्रोसॉफ्ट को लगा कि उनका इंडियन मार्केट हाथ से जा सकता है। तब उस कम्पनी ने भी उन्हीं भारतीय भाषा तंत्रज्ञों की सहायता से अपना एक प्रोपायटरी सॉफ्टवेयर बनाया क्ष्-386 जो हर भारतीय भाषा के लिये एक-एक फॉण्ट के साथ इंटरनेट व यूनीकोड कॅम्पटिबल भाषा-लेखन की सुविधा देता है। इसके लिये वर्णमाला अनुसारी अर्थात् सी-डॅक के उन वैज्ञानिकों का बनाया इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड सीखना पड़ता है जो कि बहुत सरल है। इस प्रगति को मैंने आंशिक सौभाग्य कहा है। क्योंकि यूनीकोड ने एक दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया। हर भारतीय भाषा को अलग कम्पार्टमेंट में रखा। अर्थात् इनस्क्रिप्ट विधि से लेखन करने पर भी पहले की तरह हिन्दी लेखन को केवल च्ड्ढथ्ड्ढड़द्य ठ्ठथ्थ् ः क्दृदध्ड्ढद्धद्य बंगाली कहने से यह बंगला लिपि में नहीं लिखा जायेगा। उसे फिर से बंगला में लिखना पड़ेगा। इस प्रकार भाषाई एकात्मता की धज्जियाँ उड़ गईं।
यहाँ भी ज्ञातव्य है कि हालांकि चीनी वर्णमाला आधारित जापानी, चीनी और कोरियाई लिपियाँ अलग हैं लेकिन उन्होंने एकजुट होकर यूनीकोड पर दबाव बनाया कि उन्हें एक कम्पार्टमेंट में रखा जाये ताकि लिप्यंतरण संभव हो। लेकिन यह सुविधा भारतीय भाषाओं को उपलब्ध नहीं है। यूनीकोड कन्सोर्शियम का कहना है कि यह अलगाव उन्होंने सी-डॅक के कहने पर तथा भारत सरकार की मान्यता से किया है।
इस पूरे घटनाक्रम फलस्वरूप आज भी पूरे देश में इनस्क्रिप्ट का उपयोग करने वालों का प्रतिशत 10-15 से अधिक नहीं है। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम उन्हें भुगतना पड़ रहा है जिन्हें 10वीं कक्षा से पहले स्कूल छोड़ना पड़ा और ऐसे बच्चे 70 प्रतिशत के लगभग हैं। उन्हें यदि इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड की सहायता से इंटरनेट टिकाऊ लेखन कला सिखाई जाये तो यह उनके लिये रोजगार जुटाने का, साथ ही अपना ज्ञानवद्र्धन करने का साधन बन सकता है।
दुष्परिणाम भुगतने वाला दूसरा बड़ा वर्ग है प्रकाशन संस्थाओं का। उन्हें अलग-अलग फॉण्ट का उपयोग अनिवार्य है। सी-डॅक का इजम सॉफ्टवेयर या श्री या कृतिदेव। इन सभी कंपनियों के पास सुंदर-सुंदर और कई तरह के फॉण्ट सेट हैं। लेकिन वे इंटरनेट टिकाऊ नहीं हैं। उन्हें ना लें तो प्रकाशन का काम सुपाठ्य नहीं रहेगा। उन्हें लेकर काम करें तो इंटरनेट पर तत्काल भेज पाने की सुविधा से वंचित हो जाते हैं और स्पीड में मार खाते हैं। दुनिया के अन्य प्रकाशकों की तुलना में हमारे प्रकाशन में पाँच से सात गुना अधिक समय और श्रम खर्च होता है। क्योंकि हम एडिटेबल फाइलें नहीं भेज सकते हैं, लेकिन उन प्रोप्रयटेरी फॉण्ट्स को पब्लिक डोमेन में डाला जाय तो प्रकाशन की कठिनाइयाँ दूर हो जायेंगी।
मनुष्य के विकास में शब्दों को बोलना और भाषा को लिपिबद्ध करना ये दो महत्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं। दोनों में भारत ही अग्रसर था और इसी कारण सोने की चिड़िया बना और हजारों वर्ष विश्व-गुरु रहा। आज उतना ही प्रभावी संगणक तंत्र उदित हुआ है। क्या हम उसका उपयोग कर अपनी वर्णमाला, अपनी लिप्यंतरण की सुविधा, अपनी भाषाई व सांस्कृतिक विरासत इत्यादि बचा लेंगे या उसी के हाथों इन्हें नष्ट कर देंगे - यह फैसला हमें करना है। इसी कारण रोमन का आधार छोड़कर अपनी वर्णमाला के आधार से बनी इनस्क्रिप्ट पद्धति का उपयोग करने में ही हमारी भलाई है
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समृद्धि व संगणक का भाषाई समीकरण

Nov 2017

पिछले महीने मुझे आयआयटी पवई के एक विद्यार्थी समूह को संबोधित करना था। वे ग्रामीण इलाकों की समृद्धि के लिये कुछ करना चाहते हैं और हमारा विषय भी वही था - ग्रामीण प्रगति के रास्ते क्या-क्या हो सकते हैं। एक प्रश्न यह भी था कि वैश्विक बाजार में हम अपना स्थान कैसे बना सकते हैं? उसमें संगणक (कंप्यूटर) की भूमिका को हम किस प्रकार उपयोग में ला सकते हैं? 
वैश्विक बाजार - इस शब्द ने हमें पिछले कई दशकों से एक छलावे में डाल कर रखा है। क्या है यह बाजार? विश्व की सात अरब जनसंख्या में करीब डेढ़ अरब जनसंख्या अर्थात् पाँचवाँ हिस्सा तो भारत का ही है। इस बड़े भारी बाजार को विश्व की दूसरी कंपनियाँ तो पहचानती हैं पर हमारे अपने उत्पादक नहीं पहचानते। दूसरे देश की सरकारें तो समझती हैं पर अपने देश की सरकार नहीं समझती। इसी कारण हिंदी सहित देशी भाषाओं का महत्व समझे बिना सरकार हर काम में अंगरेजी को प्राथमिकता देती है, मानो अपने देश की जनता कुछ है ही नहीं।
उन विद्यार्थियों के सम्मुख भी मेरी चर्चा का विषय यही था - आज भी देश की साठ प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है और जो शहरों में रह रहे हैं उनमें से आधे भी गांव से उठकर वहां आये हैं अर्थात् जिन्हें हम फस्र्ट जेनरेशन कहते हैं। फिर उनकी भाषामें उनसे व्यवहार किये बगैर कैसे हम उनकी समृद्धि में सहायक हो सकते हैं? उनकी भाषामें उन्हें संगणकीय कौशल्य दिये बिना कैसे वे समृद्ध हो सकते हैं? 
आज एक समीकरण बन चुका है - संगणक और समृद्धि का। इसे समझते हुए डिजिटायजेशन का कार्यक्रम जोर-शोर से चल पड़ा है। लेकिन उसकी भाषा है अंगरेजी। सरकार चाहती है कि जनता अपना सारा काम ऑनलाइन करे। लेकिन सरकार भूल जाती है कि आज भी अस्सी प्रतिशत की भाषा स्वदेशी भाषा ही है -- अंगरेजी नहीं। इसीलिये बहुत ही बड़े तामझाम व संपत्ति-निवेश के साथ सरकार डिजिटायजेशन में तो लग पड़ी । लेकिन आज से तीन या पांच वर्षों में पता चलेगा कि इसका प्रभावी फल नहीं मिल रहा। इस गलत दिशा में जाते कार्यक्रम की दिशाको आज ही मोड़ना होगा। सच कहा जाय तो संगणक व्यवसायियों के पास यह एक बड़ा मौका है कि वे ऑनलाइन सेवाओं को भारतीय भाषाओं में लाने का व्यवसाय आरंभ करें। क्योंकि इसमें हजारों संभावनाएँ हैं। और बहुत बड़ा मार्केट भी।
हमारी विशाल जनसंख्या का बड़ा हिस्सा 10 से 30 वर्ष की आयु में है। इतने बड़े यंगिस्तान को देख हम फूले नहीं समाते। लेकिन इनमें से केवल पंद्रह से बीस प्रतिशत ही दसवीं कक्षा से आगे निकल पायेंगे। और अंगरेजी का हौव्वा तो उन पर भी है जो दसवीं से आगे निकल पायेंगे। यही वह यंगिस्तान है जो समृद्धि लाने में अघाडी पर रखा जायेगा। लेकिन हमारा सारा ध्यान लगा हुआ है कि ये लोग जल्दी से जल्दी अंगरेज हो जायें और अंगरेजी का ज्ञान लेकर संगणक-साक्षर बन जायें। इस नीतिकी भूलको समझना आवश्यक है। 
हमारे देश की साक्षरता 70 प्रतिशत, अंग्रेजी-साक्षरता 20-22 प्रतिशत और उस इंग्लिश-लिटरसी की अनुगामिनी होकर चलने वाली कंम्प्यूटर लिटरसी है 10-12 प्रतिशत। चीन की स्थिति क्या है? वर्ष 2001 में उनकी लिटरसी थी 85 प्रतिशत। इंग्लिश लिटरसी थी 3 प्रतिशत और कंप्यूटर लिटरसी जो अंगरेजी लिटरसी की नहीं, बल्कि चायनीज लिटरसी की अनुगामिनी थी - वह थी, आठ प्रतिशत और उसकी शुरूआत हुई 1997 के आसपास। आज या कल संगणक-लिटरसी में चीन हमसे आगे ही निकलने वाला है। मीलों आगे, क्योंकि उनकी संगणक-साक्षरता अंगरेजीकी मोहताज नही है।
