रविवार, 6 दिसंबर 2020

अध्याय १ मनुष्य श्रद्धामय है

 

१ मनुष्य श्रद्धामय है

मनुष्य श्रद्धामय है। बिना श्रद्धाके मनुष्य मिलना संभव नही है। यदि वह नास्तिक भी हुआ तो भी "ईश्वर नही है" इस विचारको वह हमेशा पकडे रहता है। ये उसकी एकप्रकारसे श्रद्धा ही हुई।

"कल सुबह मुझे फिरसे जाग आयेगी" ये श्रद्धा हो तभी मनुष्य आज सो सकता है। नही तो उसका सोना भी दुःश्वर हो जायेगा। अगर किसीने उसकी श्रद्धाको डगमगाया तो वह स्वयं डगमगा जायेगा।

श्रद्धा कुएँके मेंढक की भी हो सकती है, या " अहं ब्रह्मास्मि" कहनेवालेकी भी हो सकती है।

इसीलिये गीता कहती है --

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥

जैसी जिसकी श्रद्धा होती है, वैसाही वह मनुष्य होता है। जैसी श्रद्धा वैसा ही मनुष्यका अंतःकरण।

कोई टिप्पणी नहीं: