रविवार, 6 दिसंबर 2020

अध्याय १अ -- श्राद्धका अर्थ

 

रघोत्तम शुक्ल।

श्राद्धका अर्थ श्रद्धासे है, जो धर्मका आधार है। माता पार्वती और शिवको ‘श्रद्धा विश्वास रूपिणौ’ कहा गया है। पितृ-पक्ष हमें अपने पितरोंके प्रति श्रद्धा व्यक्त करनेका अवसर प्रदान करता है। हिंदू धर्ममें मान्यता है कि मानव शरीर तीन स्तरोंवाला है। ऊपरसे दृश्यमान देह स्थूल शरीर है। इसके अंदर सूक्ष्म शरीर है, जिसमें पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां, पंच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान समान), पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु) के अपंचीकृत रूप, अंत:करण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), अविद्या, काम और कर्म होते हैं। इसीके अंदर कारण शरीर होता है, जिसमें सत, रज, तम तीन गुण होते हैं। यहीं आत्मा विद्यमान है। मृत्यु होनेपर सूक्ष्म और कारण शरीरको लेकर आत्मा स्थूल शरीरको त्याग देता है।

मान्यता है कि यह शरीर वायवीय या इच्छामय है और मोक्ष पर्यंत शरीर बदलता रहता है। दो जन्मोंके बीचमें जीव इसी रूपमें अपनी पूर्ववर्ती देहके अनुरूप पहचाना जाता है। मरणोपरांत जीव कर्मानुसार कभी तत्काल पुनर्जन्म, कभी एक निश्चित कालतक स्वर्गादि उच्च या नरकादि निम्न लोकोंमें सुख-दुख भोगकर पुन: जन्म लेता है। अधिक अतृप्त जीव प्रबल इच्छाशक्तिके चलते यदाकदा स्थूलत: अपने अस्तित्वका आभास करा देते हैं। उचित समय बीतनेपर ये पितृलोकमें निवास करते हैं। ‘तैतरीय ब्राह्मण’ ग्रंथके अनुसार, भूलोक और अंतरिक्षके ऊपर पितृलोककी स्थिति है।

पौराणिक ग्रंथोंके अनुसार, देव, पितृ, प्रेत आदि सभी सूक्ष्म देहधारी भोगयोनिमें हैं, कर्मयोनिमें नहीं। उनमें आशीर्वाद, वरदान देनेकी असीम क्षमता है, किंतु स्वयंकी तृप्तिके लिए वे स्थूल देह धारियोंके र्पण पर निर्भर हैं। महाभारतमें पितरोंको ‘देवतानां च देवता’ कहा गया है, क्योंकि देव तो सबके होते हैं, पितृ अपने वंशजोंके हित साधक। पितरोंको संतुष्ट करनेके लिए श्राद्ध यानी पिंडदान व तर्पण आवश्यक माना गया है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं :

तरपन होम करैं विधि नाना। विप्र जेवांइ देहिं बहु दाना।।

श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा से है, जो धर्म का आधार है। कहा गया है :

श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावहि कोई।।’

माता पार्वती और शिव ‘श्रद्धा विश्वास रूपिणौ’ कहे गए हैं। हमारे धर्म ग्रंथोंमें पितृगणको तृप्त करने हेतु एक पखवारा अलगसे निश्चित है। यह भाद्रपद पूर्णिमासे क्वारकी अमावस्यातक होता है। जिस तिथिको, जिसका जो पितृ दिवंगत हुआ हो, उस तिथिको उसका श्राद्ध किया जाता है। तीन पिंड दिए जाते हैं- परबाबा, बाबा और पिता। इन्हें भूमिपर कुश बिछाकर अर्पण करते हैं। मुख दक्षिणकी ओर करना चाहिए।

श्राद्ध प्रकाश’ व अन्यान्य ग्रंथोंमें इनके विधि-विधानका वर्णन है। इनके अनुसार, चंद्रमामें जो केंद्र स्थान है, उस स्थानके ऊपरके भागमें, जो रश्मि ऊपरकी ओर जाती है, उसके साथ पितृप्राण व्याप्त रहता है। कृष्ण पक्षकी प्रतिपदामें मध्याह्नके समय जो रश्मि ऊपरकी ओर जाती है, वह इस समय १५ दिनको पृथ्वीकी ओर हो जाती है, जब चंद्रमा ध्रुवसे दक्षिण ‘विश्वजित’ तारेकी ओर जाता है, तभीसे चंद्र चक्र तिरछा होने लगता है। तब ऊपरके भागमें जो पितृप्राण रहता है, वह पृथ्वीपर आ जाता है और अपने परिवारमें घूमता है।

मान्यता है कि उस समय उसके नामसे उसका पुत्र या परिवार तर्पण या जौ, चावलका जो पिंड देता है, उसमेंसे अंश लेकर चंद्रलोकमें अंभप्राणको ऋण चुका देता है। इसीलिए इसे पितृपक्ष कहते हैं। मालूम हो कि हर प्राणीपर जन्मसे तीन ऋण होते हैं - देव, पितृ और ऋषि ऋण। पितृऋणकी पूर्ति पितृयज्ञ यानी श्राद्धसे होती है। इस रश्मिका नाम ‘श्रद्धा’ भी कहा गया है। चूंकि यह रश्मि मध्याह्नमें आती है, अत: श्राद्ध कर्म हेतु मध्याह्नसे अपराह्न यानी १२ से के बीचका समय ही श्रेयस्कर माना जाता है, जिसे ‘कुतुप’ काल कहते हैं।

वराह पुराण’ के अध्याय १९० के अनुसार, चारों वर्णोंके लोग श्राद्धके अधिकारी हैं। माना जाता है कि जलाशयमें जाकर एक बूंद जल भी पितरोंको श्रद्धासे अर्पित कर दें, तो वे तुष्ट होकर आशीर्वाद दे देते हैं। वराह पुराण कहता है यदि व्यक्ति साधनहीन है और कहीं वन प्रदेशमें है, तो दोनों हाथ उठाकर पितरोंको अपनी स्थिति बताकर श्रद्धा समर्पण कर दे, तब भी वे प्रसन्न होकर आशीष दे देते हैं। वशिष्ठ सूत्र और नारद पुराणके अनुसार, गयामें श्राद्धका बहुत महत्व है। स्कंद पुराणानुसार बदरिकाश्रमकी ‘गरुड़ शिला’ पर किया गया पिंडदान गयाके ही बराबर माना जाता है। श्राद्धमें श्रद्धाका सर्वाधिक महत्व है। यदि इसे पूरी श्रद्धाके साथ नहीं किया जाता तो इसे करना निरर्थक है।

न तत्र वीरा जायन्ते नारोगो न शतायुष:

न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धविवर्जितम।।

[लेखक आध्यात्मिक विषयों के अध्येता हैं]

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