हमारे देश में 1985-90 के आसपास संगणक के क्षेत्र में एक बड़ा मार्केट खुला कि पश्चिमी देशों से संगणक -- आधारित जॉब वर्क ले आओ और उसे पूरा कर पैसे कमाओ। 1985 से 2005 तक हमारा आईटी क्षेत्र फलता-फूलता रहा और उनकी कमाई पर सरकार ने कहा देखो यही है रास्ता। स्कूलों में संगणक-दान की होड सी लग गई। सरकारी फर्मान निकले कि सबको अंगरेजी पढ़ाओ, टाई-शाई पहनाओ और कम्प्यूटर का काम सिखाओ। इस नीति से विद्यार्थियों की और शिक्षकों की भी संगणकीय क्षमता उनकी स्वभाषा-क्षमता से नहीं, बल्कि अंगरेजी-क्षमता से सीमांकित हो गई। जब तक अंगरेजी ज्ञान नहीं बढ़ता, संगणक ज्ञान नहीं बढ़ सकता।
चीन में उलटी प्रक्रिया रही। संगणक क्षमता का आधार बनी स्वदेशी चीनी भाषा। तो संगणक क्षमता में तेजी से बढ़ोत्तरी होने लगी। पश्चिमी देशों के जॉब वर्क वहाँ भी आये। दस-पंद्रह चीनीभाषी संगणक-विदों के साथ एक-एक अंगरेजी भाषा का संगणक-विद, इस आधार पर जॉब वर्क लेना आरंभ किया और तरक्की करते रहे। वर्ष 2020 तक पश्चिमी देशों का पूरा जॉब-वर्क-मार्केट हथियाने का संकल्प है। 
सॉफ्टवेअर के साथ चीन ने हार्डवेयर और शोधकार्य पर भी ध्यान दिया है। हार्डवेयर मार्केट में तो यह हालत है कि मानो सिलिकन वैली उठकर शंघाई में आ गई हो। आईबीएम अब केवल चिप के रिसर्च ही कर लेता है, पर उनका प्रॉडक्शन पूरी तरह ताइवान-कोरिया-चीन में ही हो सकता है। कुछ ही वर्षों में रिसर्च में भी वे आगे निकलेंगे क्योंकि मातृभाषा आधारित शिक्षा के कारण सोच-विचार की क्षमता संकुचित होने की बजाय वृद्धिगत ही होती है। यही कारण है कि हमारी पेटीएम जैसी कंपनियों को बैक-एंड सपोर्ट के लिये चीन की अलादिन कंपनी पर निर्भर रहना पड़ता है जबकि अपनी संगणक-क्षमता का दम भरते हुए भी हमारे देश में इतने विशाल पैमाने पर कुछ भी नहीं हो पाया। हमारे सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उत्पादन भी चीन से आयातित सस्ते व टिकाऊ पीसीबी पर निर्भर है।
तो हार्डवेयर में आगे, रिसर्च में आगे और जिस संगणकीय कुली-गिरी पर हम इतराते थे, वहाँ भी चीनी भाषा की नींव पर खड़ी संगणक-क्षमता के आधार पर हमसे आगे निकलने का पूरा आयोजन। ऐसी है चीन की विश्व बाजार नियंत्रण की दूरदर्शिता और हम उससे भिड़ना चाहते हैं व रेस जीतना चाहते हैं एक ऐसी भाषा के आधार पर जिसमें हमारी 70 से 80 प्रतिशत जनता का कोई सहभाग ही नहीं होगा।
तो आइये देखते हैं कि इस परिदृश्य को बदलकर इसमें भाषाई रंग भरना किस प्रकार संभव है। सबसे पहले देखते हैं प्राथमिक व माध्यमिक पाठशालाओं को। यहाँ पहली कक्षा में सौ प्रतिशत प्रवेश, फिर पाँचवीं तक आधे बच्चों का टिके रहना और सबको सरकारी योजनाओं के अंतर्गत संगणक मिले हुए हैं, ये तीन अच्छी बातें हैं। इस दृश्य के कारण संभावना बनती है कि बच्चों को यथाशीघ्र संगणक पर इनस्क्रिप्ट विधि से भाषा लेखन सिखाया जाये। लेकिन यह