श्रद्धा सूक्त
ऋग्वेद के दशम मंडल के १५१ वें सूक्त को श्रद्धा सूक्त कहते है इसकी रिषिका श्रद्धा कामायनी देवता श्रद्धा छन्द अनुष्टुप है
इस सूक्त में श्रद्धा का आवाहन देवी के रूप में करते हुए कहा है कि
वह हमारे हृदय में श्रद्धा उत्पन्न करे
श्रद्धयाग्नि समिध्यते श्रद्धया हूयते हवि
श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि
श्रद्धा से ही अग्निहोत्र की अग्नि प्रदीप्त होती है श्रद्धा से ही हवि की आहुति यज्ञमें दी जाती है। धन ऐंश्वर्य में सर्वोपरि श्रद्धा की हम पस्तुति करते हैं।
प्रिय श्रद्धे ददत: प्रियं श्रद्धे दिदासत: ।
प्रियं भोजेषु यज्वस्विदं म उदितं कृधि ।।
हे श्रद्धे दाता के लिये हितकर अभीष्ट फल को दो। हे श्रद्धे दान देने की जो इच्छा करता है उसका भी प्रिय करो। भोगैश्वर्य प्राप्त करने के इच्छुकों के भी प्रार्थित फल को प्रदान करो।
यथा देवा असुरेषु श्रद्धामुग्रेषु चक्रिरे ।
एवं भोजेषु यज्वस्वस्माकमुदितं कृधि ।।
जिस प्रकार देवों ने असुरों को परास्त करने के लिये यह निश्चय किया कि इन असुरों को नष्ट करना ही चाहिये उसी प्रकार हमारे श्रद्धालु ये जो याज्ञिक एवं भोगार्थी है इनके लिये भी इच्छित भोगोंको प्रदान करो।
श्रद्धा देवा यजमाना वायु गोपा उपासते
श्रद्धां हृदय्य याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु
वलवान वायु से रक्षण प्राप्त करके देव और मनुष्य श्रद्धा की उपासना करते है। वे अन्त:करण में संकल्प से ही श्रद्धा की उपासना करते है श्रद्धा से ही धन प्राप्त होता है।
श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह न: ।।
हम प्रात काल में श्रद्धा की प्रार्थना करते है मध्यान्ह में श्रद्धा की उपासना करते है। हे श्रद्धा देवी इस संसार में हमें श्रद्धावान बनाइये
पं बनवारी चतुर्वेदी