अध्याय १ आ श्रद्धा ही जीवन है
श्रद्धा ही जीवन है
श्रद्धा मानव जीवनकी नींव है। जैसी जिसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है। गीताके शब्दोंमें श्रद्धामयोयं पुरुषः
अर्थात मनुष्य स्वभावसे ही श्रद्धावान है। यह बात अलग है कि उसकी श्रद्धाका आकार क्या है। जिस तरह सूर्यके बिना दिन नहीं होता, आंखोंके बिना देखा नहीं जाता, कानोंके बिना सुना नहीं जा सकता, उसी प्रकार श्रद्धाके बिना जीवन गतिमें नहीं हो सकती। जिस प्रकार दीपकके प्रज्वलित रहनेके लिए स्नेह आवश्यक है उसी प्रकार जीवनके लिए श्रद्धा आवश्यक है। वह मनुष्य मनुष्य नहीं जिसमें श्रद्धा न हो। श्रद्धा ही श्रद्धालुओंको सत्यका साक्षात्कार कराती है।
यजुर्वेद 19.30 का वचन है -- श्रद्धया सत्यम् आप्यते।
श्रद्धासे सत्यकी प्राप्ति होती है। श्रद्धा प्राणः। ९-५-२१ यह अथर्ववेद का वाक्य है। श्रद्धा ही मनुष्यका प्राण है। श्रद्धाविहीन मनुष्यको निष्प्राण या निर्जीव समझना चाहिए। किसी तरहकी श्रद्धा ना होने पर वह निश्चेष्ट ही रहेगा और चेष्टारहित जीवन मृत्युके समान ही होता है।
गीतामें कहा है कि श्रद्धा ही मुक्तिका ज्ञानप्राप्तिका और जीवनसाधनाका आधार है।श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्। श्रद्धालु व्यक्ति ही ज्ञानको पाता है। श्रद्धालु व्यक्ति अपनी इंद्रियोंका संयम करके तत्परतासे ज्ञान प्राप्त करता है ज्ञान प्राप्त होनेसे मुक्ति मिलती है, फिर वह परम शांति और सुखकी अनुभूति करता है। हमारी श्रद्धाका उदय होता है किसी महत्वपूर्ण व्यक्तिसे। जब हम किसी व्यक्तिमें जनसाधारणसे अधिक विशेष गुण या शक्तिका दर्शन करते हैं तो उसके प्रति एक आनंदयुक्त आकर्षण पैदा होता है। यही आकर्षण हमें उस व्यक्तिके महत्वको स्वीकार करनेके साथ-साथ उसके प्रति एक पूज्य भाव भी पैदा करता है। इसी प्रक्रियाका नाम श्रद्धा है। श्रद्धाका आधार व्यक्तिके गुण और कर्म ही होते हैं। इसलिए जिन कर्मोंकी प्रेरणासे श्रद्धा उत्पन्न होती है उन्हें धर्मकी संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार व्याख्यायित धर्मसे मनुष्य समाजकी स्थिति होती है। संक्षेपमें धर्मवान व्यक्ति हमारी श्रद्धाका केंद्र होता है। श्रद्धालु और श्रद्धेयके बीचमें यह धर्मकार्य ही मुख्य हेतु होता है।
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