संगणकीय प्रक्रिया अभी भी अधूरी है। क्योंकि सरकारी स्कूलों के मुख्याध्यापक संगणक के डिब्बों को खोलने से डरते हैं। यदि वह खराब हो गये तो उत्तरदायी कौन? कभी-कभी वे किसी अध्यापक को सौंप देते हैं कि आप इन मशीनों को कक्षा में ले जाकर पढ़ाओ। लेकिन वे अध्यापक भी डरते हैं कि यदि बच्चों ने हाथ लगाया और वे खराब हो गये तो आँच उन पर ही आयेगी। फिर सरकारी योजना में एक कमी और भी है। संगणक तो दे दिये, लेकिन शिक्षकों को इनस्क्रिप्ट प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं। ज्ञातव्य है कि इसके लिये केवल तीन दिन की ट्रेनिंग या एक दिन की जानकारी-क्लास भी समुचित है। लेकिन अब तक यह नहीं हो पाया है। कारण, वरिष्ठ अधिकारियों व लोक-सेवकों का इनस्क्रिप्ट के प्रति अज्ञान।
यदि एक समीकरण है कि डिजिटायजेशन से सुविधा होती है, समय बचता है और इस प्रकार वह समृद्धि का निमंत्रक है तो हमें इस दूसरे समीकरण को भी समझना होगा कि देश के अस्सी प्रतिशत युवा की भाषाई संगणक-क्षमता ही डिजिटायजेशन की आत्मा है। डिजिटायजेशन का सुपरिणाम यदि शीघ्रातिशीघ्र देखना हो तो पाठशालाओं में इनस्क्रिप्ट के माध्यम से शिक्षकों व बच्चों का संगणकीय व स्वदेशी भाषाई प्रशिक्षण और उसके साथ-साथ डिजिटाय-जेशन की सेवाओं के पोर्टल्स को देशी भाषाओं में बनाने का काम तत्काल आरंभ करना होगा।
इनस्क्रिप्ट पद्धति से देशी भाषाओं में संगणक शिक्षा देने से रोजगार की संभावना भी बढ़ती है। जिन्हें इस सरल विधि से देशी भाषा में संगणक पर काम करना आ गया उनके लिये कई आयाम खुल जाते हैं। यदि डिजिटायजेशन का काम स्वदेशी भाषाओं में होता है तो इन्हें वहां तत्काल काम मिल सकता है। और भी कई संभावनाएँ हैं। न्यायालयों का उदाहरण देखा जा सकता है। आज हर कोई न्यायालयीन देरी का रोना रोता है। इस देरी के कारणों में एक यह भी है कि न्यायालयों में शीघ्रता से भाषाई टंकण करने वालों की कमी है। पारंपारिक टाइपराइटर वाली पद्धति से टाइपिस्ट तैयार होने में भी आठ महीने तक का समय लग जाता है और वह लेखन इंटरनेट पर टिकाऊ भी नहीं होता है। अतः उसे अपलोड करते हुए पीडीएफ बनाने की आवश्यकता पड़ती है, अर्थात् काम में अनावश्यक वृद्धि। इनस्क्रिप्ट पद्धति से सीखकर आये लोग न्यायालय में वहीं के वहीं डिक्टेशन ले सकते हैं। आज भी यह होता है, लेकिन वे टाइपिस्ट टाइपराइटर पद्धति से सीखकर आये होते हैं अतएव उनकी उपलब्धता भी कम है और काम की गति भी। उसे अपलोड करने में भी खिचखिच है।
दूसरा एक बड़ा क्षेत्र है सभी सरकारी संकेत स्थलों का। यहाँ भी देखा जा सकता है कि सरकारी संकेत स्थल प्रथमतः अंगरेजी में ही बनाये जाते हैं। फिर कहीं-कहीं उन्हें हिंदी या प्रांतीय भाषा में भी बनाया जाता है। पर ये देशीभाषी संकेत-स्थल समय पर अपडेट नहीं होते। इसका भी वही यांत्रिक कारण है इनस्क्रिप्ट पद्धति वाला टायपिंग न होना। दस वर्ष पहले तक सरकारी कार्यालयों में प्रायः किसी को इनस्क्रिप्ट विधि नहीं आती थी। अतः