रविवार, 6 दिसंबर 2020

श्रद्धा -- भूमिका -- किं कर्तव्यं किमर्थम्

 

भूमिका

किं कर्तव्यं किमर्थम्

जिस प्रकार एक व्यक्तिमें श्रद्धा होती है उसी प्रकार समाजकी एक श्रद्धा होती है और राष्ट्रकी भी एक श्रद्धा होती है। जिस राष्ट्रकी श्रद्धा जैसी हो वह राष्ट्र वैसा ही बनेगा। हजारों वर्षोंसे भारत राष्ट्रने यह श्रद्धा बनाए रखी कि मनुष्य समाजमें मनुष्यका मूल चरित्र लुटेरोंका नहीं है, वरन आपसी सद्भाव, मैत्री, करुणा आदि भावनाएं ही मनुष्यका मूलस्वभाव है। इसी प्रकार सत्य और ज्ञानकी अन्वेषणा भी मनुष्यका मूलस्वभाव है।

अतएव समाजकी मार्गदर्शक जो भी नियमावली बनी उसमें सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रम्हचर्य, संतोष, अपरिग्रह, निरंतर अभ्यास, शौर्य, न्यायभावना, शुचितापूर्ण व्यापार, राष्ट्रप्रेम इत्यादि गुणोंको उत्तम माना गया। उन गुणोंका संस्कार मनुष्यमें हो सके इस प्रकारकी समाज व्यवस्था बनानेका प्रयास भारतवर्षमें वारंवार किया गया।

इस पुस्तककी भूमिका लिखते हुए स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि इस विषयपर पुस्तक क्यों लिखी जाए। इसका कारण यही है कि हमें सर्वप्रथम यह समझना है कि हम भारत राष्ट्रको किस प्रकार बनाना चाहते हैं। आनेवाली पीढ़ियां क्या संस्कार लेकर आएँ और कितनी पीढ़ियोंतक यह संस्कार चलने चाहिए? इसके लिए सबसे पहले हमें निश्चित करना होगा कि हमारी अगली पीढ़ियोंकी श्रद्धा किन बातों में हो। फिर प्रश्न उठेगा कि वैसी श्रद्धा भारत राष्ट्रके नागरिकोंकी बनी रहे इसके लिए जो भी समाज व्यवस्था आवश्यक है क्या वह आज हमारे पास है? और यदि नहीं है तो हम उसे किस प्रकार निर्माण कर सकते हैं? तो मेरे विचारमें श्रद्धा और अंधश्रद्धाके बीचके अंतरको स्पष्टतासे उजागर करनेका प्रयोजन इस पुस्तकका नहीं है। मेरे विचारमें इस पुस्तकका उद्देश्य यह है कि अपने राष्ट्रको, राष्ट्रकी अगली पीढ़ियोंको हम किन विचारोंसे, किस प्रकारकी श्रद्धासे संस्कारित रखना चाहते हैं और उसके लिए हम कौनसे प्रयास करें!

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