किसी भी पन्ने को टंकित करने के बाद उसे पीडीएफ बनाना अनिवार्य हो जाता था। फिर उसे एनआईसी के सुपुर्द किया जाता कि आप इसे अपलोड करें। संकेत स्थल के रखरखाव व अपडेट का काम एनआईसी के अधिकार में रखा होता था क्योंकि पीडीएफ फाइल को अपलोड करना एक जटिल प्रक्रिया है। पीडीएफ फाइल अपलोड करने का सबसे बड़ा घाटा यह है कि उस पर लिखी सामग्री को सर्च इंजिन के द्वारा खोजा नहीं जा सकता। इस कारण से भी भाषाई संकेत स्थलों की उपयोगिता केवल दस प्रतिशत ही रह जाती है। इस बात को प्रायः कोई भी वरिष्ठ अधिकारी नहीं समझता है।
अब धीरे-धीरे सरकारी कार्यालयों में इनस्क्रिप्ट के जानकार टाइपिस्ट आ गये हैं। लेकिन उनके वरिष्ठ अधिकारी अब तक इस मुद्दे पर अज्ञानी ही हैं कि इनस्क्रिप्ट में किये गये टंकण के क्या फायदे हैं और क्या उपयोगिता है और इंटरनेट-टिकाऊ टंकण न होने के क्या नुकसान हैं। हाल में ही मेरे एक परिचित राजभाषा अॅडवाइजर ने मुझे पूछा कि अब उनके विभाग के सारे टाइपिस्ट इनस्क्रिप्ट टाइपिंग करते हैं तो अब उनका हिंदी संकेत-स्थल सुधारने के लिये आगे क्या-क्या करना आवश्यक है?
इसके उत्तर में मैं तीन कार्यकलापों को आवश्यक मानती हूँ। पहला तो यह कि सरकार के अण्डर सेक्रेटरी से लेकर ज्वाइंट सेक्रेटरी तक को यह प्रशिक्षण लेना चाहिये कि सर्च-इंजिन-समायोजित संकेत-स्थल न होने के क्या नुकसान हैं और होने के क्या फायदे। फिर ये कि सर्च-इंजिन-समायोजित फाइल बनाने में इनस्क्रिप्ट विधि का क्या महत्व व आवश्यकता है। फिर जब डॉक फाइल को ही अपलोड किया जायगा तो वह करना भी सरल है, उसमें यदाकदा सुधार व अपडेटिंग भी सरल है और इसी कारण उसे किसी एनआईसी अधिकारी के कार्यभार में न रखकर आपके विभाग के किसी नोडल अधिकारी पर भी सौंपा जा सकता है। ऐसा करने से अपलोडिंग का काम तेजी से होगा और अधिक पगार वाले एनआईसी तंत्रज्ञों की आवश्यकता को भी घटाया जा सकता है। सलाह तो मैंने दे दी, अब वह धरातल पर जाने कब उतरे।
एक दृष्टि डालते हैं हमारे आज के भाषाई साहित्य पर। शब्द ब्रह्म की उपासना और लिपिबद्ध ग्रंथों की रचना - दोनों ही कार्यों में भारत सर्वदा आगे रहा और इसी कारण विश्व गुरु बना। आज भी हमारा लिखित साहित्य अपार है-- खासकर संस्कृत में। लेकिन इंटरनेट पर हमारी उपस्थिति अत्यल्प है। यदि हमने तमाम देशी भाषाओं को इंटरनेट व वेबसाइट के माध्यम से ज्ञानभाषा नहीं बनाया तो भारत को फिर एक बार विश्व गुरु बनाने का सपना पूरा होना असंभव है। आज इंटरनेट के विभिन्न ज्ञान-स्थलों पर अंगरेजी में अरबों-खरबों पन्ने जुड़े हुए हैं पर विश्व जनसंख्या का पंचमांश हिस्सा रखने वाले भारत की भाषाओं के कुल पन्ने दस करोड़ से भी कम हैं। और जो हैं उनमें सर्चेबल पन्ने नितान्त कम। इस कमी को शीघ्रता से पूरा करना हमारी कार्यनीति का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बने यही है देशी भाषाओं के लिये शुभकामना।
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